आज़ाद रौ हूं और मेरा मसलक है सुल्ह—ए—कुल

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] | Date 27-12-2022
आज़ाद रौ हूं और मेरा मसलक है सुल्ह—ए—कुल
आज़ाद रौ हूं और मेरा मसलक है सुल्ह—ए—कुल

 

संदर्भ : 27 दिसम्बर, मिर्ज़ा ग़ालिब का जन्मदिवस

ज़ाहिद ख़ान

मिर्ज़ा ग़ालिब उर्दू के अज़ीम शायर हैं.वे जितने उर्दू ज़बान में मक़बूल हैं, उतने ही उन्हें हिंदी में चाहने वाले हैं.उनकी शायरी हिंदुस्तानी समाज में मुहावरे और लोकोक्तियों की तरह दोहराई जाती हैं.ग़ालिब की शायरी को समझने के लिए लोग बड़ी तादाद में उर्दू की जानिब आए, उर्दू ज़बान सीखी.आज भी ये सिलसिला ज़ारी है.इस मक़बूलियत का ही सबब है कि उनका तक़रीबन सारा कलाम हिंदी में आ गया है.

एक लिहाज़ से कहें, तो ग़ालिब हिंदी-उर्दू भाषा के सेतु हैं.भारतीय उपमहाद्वीप में पैदा हुई इन दोनों प्रमुख भाषाओं के बोलने वालों को उन्होंने अपने कलाम से आपस में जोड़ा है.वे सभी के पसंदीदा शायर हैं.आम-ओ-ख़ास में ग़ालिब की शायरी की मक़बूलियत का ही असर है कि उनकी ग़ज़लों का इस्तेमाल हिंदी फ़िल्मों में भी हुआ.

साल 1954 में ग़ालिब पर एक फ़िल्म ‘मिर्ज़ा गालिब’ बनी, जो मुल्क भर में बेहद मक़बूल रही.तलत महमूद, मोहम्मद रफ़ी और सुरैया की सुरीली आवाज़ ने ग़ालिब की शाहकार ग़ज़लों ‘फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया’, ‘दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है’, ‘आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक’, ‘यह न थी हमारी किस्मत कि विसाल-ए-यार होता’ को घर-घर तक पहुंचा दिया.

बीसवीं सदी के आठवे दशक के आख़िर में जब गीतकार और निर्देशक गुलज़ार ने मिर्ज़ा ग़ालिब की ज़िंदगी पर इसी नाम से एक टेली सीरियल बनाया, तो यह सीरियल खू़ब मशहूर हुआ.मशहूर-ए-ज़माना ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह ने ग़ालिब की ग़ज़लों को अपनी आवाज़ दी.दूरदर्शन पर जब ये सीरियल प्रसारित होता, तो लोग इसको दीवानगी से देखते थे.

इस धारावाहिक ने भारत के अलावा भारतीय उपमहाद्वीप के सभी देशों में लोकप्रियता के नये कीर्तिमान स्थापित किए.ज़ाहिर है कि यह सब ग़ालिब की शायरी का ही असर था। ग़ालिब के परस्तारों में देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ही नहीं थे, बल्कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी उनके बड़े मद्दाह थे.

जब वे प्रधानमंत्री थे, दिल्ली में ग़ालिब इंटरनेशनल सेमिनार का आयोजन किया गया.इस कार्यक्रम में अटल बिहारी वाजपेयी जी भी शिरक़त की.जब वे भाषण के लिए उठे, तो उन्होंने अपनी तक़रीर में कहा, ‘‘अहद-ए-मुग़लिया ने हिंदुस्तान को तीन चीज़ें दी हैं-ताजमहल, उर्दू ज़बान और ग़ालिब की शायरी.’’

27 दिसम्बर, 1797को उत्तर प्रदेश के आगरा में पैदा हुए मिर्ज़ा ग़ालिब का असल नाम मिर्ज़ा असदउल्ला खां था और ‘असद’ एवं ‘ग़ालिब’ उनके तख़ल्लुस.लेकिन बाद में उन्होंने सिर्फ़ ‘ग़ालिब’ के तख़ल्लुस से ही शायरी की.

वे जब दस-ग्यारह साल के थे, तभी उनका शायरी से लगाव हो गया था.पन्द्रह साल की उम्र तक आते-आते उन्होंने दो हज़ार शे’र का एक दीवान मुकम्मिल कर लिया था.लेकिन बाद में उस दीवान को ख़ारिज कर दिया.फ़ारसी ज़बान के बड़े शायर मिर्ज़ा अब्दुल कादिर ‘बेदिल’ से ग़ालिब बेहद मुतास्सिर थे और उन्हीं की तरह लिखना चाहते थे.

मिसाल के तौर पर उनका एक शे’र है, जो उन्हीं दिनों यानी तक़रीबन 1812 में उन्होंने कहा था, ‘‘तर्जे़-बेदिल में रेख़्ता कहना/असदुल्लाह ख़ाँ क़यामत है.’’ हुरमुज़्द उर्फ अब्दुस्समद वे शख़्स थे, जिनसे ग़ालिब ने फ़ारसी और इस ज़बान के मुहावरे की तालीम ली.अ

ब्दुस्समद ने उनके शायरी में रुझान को देखते हुए, ग़ालिब को काव्य शास्त्र की बारीकियां सिखाईं.मिर्ज़ा ग़ालिब ने यूं तो अपनी शायरी का आग़ाज़ फ़ारसी ज़बान में ही किया, लेकिन मौलवी फ़ज़ले हक़ खै़राबादी और दीगर दोस्तों के मशवरे के बाद वे पूरी तरह उर्दू में आ गए.

उर्दू ज़बान को ही उन्होंने अपने इज़हार का ज़रिया बना लिया.ज़बान-ओ-बयान के सरल से सरल रूपों और रोजमर्रा के मुहावरों को आधार बनाकर, उन्होंने शायरी की.वे बोलचाल के अंदाज़ में अपनी शायरी कहते थे, जो हर एक को समझ में आती है.‘‘उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़/वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है.’’

ज़िंदगी के कई रंग ग़ालिब की शायरी में नज़र आते हैं.ज़िंदगी में दरपेश हालात पर वे कोई न कोई मिसरा या शे’र कह देते थे.‘‘रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल/जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है.’’ ग़ालिब हर बात में नई बात पैदा कर लेते थे और हर बात को नई तर्ज़ से कह देते थे.

उनका यही अंदाज़ सभी को भाता है.‘‘हज़ारों ख़वाहिशें ऐसी कि हर ख़वाहिश पे दम निकले/बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले.’’ ग़ालिब पर कभी किसी बात की बंदिश हावी नहीं हुई.धार्मिक और पारंपरिक जकड़बंदियों को उन्होंने हमेशा तोड़ा.‘‘हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन/दिल के ख़ुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है.’’

मिर्ज़ा ग़ालिब के मिज़ाज को समझना है, तो उनके इस शे’र पर नज़र डालिए, ‘‘आज़ाद रौ हूं और मेरा मसलक है सुल्ह—ए—कुल/हर्गिज़ नहीं किसी से अदावत नहीं मुझे.’’ मिर्ज़ा ग़ालिब आज़ाद ख़याल थे.मुहब्बत उनका मसलक था.

इंसानियत को वे सबसे बड़ा मज़हब मानते थे.उनकी नज़र में इंसान होना सबसे मुश्किल काम था.‘‘बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना/आदमी को भी मुयस्सर नहीं इंसाँ होना.’’ ग़ालिब की कभी किसी से कोई अदावत नहीं रही.उन्होंने अपने कलाम से समाज में सिर्फ़ मुहब्बत और मुहब्बत बांटी.

अपने दौर के इतने बड़े शायर होने के बाद भी उनको अपने बारे में कोई गु़मान नहीं था.वे अपने आप को भी एक साधारण इंसान समझते थे, जिसमें अच्छाई और बुराई दोनों मौजूद है.‘‘दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ/मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ.’’

मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी में इश्क़-ओ-मुहब्बत, मिलन और विरह के जज़्बात बड़ी खू़बसूरती से नुमायां हुए हैं.यही वजह है कि नई पीढ़ी भी उनकी शायरी की मुरीद है.ग़ालिब की शायरी जहां मुहब्बत में डूबी दिखाई देती है, तो वहीं महबूब से जुदाई के अनेक रंग भी उसमें दिखाई देते हैं.इंतज़ार की घड़ियों को लफ़्ज़ों में पिरोकर उन्होंने जो शायरी की, वह तो वाक़ई लाजवाब है.

‘‘आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक/कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक.’’ इंतज़ार की घड़ियों में भी वे मसर्रत हासिल करते हैं.‘‘ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता/अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता.’’

मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी में सिर्फ़ इश्क़-ओ-मुहब्बत, मिलन और विरह के जज़्बात ही नहीं हैं, उनके कलाम में दार्शनिक गहराई और कलात्मक सुंदरता भी है.‘‘न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता/डुबोया मुझ को होने ने, न होता मैं तो क्या होता.’’

पनी ज़िंदगी के आख़िरी वक़्त में उन्होंने इस रंग-रूप की कई ग़ज़लें लिखीं.‘‘खु़शी जीने की क्या, मरने का ग़म क्या/हमारी ज़िंदगी क्या और हम क्या.’’ यह मिर्ज़ा ग़ालिब के ज़िंदगी के आख़िरी दौर का शे’र है.जिसमें वे बड़ी सहजता से ज़िंदगी के पूरे फ़लसफे़ को बयां कर जाते हैं.

मिर्ज़ा ग़ालिब का एक ज़माने में मुग़ल दरबार में भी बड़ा दबदबा रहा.मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ‘जफ़र’ खु़द उनके शागिर्द रहे.मुग़ल दरबार ने उन्हें ‘नज्मुद्दौला दबी-रुलमुल्क निज़ाम-जंग’ की उपाधि दी हुई थी.1857क्रांति के बाद ग़ालिब की ज़िंदगी बड़ी तकलीफ़ों में बीती.उनकी पेंशन बंद हो गई, जिससे उन्हें काफ़ी आर्थिक परेशानियां पेश आईं.

बावजूद इसके उन्होंने कभी शायरी से नाता नहीं तोड़ा.उन पर जितनी मुसीबतें आतीं, वे और मजबूत हो जाते.अपनी शायरी में निखरकर आते.तमाम परेशानियों के बाद भी उन्होंने कभी किसी से कोई गिला-शिकवा नहीं किया.‘‘रंज से ख़ू़गर हुआ इंसाँ, तो मिट जाता है रंज/मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसाँ हो गईं.’’

मिर्ज़ा ग़ालिब ने फ़ारसी और उर्दू दोनों जुबानों में बेशुमार लिखा.ग़ालिब के कलाम ‘दीवाने-ग़ालिब’ का देश-दुनिया की कई भाषाओं में अनुवाद हुए है और आज भी यह किताब पूरी दुनिया में बहुत मक़बूल है.मिर्ज़ा गालिब के कलाम की पहली किताब ‘नुस्ख़ा-ए-हमीदिया’’ थी, जो साल 1821में शाया हुई.

उस वक़्त उनकी उम्र महज़ चौबीस साल थी.‘मेहे-नीमरोज़’ में ग़ालिब ने तैमूर वंश का इतिहास लिखा है.यह किताब फ़ारसी ज़बान में है.‘दस्तंबू’ मिर्ज़ा गालिब की आपबीती है, जो रोज़नामचे के अंदाज़ में लिखी गई है। इसमें 11मई 1857 से लेकर 31जुलाई 1858 तक के हालात का तटस्थ ब्यौरा है.

यह वह दौर था, जब अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ पूरे देश में क्रांति की लहर फैली हुई थी.‘यादगारे-ग़ालिब’ मौलाना अल्ताफ़ हुसेन ‘हाली’ द्वारा लिखी किताब है, जो उनके करीबी शागिर्द थे.इस किताब में ग़ालिब की जिंदगानी और उनके दौर का प्रमाणिक लेखा-जोखा है.

इसमें उनके कलाम का इंतख़ाब और तनकीद भी शामिल है.ग़ालिब के कलाम का लिप्यंतरण और अनुवाद हिंदी में भी खू़ब हुआ है.ग़ालिब इंस्टीट्यूट द्वारा प्रकाशित ‘दीवान’, अब तक प्रकाशित सभी हिंदी संस्करणों की तुलना में सबसे ज़्यादा शुद्ध है.इसका लिप्यंतरण नूर नबी अब्बासी ने किया है.इस संस्करण में ग़ालिब की 235ग़ज़लें शामिल हैं.

15 फरवरी, 1869 को मिर्ज़ा ग़ालिब ने इस जहान-ए-फ़ानी से हमेशा-हमेशा के लिए अपनी रुख़्सती ले ली.उन्हें इस दुनिया से गुज़रे डेढ़ सदी से ज़्यादा हो गए हैं, लेकिन उनकी शायरी आज भी लोगों के जे़हन में उसी तरह रची-बसी है.लोग उन्हें आज भी याद करते हैं.‘

हुई मुद्दत कि ‘ग़ालिब’ मर गया, पर याद आता है/वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता.’’ सच बात तो यह है कि ग़ालिब के अंदाज-ए-बयां के लोग पहले भी दीवाने थे और आज भी हैं.उनके जैसा सुख़नवर न तो कोई पहले हुआ और न आइंदा कोई दूसरा होगा.‘‘हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे/कहते हैं कि ‘ग़ालिब’ का है अंदाज़-ए-बयां और.’’