अमरीक
शहरों की सभ्यता का इतिहास यकीनन इमारतें भी लिखती हैं. ऐसी इमारतें भूगोल ही नहीं बल्कि इतिहास भी बताती हैं. जालंधर कभी अविभाजित पंजाब का अहम शहर था और समकालीन पंजाब का भी एक महत्वपूर्ण महानगर है. यह कितना पुराना होगा, अंदाजे-अनुमान ही लगाए जा सकते हैं. शहर की कुछ इमारतें इसे 800 साल से भी पुराना बताती हैं. यहां एक ऐतिहासिक इमारत है, जिसमें मस्जिद भी है और मकबरा भी. मस्जिद-मकबरे वाली है.
इमारत शहर के बीचों-बीच स्थित है और 1947 के अति भयावह खूनी बंटवारे के दौरान इस मस्जिद और मकबरे की भूमिका बेहद मुफीद रही. मस्जिद और मकबरे कि इस ऐतिहासिक इमारत को 'इमाम नासिर मस्जिद' कहा जाता है. सुदूर देशों तक इसकी ख्याति है. इमाम नासिर मस्जिद लगभग 802 साल पुरानी है. इस लिहाज से यह अजमेर शरीफ दरगाह और हजरत निजामुद्दीन औलिया की जगप्रसिद्ध पावन जगहों से भी पहले की है.
इस तथ्य की पुष्टि की कुछ निशानियां भी बखूबी यहां मिलती हैं. मस्जिद-मकबरे के सुमेल ने इसे अलहदा अहमियत बख्शी जो आज तलक कायम है. तकरीबन नौ सदियां पहले यह जगह गुलजार नहीं थी. कुछ हिस्से में जंगल था तो कुछ में झीलनुमा पानी के ठहराव का ठिकाना.
उन दिनों फकीर और संत कहलाने वाली शख्सियतें लंबे-लंबे भ्रमण किया करती थीं और जहां दिल करता, पड़ाव डाल लेतीं. ईरान से इमाम नसीरुद्दीन अबू यूसुफ चिश्ती यहां आए और इस जगह को अपना ठिकाना बना लिया. कुछ लोगों का मानना है कि पहले वह फकीरों की धरती माने जाने वाले जालंधर से सटे कस्बेनुमा शहर नकोदर में रहे और फिर जालंधर आ बसे.
यहां के इमाम अनवर हुसैन के मुताबिक पहले उन्होंने जंगल साफ करके यहां खूबसूरत बगीचा बनाया और फिर जलभराव के निकास का बंदोबस्त किया. बगीचा आज भी ज्यों का त्यों कायम है. इमाम नसीरुद्दीन अबु युसूफ चिश्ती अकेले इरान से पंजाब आए थे और जब जालंधर ठिकाना बनाया तो धीरे-धीरे उनके अनुयायियों की तादाद में इजाफा होता चला गया. सुदूर इलाकों से भी उनके पास लोगबाग आने लगे. उनकी शोहरत दूर-दूर तक फैली और सोहबत के लिए अवाम का आना-जाना जारी रहा.
इमारत का निर्माण उन्होंने ही करवाया. वह पर्यावरण प्रेमी थे. इमाम नासिर मस्जिद की कमेटी से जुड़े लोग बताते हैं कि संभवत इमाम नसीरुद्दीन अबु युसूफ चिश्ती ने तब की रिवायत के विपरीत, अपने बाद के लिए किसी को भी गद्दीनशीन/वारिस घोषित नहीं किया. अलबत्ता एक खास शागिर्द जरूर हर वक्त उनके पास रहता था और उसका दफन भी वहीं किया गया, जहां इमाम नसीरुद्दीन शाह साहब का किया गया था. दोनों की दरगाहें अगल-बगल हैं.
जनाब इमाम नसीरुद्दीन अबु युसूफ चिश्ती के संदेशों अथवा कथनों की कोई पांडुलिपि इमाम नासिर मस्जिद में मौजूद नहीं है. वहां के परिदृश्य से हम इतना जरूर भांप सकते हैं कि वह समावेशी थे और उनकी देखरेख में लोकभलाई के खूब काम होते थे. ईरान से इमाम नसीरुद्दीन अबु शाह चिश्ती जब पंजाब की सरजमीं में आए तो उम्र कोई 25 साल थी और जब दुनिया से रुखसत हुए तो शायद 82 या 84 साल के थे. उनके साथ कई बेशुमार किंवदंतियां भी जुड़ी हुई हैं. ऐसी; जैसी तकरीबन हर फकीर और संत के साथ जुड़ी रहती हैं.
इमाम नासिर मस्जिद से वाबस्ता एक बहुत बड़ी बात यह है कि सूफी फकीर बाबा शेख फरीद ने यहां 40 दिन बिताए थे. धार्मिक अथवा अध्यात्मिक भाषा में इसे 'चालिया' कहा जाता है. जिस कोठरी में बाबा शेख फरीद रहते थे, वह आज भी कायम है और उसे जुम्मे (शुक्रवार) की रात दीदांरों के लिए खोला जाता है. वहां बाबा फरीद की पानी की एक सुराही पड़ी है. जो लोग इमाम नसीरुद्दीन अबु युसूफ चिश्ती साहिब की दरगाह का सजदा करते हैं-वे शेख फरीद की कोठरी में भी जाकर मत्था टेकते हैं. बाबा शेख फरीद उच्च कोटि के कवि हुए हैं और उनकी बाणी सिखों के पवित्रतम् ग्रंथ तथा ग्यारवें गुरु के तौर पर मान्यता रखने वाले श्री गुरु ग्रंथ साहिब में भी शुमार है.
मुसलमानों की मानिंद सिख और हिंदू भी बाबा शेख फरीद को खूब मानते हैं. इमाम नासिर मस्जिद के पास रहने वाले रहमान नसीर का कहना है कि उनके पुरखों में पीढ़ी दर पीढ़ी यह कहानी दोहराई जाती है कि शेख फरीद के दर्शनों के लिए लोग लाखों मील से घोड़ों और अन्य सवारियों पर सवार होकर आते थे. वे इमाम नसीरुद्दीन अबु युसूफ चिश्ती की दरगाह का सजदा तो करते ही थे, बाबा शेख फरीद के प्रवचन भी सुनते थे. जैसा कि सच्चे फकीर की निशानी होती है, इमाम नासिर मस्जिद में शेख साहिब ने बेहद सादा जीवन व्यतीत किया और 40 दिन के बाद यहां से रुखसत हो गए.
इमाम नासिर मस्जिद की भूमिका 1947 में बेहद लोकपक्षीय रही. चौतरफा मारघाट के बीच हजारों हिंदुओं और सिखों सहित मुस्लिमों ने यहां पनाह ली. मस्जिद के पास रहने वाले लाला नाजर कहते हैं कि वह बहुत छोटे थे जब भारत और पाकिस्तान दो मुल्कों में बंट गए. "शहर में खूब खून-खराबा हुआ. हमारे परिवार ने मस्जिद इमाम नासिर में शरण ली. कोई भी दंगाई वहां नजर नहीं आया. हिंदुओं के साथ-साथ बड़ी तादाद में सिखों और मुसलमानों ने भी वहां पनाह ली थी. वहीं हिंदू परिवार से ताल्लुक रखने वाली एक गर्भवती औरत ने जुड़वा बच्चों को जन्म दिया. दोनों लड़के थे. एक का नाम अबु रखा गया और दूसरे का फरीद. दंगों की दहशत और मनहूसियत के बावजूद उस दिन वहां मीठी देग (मीठे चावल) बनाई गई." वह बताते हैं. यह किस्सा उन्होंने अपने दादा से सुना था.
लगभग छह महीनों तक लोग इमाम नासिर मस्जिद में शरणार्थी बन कर रहे. किसी को कोई आंच नहीं आई और जब माहौल थोड़ा सामान्य हो गया तो सभी अपने-अपने घरों में चले गए. इत्तफाक है कि तमाम घरों के मुख्य द्वारों पर ताले वैसे ही लटक रहे थे, जैसे लगाए गए थे. किसी भी घर में लूटपाट नहीं हुई. लोगों का एक बड़ा हिस्सा आज भी इसे इमाम नसीरुद्दीन अबु युसूफ चिश्ती और बाबा शेख फरीद का सौजन्य अथवा आशीर्वाद मानता है.
प्रसंगवश, गौरतलब यह भी है कि बहुत सारे मुसलमानों ने पाकिस्तान जाने का फैसला किया और कुछ अन्य मजहब के लोगों ने दूसरी जगहों के शरणार्थी कैंपों में पनाह ली तो अपना कीमती समान इमाम नासिर मस्जिद में जमा करवा दिया. लंबे अरसे के बाद उन्हें सामान उसी रूप में सुरक्षित वापिस मिला. कुछेक लोग ऐसे थे जो भारत-पाकिस्तान के विभाजन के 20 साल बाद जालंधर की इमाम नासिर मस्जिद में अपना सामान लेने आए और उन्हें भी संभाला गया सामान उसी रूप में वापस हासिल हुआ. इस बात की पुष्टि जालंधर के एक बहुत बड़े अखबार के मालिक-संपादक करते हैं. उनका खुद का परिवार पाकिस्तान से उजड़ कर जालंधर आया था और आज मीडिया साम्राज्य में उनकी तूती बोलती है.
देश में कई बार ऐसे हालात दरपेश हुए की पंजाब में भी मुसलमानों, हिंदुओं और सिखों में अहिंसक तनाव का माहौल बना लेकिन इमाम नासिर मस्जिद इलाके में सांप्रदायिक सौहार्द यथावत कायम रहा. मस्जिद के बाहर 40 दुकाने बनी हुईं हैं और सबके किराएदार हिंदू या सिख हैं. बेशक बाहर की यह जायदाद वक्फ बोर्ड के हवाले है लेकिन दुकानदारों का ज्यादा मेलजोल मस्जिद के लोगों से है तथा बेहद अमन और सद्भाव वाला. एक स्थानीय दुकानदार संजीव कुमार शर्मा कहते हैं कि उन्हें कभी भी महसूस नहीं हुआ कि वह मुसलमानों की किसी जगह पर बैठे हैं. इमाम नासिर मस्जिद के आसपास के तमाम घर और दुकानें वगैरह हिंदू और सिखों की हैं. दुख-सुख में तीनों समुदायों के लोग एकजुट रहते हैं. दुकान वाला हिस्सा बेशक पंजाब वक्फ बोर्ड के हिस्से है लेकिन इमाम नासिर मस्जिद और दरगाह में उसका कोई दखल नहीं. यहां की देखरेख के लिए एक कमेटी बनी हुई है. हाजी नासिर मस्जिद से वाबस्ता मामले संभालते हैं तो मौलाना मोहम्मद अदनान दरगाह और मदरसे से जुड़े मामले देखते हैं.
यहां के मदरसे ने भी सैकड़ों साल की उम्र देखी है. कभी वक्त था कि मुस्लिम बच्चों के साथ-साथ हिंदू और सिख परिवारों के बच्चे भी यहां तालीम हासिल करते थे. मौलाना शमशाद मौलवी मदरसे के सदर हैं. वह 'आवाज द वॉयस' को बताते हैं, "मदरसे में रोजाना तकरीबन सौ बच्चे आते हैं.
उन्हें कुरान शरीफ के अलावा हिंदी, अंग्रेजी और गणित की शिक्षा भी दी जाती है. उर्दू सीखने के लिए दूसरे मजहब के लोग भी आते हैं. मदरसे में तमाम धर्मों के लोगों का स्वागत है. हमारी कोशिश है कि हम तालीम के लिए आने वाले बच्चों को आधुनिकता से भी जोड़ें. इमाम नासिर मस्जिद मदरसा किसी भी किस्म की कट्टरता नहीं सिखाता.
आपसी भाईचारे को बढ़ावा देता है और देता रहेगा" एक अनुमान के अनुसार यहां का मदरसा इतिहास के शुरू के मदरसों में से एक है. मौलाना शमशाद के अनुसार इस मदरसे को अत्याधुनिक बनाया जा रहा है. जिक्रेखास है कि सालाना उर्स में यहां बड़ी तादाद में लोग शिरकत करते हैं. कई मुस्लिम देशों से भी लोग यहां आते हैं.
इमाम नासिर मस्जिद मुगल वास्तुकला की छाप जगह-जगह है. दीवारों पर खूबसूरत चित्रकारी की गई है. मस्जिद के चार मुख्य दरवाजे हैं. एक दो मंजिला दरवाजे पर आकर्षण का केंद्र क्लॉक टॉवर लगा है. आश्चर्य की बात है कि 802 साल पुरानी इस मस्जिद का संज्ञान भारतीय पुरातत्त्व विभाग ने कभी नहीं लिया. स्थानीय लोग बताते हैं कि कभी कोई नहीं आया.