मौलवी फरीदुद्दीन और राम बख्श ने ब्रिटिश साम्राज्य को कैसे परेशान किया?

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 05-02-2024
Britishers cruelty on Indian farmers
Britishers cruelty on Indian farmers

 

साकिब सलीम

‘‘मौलवी फरीदुद्दीन और राम बख्श के बीच की बातचीत, जो जनता के बीच प्रसारित की जा रही है, एक बहुत ही अलग स्वर अपनाती है... यह एक उच्च न्यायालय के वकील और एक ग्रामीण के बीच एक संवाद के रूप में है, जिसे मौलवी फरीदुद्दीन समझाते हैं कि सब कुछ कैसे होता है, किसानों को जिन बुराइयों का सामना करना पड़ता है, उन्हें मौजूदा सरकार के स्वरूप के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए, और यदि इसे लोकप्रिय आधार पर पुनर्गठित किया जाता है, तो यह गायब हो जाएगी.

इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस तरह के लेखन सबसे गंभीर राजनीतिक खतरा पैदा करते हैं... सरकार की निंदा करने और यह दावा करने से कि यह उनकी गरीबी और उनके अन्य सभी दुर्भाग्य का कारण है, एकमात्र विचार संभवतः उनके मन में व्यक्त हो सकता है कि जो आवश्यक है, वह एक सामान्य विद्रोह है और देश में प्रत्येक यूरोपीय का विनाश है.’’ ये शब्द 1888 में भिनगा के राजा उदय प्रताप सिंह द्वारा लिखे गए थे.

मौलवी फरीदुद्दीन और राम बख्श के बीच यह क्या बातचीत थी? इसे भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के लिए खतरनाक क्यों माना गया?

विचाराधीन पैम्फलेट 1887 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) के नेतृत्व वाले ए.ओ. ह्यूम द्वारा प्रकाशित किया गया था. यह एक कांग्रेसी मौलवी फरीदुद्दीन और एक काल्पनिक गांव कम्बख्तपुर के एक किसान राम बख्श के बीच एक काल्पनिक बातचीत थी.

आईएनसी का गठन केवल तीन साल पहले ए.ओ. ह्यूम के मार्गदर्शन में किया गया था और स्थानीय भाषाओं में प्रकाशित इन पैम्फलेटों ने औपनिवेशिक सत्ता के कानों में खतरे की घंटी बजा दी थी. यह सामग्री ब्रिटिश विरोधी मानी जाती थी, जो भारतीयों को औपनिवेशिक शासन के खिलाफ विद्रोह के लिए प्रेरित करने वाली थी.

आश्चर्य की बात नहीं है कि, भारत में ब्रिटिश सरकार के वफादार इस पर्चे की निंदा करने के लिए सार्वजनिक रूप से सामने आए. ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ कांग्रेस के प्रचार का विरोध करने के लिए सर सैयद अहमद खान के नेतृत्व में यूनाइटेड इंडियन पैट्रियटिक एसोसिएशन (यूआईपीए) नामक एक संगठन का गठन किया गया था, जिसमें हिंदू और मुस्लिम वफादार थे.

यह उल्लेखनीय है कि अधिकांश इतिहासकार 1885 से 1905 तक की अवधि को कांग्रेस के शांतिवादी चरण के रूप में खारिज करते हैं. यह तर्क दिया जाता है कि इस अवधि के दौरान, कांग्रेस नेतृत्व ने ब्रिटिश साम्राज्य को चुनौती नहीं दी और छोटी रियायतें हासिल करने के लिए याचिका दायर करने पर ध्यान केंद्रित किया. हालांकि, उपरोक्त पुस्तिका के इर्द-गिर्द फैली दहशत स्पष्ट रूप से दर्शाती है कि कांग्रेस पहले से ही साम्राज्य के खिलाफ एक क्रांतिकारी युद्ध की तैयारी कर रही थी.

अलीगढ़ में एम.ए.ओ कॉलेज के प्रिंसिपल थियोडोर बेक ने यूआईपीए के संपादक के रूप में कार्य किया. उन्होंने पर्चे का वर्णन करते हुए कहा, ‘‘यह एक कांग्रेसवाले (एक मौलवी!) और एक किसान के बीच एक काल्पनिक बातचीत का प्रतिनिधित्व करता है. कांग्रेसवाला दो गांवों के बीच समृद्धि में अंतर की ओर इशारा करता है - एक शम्शपुर, जिसका स्वामित्व ग्रामीणों के पास संयुक्त रूप से है, और दूसरा कम्बख्तपुर, जिसका स्वामित्व एक अनुपस्थित राजा के पास है.

पहले के बारे में कहा जाता है कि यह भारत को दर्शाता है, क्योंकि यह एक देशी प्रतिनिधि सरकार के अधीन होगा, और दूसरे के बारे में कहा जाता है कि यह उस भारत को दर्शाता है जो यह ब्रिटिश शासन के अधीन है.

शमशपुर की समृद्धि और कम्बख्तपुर की दुर्दशा के बीच एक स्पष्ट विरोधाभास खींचा गया है. हर दुर्भाग्य, जिससे हमारे गरीब किसान पीड़ित हैं, चाहे वह सरकार द्वारा दूर किया जा सके या गरीबी को दूर करने के लिए, मानव शक्ति के संसाधनों से परे, साहूकार की जबरन वसूली, पुलिस का उत्पीड़न, नहर के पानी के दुष्प्रभाव का अध्ययन सटीकता के साथ वर्णन किया गया, कम्बख्तपुर को बर्बाद करने के रूप में, जबकि शम्शपुर उन सभी से मुक्त है.’’

पैम्फलेट ने न केवल ब्रिटिश सरकार के अत्याचारों की ओर इशारा किया, बल्कि यह भी स्थापित किया कि भारत की आत्मा हिंदू-मुस्लिम एकता में निहित है. भारत एक ऐसी भूमि है, जहां मौलवी फरीदुद्दीन और राम बख्श एक-दूसरे के हितों की परवाह करते हैं.

कथित तौर पर ए.ओ. ह्यूम द्वारा अंग्रेजी में लिखे गए इस पर्चे का उर्दू और हिंदी जैसी कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया गया था. इसकी लाखों प्रतियां भारत की जनता के बीच वितरित की गईं और इस प्रकार उन्हें अंग्रेजी शासकों की ज्यादतियों के बारे में पता चला.

पैम्फलेट में एक अंग्रेज कलेक्टर के कार्यों का ग्राफिक रूप से वर्णन किया गया था. जिसमें लिखा है,

रामबख्श- ‘‘उसे याद है? राम, राम, उसका नाम मत लो (उसका जिक्र मत करो), मैं उसके निशान अब भी सहन करता हूं (जहां मैं उन्हें आपको नहीं दिखा सकता, मौलवी साहब), हालांकि यह बीस साल पहले का है. आप देख रहे हैं, उनका लश्कर हमारे गांव में आया था. घोड़ों के लिए घास नहीं थी, कलेक्टर तहसीलदार पर चिल्लाया, जिन्होंने कहा कि रामबख्श जिम्मेदार था. ‘ओह’, साहब ने मुझे अपने चाबुक से मारते हुए कहा.

आप सुअर के बच्चे हैं, हरामजादा. मैं तुम्हें सिखाऊंगा कि आदेशों का पालन कैसे किया जाता है. यहां, खलासी (तम्बू लगाने वाला), उसे बांधता है और उसे तीस बेंत मारता है. तहसीलदार ने इस मामले के बारे में मुझसे एक शब्द भी नहीं कहा.

मैंने यह समझाने की कोशिश की, ‘‘लेकिन साहब ने मेरे मुंह और चेहरे पर कोड़े से मारा और चिल्लाते हुए कहा कि अपनी जुबान को लगाम दो. मैं तुझे सिखाऊंगा! उसे बाँधो, उसे बाँधो, कोड़े मार कर उसके प्राण निकाल दो, और मुझे घसीटकर ले जाया गया और तब तक कोड़े मारे गए, जब तक मैं बेसुध नहीं हो गया. मुझे चलने में एक महीना लग गया था. हाँ, वह बुरा था, मैंने बहुत से कलेक्टरों को देखा है, जिनमें से कुछ अच्छे थे, कुछ उदासीन थे, लेकिन यही एकमात्र असली शैतान था.’’

यूआईपीए के संयोजक सर सैयद अहमद खान ने पर्चे और कांग्रेस के बारे में कहा, ‘‘क्या वे (कांग्रेस) इस तथ्य से इनकार कर सकते हैं कि उन्होंने (ब्रिटिश) सरकार के खिलाफ आम लोगों में असंतोष फैलाने के अपने प्रयासों में कोई कसर नहीं छोड़ी है?

क्या द स्टार इन द ईस्ट, द तमिल कैटेचिज्म और फरीदुद्दीन और रामबख्श के बीच बातचीत, जिसमें कई कथन झूठे हैं, जबकि वास्तविक तथ्यों को गलत रोशनी में रखा गया है, साथ ही उनके कई अन्य भाषण और लेख पर्याप्त सबूत नहीं हैं? अगर यह सच है कि उर्दू और हिंदी में हजारों प्रतियां (हिंदुस्तानी अखबार कहता है लाखों) छापी गई हैं, और प्रांतों में प्रसारित की गई हैं.’’

अवध के जमींदारों के संघ के कानूनी सलाहकार मुंशी इम्तियाज अली ने स्वयं कांग्रेस और पर्चे के विरोध में लखनऊ में एक बड़ी सार्वजनिक बैठक की अध्यक्षता की.

उन्होंने कांग्रेस के पर्चे के इरादे की तुलना 1857 के विद्रोह से की. इसमें लिखा था, ‘‘मुझे सबसे बड़ा डर है कि इस पुस्तक के व्यापक प्रसार और राष्ट्रीय कांग्रेस के तरीकों से एक बड़ा विद्रोह पैदा हो जाएगा. मैं एक ऐसे व्यक्ति के रूप में बोल रहा हूं, जो याद करता है कि हमें कैसे लूटा गया था, पहले विद्रोहियों द्वारा और फिर ब्रिटिश सैनिकों द्वारा... मैं सरकार से अपील करता हूं कि वह हमें ऐसी भयावहता की पुनरावृत्ति से बचाए.

1857 के विद्रोह का प्रभाव एन.डब्ल्यू.पी और अवध तक ही सीमित था, लेकिन यदि राष्ट्रीय कांग्रेस के कार्यों से कोई विद्रोह उत्पन्न हुआ, तो यह पूरे भारत में फैल जाएगा.’’

अवध के तालुकदार चौधरी नसरत अली ने भी ऐसी ही राय व्यक्त की. उन्होंने लिखा, ‘‘अंग्रेजी और उर्दू में प्रकाशित कुख्यात पैम्फलेट...राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापक और उनके साथियों द्वारा की गई सशक्त रूप से बेवफा भावनाओं का कुछ अंदाजा देता है, जो लगातार विद्रोह की आग को भड़काने की कोशिश कर रहे हैं. एक सामान्य आगजनी, जो पूरे भारत को घेर लेगी और जिसे दबाना या बुझाना मुश्किल होगा.’’

नसरत ने आगे टिप्पणी की, ‘‘शुरुआत से अंत तक पैम्फलेट यह दिखाने का एक समान और लगातार प्रयास है कि भारत सरकार एक दमनकारी निरंकुश है और यह मूल आबादी का कर्तव्य है कि वह अपने उत्पीड़कों, ताकतों और मुख्य लोगों का विरोध करे.’’

यूआईपीए सदस्यों के मन में पर्चे के पीछे की मंशा और कांग्रेस नेतृत्व को लेकर कोई संदेह नहीं था. रिपोर्ट में लिखा है, ‘‘पैम्फलेट उस ‘भयानक टिड्डियों के झुंड’ यानी ब्रिटिश सरकार के खिलाफ अज्ञानी कृषकों और असभ्य ग्रामीणों के विशाल समूह के प्रति नफरत को भड़काने का प्रयास करता है,

उन्हें यह बताकर कि वे बढ़े हुए लगान और बढ़ोतरी से बर्बाद हो रहे हैं. भूमि पर कराधान. निःसंदेह, इसका उद्देश्य उन्हें क्रूर निरंकुशता के रूप में सरकार से नफरत कराना है, और चूंकि वे बेहद मूर्ख हैं, इसलिए उन्हें ऐसी मूर्खतापूर्ण बातों पर विश्वास दिलाना आसान है.’’