एनएन दास / भुवनेश्वर
हजरत बुखारी बाबा (रहमतुल्ला अलेहिस्सलाम) की दरगाह ओडिसा में स्थित है. यह इस क्षेत्र की सबसे महत्वपूर्ण दरगाह है. यहां के खादिम के अनुसार इस दरगाह में महत्वपूर्ण त्योहारों पर 75 प्रतिशत से ज्यादा हिंदू श्रद्धालु शामिल होते हैं. इस दरगाह की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यहां फूलों की माला देने वाले और दैनिक प्रसाद के लिए मिठाई देने वाले हिंदू हैं. राजा रामचंद्र देव (18 वीं शताब्दी) द्वारा दी गई भूमि पर माला बनाने वाले और मिठाई बनाने वाले हिंदू परिवार अब भी दरगाह के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हैं.
एक राजा ने यहां एक ही दरगाह में दो अलग-अलग धार्मिक समुदायों के लोगों द्वारा पूजा करने को संस्थागत स्वरूप दिया, जो यूरोप में अकल्पनीय है. हेनरी चतुर्थ ने ‘एडिक्ट डी नैनटेस’ समझौते के साथ जो सबसे अधिक हासिल किया, वह अल्पसंख्यक धर्म के एक पंथ के विवेकपूर्ण प्रदर्शन की अनुमति देना था और वह भी बहुत लंबे समय तक नहीं चल पाया. दो अलग-अलग धर्मों द्वारा संयुक्त पूजा यूरोपीय इतिहास में अविश्वसनीय रही है.
उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर से खुर्दा 29 किमी दूर और खुर्दा से 40 किमी की दूरी पर सार्वभौमिक भाईचारे और हिंदू बाहुल्य एकता के क्लासिक उदाहरणों में से कैपदार दरगाह स्थित है.
यह ओडिशा का सबसे प्रसिद्ध पीर की दरगाह है. यहां प्रसाद निर्माता हिंदू है और वह हिंदू ही होता है, मुसलमान नहीं हो सकता, यही परंपरा है. हिंदू और मुसलमान दोनों इस पीर दरगाह पर आस्था रखते हैं.
कैपदार लगभग 5000 निवासियों का एक गांव है, जिसमें लगभग सिर्फ एक-पांचवां हिस्सा मुसलमानों की आबादी है. पीर की दरगाह विस्तृत संरचना में है, जो आस-पास के कमरों के साथ एक बड़े कोर्ट-यार्ड से घिरी हुई है. इस परिसर के बगल में एक मस्जिद भी है.
छूत-अछूत या जाति की यहां कोई भावना नहीं है. हर कोई यहां आकर एक साथ भोजन कर सकता है. पवित्र दिनों में कुरान का पाठ किया जाता है. मुसलमान और हिंदू बिना किसी मतभेद के भाइयों की तरह रहते हैं.
यहां सत्य नारायण पूजा होती है. धर्मस्थल पर लगा झंडा हिंदू और मुस्लिम संस्कृति की समानता का प्रतीक है.
यह दरगाह बुखारी बाबा की है, जो एक संत थे और 17वीं शताब्दी में समरकंद से यहां आए थे. उनका जन्म बोखारा में एक मुस्लिम परिवार में हुआ था. बाद में उनका नाम पूरे ओडिशा और पूरे भारत में फैला.
उन्हें ईश्वर प्रेमी और ईश्वर भक्त माना जाता था. वे बचपन से ही दुनियादारी में नहीं बंधे और उन्होंने सन्यास ले लिया था. वे विभिन्न तीर्थों में गए. वे मक्का और मदीना गए और फिर वे भारत, दिल्ली, अजमेर, मेरठ, गुजरात और ओडिशा आए.
स्टर्लिंग के इतिहास से हमें पता चलता है कि 1953 में कैपदार का किला पहले जंगल से घिरा हुआ था. उस दिन बाबा दोपहर को वहां पहुंचे थे. दोपहर को उन्होंने नमाज अदा की. शुद्धिकरण के लिए उन्हें पानी की जरूरत थी, इसलिए बाबा यहां लंबी दाढ़ी और बालों वाले एक साधु के पास गए और वजू के लिए उनसे पानी मांगा.
साधु जानते थे कि बाबा सिद्ध पुरुष हैं. परीक्षण करने के लिए उन्होंने उनसे कहा कि उनके पास पानी नहीं है और उन्होंने पानी का खुद इंतजाम करने की सलाह दी.
बाबा के हाथ में लोहे की छड़ थी और उससे उन्होंने पृथ्वी पर आघात किया, तो पानी का सोता फूट पड़ा. मंदिर के प्रांगण में आज भी कुएं में पानी दिखाई देता है.
फिर दोनों संत आध्यात्मिक ग्रंथों और दर्शन की चर्चा करते हुए एक ही स्थान पर रहने लगे. साधु कुछ समय बाद तीर्थ यात्रा पर चले गए और बाबा खूबसूरत जंगल के फल-फूलों के सहारे वहीं जीवन व्यतीत करने लगे. वे वृद्ध थे और ध्यान का अभ्यास करते थे.
एक बार गजपति रामचंद्र देव (तत्कालीन राजा) ऐतिहासिक बारूनी पहाड़ी पर ठहरे थे. राजा कैपदार किले के पास शिकार कर रहे थे और त बवे बाबा से मिले. राजा ने बाबा को देखकर धन्य महसूस किया. बाबा से अनुमति लेकर राजा ने वहां एक आश्रम बनाया और फूलों के जंगल में उनके खाने-पीने की व्यवस्था की.
तब तक बुखारी बाबा की ख्याति हर जगह फैल गई. बाबा हिंदुओं और मुसलमानों के प्रति समान रूप से स्नेही थे. दर्शन होने से लोगों को संतुष्टि मिलती थी.
एक चरवाहा बालक बाबा के महान कार्यों को सीख लेकर नियमित रूप से वहां दूध चढ़ाने लगा. फिर कई लोग वहां आकर रहने लगे और उस इलाके में एक बस्ती बस गई.
एक दिन चरवाहे बालक ने देखा कि ध्यानमग्न बाबा के चारों तरफ चीटियों की बांबी और मिट्टी का ढेर खड़ा हो गया है. उसने गांव में भागकर लोगों को यह खबर सुनाई. ग्रामीणों ने आकर देखा कि गहरे ध्यान में बाबा के चेहरे पर एक शानदार चमक है. बस ये उनके अंतिम दर्शन थे.
लोगों ने उन पर फूल चढ़ाए और फिर उन्हें पूरी तरह मिट्टी से ढंक दिया. इस तरह उन्हें जिंदा पीर माना जाता है. वह खुदा (अल्लाह) के बहुत बड़े भक्त हैं.
भोर में दरगाह का मुख्य द्वार खोला जाता है और साफ-सफाई की जाती है. खादिम नगाड़ा (ड्रम) बजाता है. धर्मस्थल का दरवाजा खोल दिया जाता है और माली और गुड़िया उनके लिए फूलों और मिठाइयों की व्यवस्था करते हैं. खादिम चंदन का तिलक और फूल चढ़ाते हैं और घी का दीपक जलाते हैं. फिर सिरकी चढ़ाया जाता है.
शाम को ढोल भी बजाया जाता है और धूप की जाती है. दरगाह रात 9 बजे तक खुला रहता है. पवित्र दिन गुरुवार के दिन यहां गरीबों को खैरात दी जाती है और फकीरों को खिलाया जाता है. यहां कई वार्षिक त्योहारों को भी मनाया जाता है जैसे उर्स, रमजान आदि.