अमरचंद बांठिया शहादत दिवस :आज़ादी की लड़ाई का एक गुमनाम सिपाही

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] | Date 22-06-2022
अमरचंद बांठिया शहादत दिवस :आज़ादी की लड़ाई का एक गुमनाम सिपाही
अमरचंद बांठिया शहादत दिवस :आज़ादी की लड़ाई का एक गुमनाम सिपाही

 

ज़ाहिद ख़ान

देश की आज़ादी में लाखों-लाख लोगों की क़ुर्बानियां और संघर्ष शामिल हैं। आज़ादी की जंग में प्रत्यक्ष तौर पर जिन्होंने हिस्सा लिया, उन्हें तो सब जानते-याद करते हैं.उनके साहसिक कारनामों का गुणगान करते हैं.हर साल जयंती और बलिदान दिवस पर उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित किए जाते हैं.लेकिन ऐसे भी लाखों लोग थे, जो अप्रत्यक्ष तौर पर इस जंग का हिस्सा रहे, आज़ादी के आंदोलन में गुप-चुप तरीके से हर मुमक़िन मदद करते रहे, उन्हें कोई नहीं जानता.जबकि ऐसे ही बलिदानियों के बलिदान से आख़िरकार, एक दिन हमें आज़ादी मिली.

 आज हम खुली हवा में सांस ले पा रहे हैं.सभी जानते हैं कि देश के लिए स्वतंत्रता का संघर्ष साल 1857से शुरू हुआ.1857में पहली बार बरतानिया हुकूमत के ख़िलाफ़ संगठित क्रांति हुई.देखते-देखते ये क्रांति की आग उत्तर से लेकर दक्षिण और पूर्व से लेकर पश्चिम तक फैल गई.

इस क्रांति के कई क्रांतिवीरों को हम अच्छी तरह से जानते-पहचानते हैं.उनके रणकौशल और उनकी वतनपरस्ती के क़िस्सों को याद करते हैं.1857क्रांति के कुछ ऐसे भी नायक थे, जो ख़ामोशी से अपना काम करते रहे और देशवासियों को मालूम भी नहीं चला.ऐसे ही एक विरले महानायक अमरचंद बांठिया है.

राजस्थान के बीकानेर जिले में साल 1793में एक जैन परिवार में जन्मे अमरचंद बांठिया  बचपन से ही एक अलग मिज़ाज के थे.साधु-संत, फ़कीर-दरवेशों से सत्संग करना उन्हें ख़ूब भाता था.ईमानदारी और उनकी तार्किक क्षमता का भी कोई सानी नहीं था.

अमीरचंद की शोहरत जल्द ही तत्कालीन ग्वालियर स्टेट के महाराज जीवाजी राव सिंधिया तक पहुंच गई.महाराजा सिंधिया ने एक दिन उन्हें अपने दरबार में बुलावा भेजा.वे  बांठिया से मिले तो उनसे बहुत प्रभावित हुए और उन्हें अपने विशाल ख़ज़ाने 'गंगाजली राजकोष' के ख़जांची की ज़िम्मेदारी सौंप दी.

ज़िम्मेदारी मिलते ही बांठिया बड़ी लगन और सूझ-बूझ के साथ राजकोष का संचालन करने लगे.बेशकीमती ख़ज़ाने के रख-रखाव और लेन-देन का ज़िम्मा उनके कंधों पर था.अपनी ज़िम्मेदारी को वे बड़े ही वफ़ादारी से निभाते थे.

साल 1857में क्रांति की लहर जब पूरे देश में आग की तरह फैली, तो ग्वालियर स्टेट भी उससे अछूता नहीं रहा.ग्वालियर रियासत की सियासी निष्ठा उस वक़्त अंग्रेज़ हुक्मरानों के साथ थी.महाराजा जीवाजी राव सिंधिया भले ही अंग्रेज़ों से मिले हुए थे, लेकिन उनकी सेना में अंदर ही अंदर क्रांति की आग सुलग रही थी.

जैसे ही क्रांति की चिंगारी ग्वालियर सैन्य दल पर पड़ी, वह बगावत पर उतारू हो गया.कल तक अंग्रेज़ों के वफ़ादार सिपाही, रातों-रात क्रांतिकारियों की हिमायत करने लगे.उनके साथ स्वतंत्रता संघर्ष में कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हो गए.

उन्होंने डटकर अंग्रेज़ी सेना से मुकाबला किया.गोरों से लड़ते-लड़ते एक दिन ऐसा भी आया, जब स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की रसद सामग्री ख़त्म हो गई.राशन का बंदोबस्त न होने से क्रांतिकारी धीरे-धीरे कमजोर पड़ने लगे.

ऐसे संकट के दौर में अमरचंद बांठिया क्रांतिकारी सैनिकों के लिए रहनुमा बनकर आए.उन्होंने राज ख़ज़ाने से क्रांतिकारी सैनिकों को आर्थिक मदद दी। बांठिया जानते थे कि वे जो कुछ कर रहे हैं, वह राजद्रोह है.उनके इस दुस्साहस की सज़ा, सज़ा-ए-मौत होगी। बावजूद इसके उन्होंने अपनी मातृभूमि की हिफ़ाज़त और देश की आज़ादी को सबसे ऊपर रखा.अपनी जान की परवाह किए बिना, क्रांतिकारियों की हर मुमकिन मदद की.

22 जून, 1858 को जब अमरचंद बांठिया को सरे आम फ़ांसी पर लटकाया गया, तब देशवासियों को मालूम चला कि बांठिया ने देश के लिए क्या बेमिसाल कुर्बानी दी है ? क्रांति में उनका क्या महत्वपूर्ण योगदान है ? अंग्रेज़ी हुकूमत ने अमरचंद बांठिया को राजद्रोह के इल्जाम में फ़ांसी की सज़ा सुनाई.उन पर इल्जाम था, अपनी रियासत से गद्दारी.

क्रांतिकारी सैनिकों को आर्थिक मदद करना.अमरचंद बांठिया का यह कारनामा, कोई छोटी-मोटी बात नहीं थी.उन्होंने ग्वालियर रियासत के ख़ज़ाने से क्रांतिकारी सैनिकों को उस समय मदद दी, जब वे अंग्रेज़ों से मोर्चा ले रहे थे.कई दिनों के संघर्ष के बाद उनका सैन्य सामान और राशन कम पड़ने लगा, तो वे बांठिया ही थे, जिन्होंने इस क्रांतिकारी सेना को धन मुहैया कराया.

क्रांतिकारी दस्ते के लिए पूरा ख़ज़ाना खोल दिया.अमरचंद बांठिया द्वारा आर्थिक मदद का ही नतीज़ा था कि क्रांतिकारी सेना फिर नए जोश और नए जज़्बे से अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ जंग के मैदान में डटकर खड़ी हो गई.

वीरांगना लक्ष्मीबाई और सेनानायक तात्या टोपे ने जंग के मैदान में अंग्रेज़ी सेना के छक्के छुड़ा दिए.यहां तक कि एक दौर ऐसा भी आया, जब उन्होंने ग्वालियर से अंग्रेज़ों को पूरी तरह से खदेड़ दिया.कई दिनों तक ग्वालियर स्टेट क्रांतिकारियों के क़ब्ज़े में रहा.

ग्वालियर स्टेट पर क्रांतिकारियों का क़ब्ज़ा ज़्यादा रोज़ तक नहीं रहा.अंग्रेज़ी सेना कुछ समय बाद नई रणनीति और उससे ज़्यादा ताक़त के साथ ग्वालियर की तरफ बढ़ी और क्रांतिकारियों को चारों ओर से घेर लिया.अंग्रेज़ों की शक्तिशाली फ़ौज के सामने क्रांतिकारियों का हौसला ज़्यादा दिन तक नहीं टिक पाया.

18 जून, 1858 को जंग के मैदान में अंग्रेज़ों से बहादुरी से लड़ते हुए, रानी लक्ष्मीबाई शहीद हुईं.उसके चार दिन बाद ही अंग्रेज़ ब्रिगेडियर नैपियर ने अमरचंद बांठिया को फ़ांसी के फंदे पर लटका दिया.ग्वालियर के सराफ़ा बाज़ार में हज़ारों लोगों की भीड़ के सामने बांठिया को नीम के पेड़ पर लटका कर, फांसी की सज़ा दी गई.अमरचंद बांठिया को अपने किए का ज़रा सा भी पछतावा नहीं था.

उन्होंने जो किया,अपने दिल की आवाज़ सुनकर किया.अपनी मातृभूमि को गुलामी की बेड़ी से आज़ाद करवाने के लिए अपनी जां की क़ुर्बानी दी.उन्होंने हंसते-हंसते फ़ांसी के फंदे को अपने गले से लगा लिया.अमरचंद बांठिया जैसे महानायक आज भले ही हमारे बीच नहीं, लेकिन उनका बलिदान हमारे अंदर अपनी मातृभूमि के लिए सब कुछ न्यौछावर कर देने का जज़्बा भर देता है.इतिहास के गौरवशाली पन्नों में अमर ज्योति बन यूं ही हमेशा जलते और अपनी रौशनी बिखेरते रहेंगे शहीद अमरचंद बांठिया.