इलाहाबाद की ठेठ तहजीब को उकेरता है बालेंदु द्विवेदी का नया उपन्यास वाया फुरसतगंज

Story by  मुकुंद मिश्रा | Published by  [email protected] | Date 26-02-2021
वाया फुरसतगंज का कवर (फोटो सौजन्यः वाणी प्रकाशन)
वाया फुरसतगंज का कवर (फोटो सौजन्यः वाणी प्रकाशन)

 

मंजीत ठाकुर/ नई दिल्ली  

आप मदारीपुर जंक्शन वाले बालेंदु द्विवेदी को तो जानते ही होगे. इस बुधवार को उनके दूसरे उपन्यास ‘वाया फुरसतगंज’ का विमोचन प्रयागराज में उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र में हुआ.

उपन्यास विमोचन कार्यक्रम के बाद उपन्यास पर आधारित एक नाटक का मंचन भी हुआ जिसका नाट्य रूपांतरण और निर्देशन ‘दि थर्ड बेल’ संस्था के प्रसिद्ध रंगकर्मी और निर्देशक आलोक नायर की टीम ने किया. यह मंचन वाणी प्रकाशन ग्रुप और 'दि थर्ड बेल' संस्था की संयुक्त प्रस्तुति थी.

द्विवेदी के पहले उपन्यास मदारीपुर जंक्शन का मंचन भी तीन साल पहले यहीं हुआ था.

उपन्यासकार द्विवेदी कहते हैं, “वाया फ़ुरसतगंज इलाहाबाद की पृष्ठभूमि पर ही केंद्रित है और इसमें शहर की ठेठ संस्कृति को उकेरने की कोशिश की गयी है.”

असल में वाया फुरसतगंज की कहानी एक गांव की छोटी-सी घटना के बहाने मुख्यधारा की राजनीति की गहन पड़ताल करती है और इसके रेशे-रेशे को उघाड़ती चलती है.

फुरसतगंज एक ऐसे गांव का प्रतिनिधित्व करता है जिसके अधिकांश निवासी पारंपरिक रोज़गार को छोड़कर, बाक़ी सभी तरह के रोज़गारों से न केवल वाकिफ़ हैं बल्कि इस तरह के कार्यों में बख़ूबी दख़ल भी रखते हैं. इससे बिल्कुल सटा हुआ इसका सहोदर गाँव शाहदतगंज है जिसके निवासी मेहनती हैं; पर दुर्भाग्य यह है कि उनकी भी सारी मेहनत का फायदा फुरसतगंज वालों को ही मिलता है.

लेकिन एक दिन फुरसतगंज में एक ऐसी घटना घटती है कि पल भर में ही यहां का सारा ताना-बाना छिन्न-भिन्न होने लगता है और स्थानीय राजनीति और मुख्यधारा की राजनीति में चुम्मा-चुम्मी शुरू हो जाती है. असल में यहां के जिन्नधारी महात्मा हलकान मियां का इकलौता बेरोज़गार पुत्र परेशान अली रात के अंधेरे में पास के ही कुएं में गिर जाता है और उसकी मृत्यु हो जाती है. सुबह पता चलता है कि उसके साथ उसकी इकलौती बकरी भी गिर कर मर गयी. तमाम चैनलों पर ख़बर पसरने लगती है और सूबे के मुख्यमंत्री के हौंकने के बाद ज़िले के नवागंतुक कलेक्टर जबर सिंह गांव का दौरा करने निकल पड़ते हैं.

शुरुआती जांच में इसे दुर्घटना का मामला बताकर रिपोर्ट शासन को भेज दी जाती है. लेकिन बात इतने भर से ख़त्म नहीं होती. परेशान अली अपनी मौत के बावज़ूद सत्ता के गले की फाँस बन जाता है.

झूंसी के राजघराने के अन्तिम अवशेष और अब वहां मसान घाट में धूनी रमा रहे बाबू जोखन सिंह को एक साथ कई शिकार करने का अवसर दिखाई देने लगता है. उन्हें न केवल बच्चा तिवारी बल्कि उनके सारे खानदान से अपना पुराना हिसाब चुकता करना है. और 'अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा' के लिए विख्यात अपने मध्यकालीन पूर्वज राजा हरबेंग सिंह के न्यायप्रिय शासन की स्थापना का स्वप्न देखने लगते हैं. तय होता है कि परेशान को किसान की बजाय मज़दूर बनाने के कुत्सित प्रयास के विरोध में इलाहाबाद-बनारस को जोड़ने वाले जीटी रोड को जाम किया जायेगा. लेकिन इसके पहले कि बाबू जोखन सिंह जीटी रोड को ठीक से जाम कर पाते, उन्हें और उनके बहुतेरे साथियों को पकड़कर विधिवत पीटा जाता है और उन्हें ससम्मान जेल में ठूंस दिया जाता है.

तब राजनीति की आग और दहकने लगती है. हड़िया इलाक़े के विधायक पाखंडी शर्मा इस गिरफ़्तारी के विरोध में सदन में ही अपने साथियों के साथ सभी के कुरते फाड़ने लगते हैं और देखते-ही-देखते पूरी राजनीति निर्वस्त्र होने लगती है.

माहौल गरमाने लगता है और कुछ समय के लिए परेशान अली की मौत की घटना नेपथ्य में चली जाती है और चौतरफ़ा उनकी लाश पर राजनीति की गरमागरम रोटियां सेंकी जाने लगती हैं. जीते-जी जिस परेशान अली की कोई जाति तक नहीं पूछता था; आज सभी के द्वारा उसे अपने हितों से गहरे सम्बद्ध बताने की होड़ मच जाती है.

सबसे बड़ी बात यह कि तरह-तरह से जनता को भरमाने का जो सिलसिला शुरू होता है उससे जनता को भी कोई ख़ास परेशानी होती नहीं दिखाई देती; बल्कि जनता के अधिकांश हिस्से को इसमें ख़ासा मज़ा भी आने लगता है. राजनीति की इस खींचतान और एक-दूसरे को नीचा दिखाने की पुरज़ोर कोशिश में बहुतेरे लोककल और धुरंधर नेता धरे जाते हैं, कुछ नेता बनने की चाह में बाक़ायदा धुने जाते हैं और जेल की रोटियाँ तोड़ते हैं; लेकिन ये सभी जेल से बाहर आकर अपने पिछवाड़े की धूल झाड़कर अट्टहास करने से भी गुरेज़ नहीं करते.

उपन्यासकार शायद यह दिखाना चाहता है कि फुरसतगंज में घटने वाली एक छोटी-सी घटना कैसे सभी के कौतुक का विषय बनकर उभरती है और कैसे चाहे-अनचाहे सभी इसमें एक-एक कर शामिल होते जाते हैं. फिर यह भी कि यह आरंभिक कौतूहल कैसे शासन-प्रशासन के लिए चिंता का सबब बनता जाता है और कैसे न चाहते हुए भी सभी इस घटना के इर्द-गिर्द बुने अपने ही जाले में उलझते चले जाते हैं. इस जाल में उलझने के बाद सत्ता पाने के लिए आपस की होड़, इसकी जद्दोजहद और फिर गलाकाट संघर्ष को पाठक के सामने ले आना ही इस कथानक का मूल मंतव्य है.