अफगानिस्ताननामा: 47
हरजिंदर
शेर अली की मौत के बाद काबुल की सत्ता उसके बेटे याकूब खान को मिल गई. दिलचस्प बात यह है कि शेर अली ने अपने इसी बेटे को कभी जेल में बंद कर दिया था. शेर अली को डर था कि याकूब बगावत करके सत्ता पर कब्जा कर सकता है. लेकिन याकूब को बिना बगावत ही सत्ता मिल गई. याकूब जब काबुल के तख्त पर बैठा तो उस समय तक ब्रिटिश फौज अफगानिस्तान पर कब्जा करने के लिए रवाना हो चुकी थीं.
एक तरफ जनरल सैम ब्राउनी थे जो 21 नवंबर 1878 को 15 हजार सैनिकों के साथ पेशावर से खैबर दर्रे की ओर रवाना हो चुके थे. दूसरी तरफ जनरल डोनाल्ड स्टेवर्ड थे जो 12 हजार सैनिको के साथ क्वेटा से शुरू करके बोलन दर्रे और खोजक दर्रे को पार करते हुए कंधार की ओर बढ़ रहे थे.
उन्हें कंधार पर उतनी ही आसानी से कब्जा हासिल हो गया जितना कि 1838 के पहले हमले में हुआ था। शुरुआती कुछ दिनों तक इन दोनों विशाल ब्रिटिश सेनाओं को कोई बहुत बड़ी या कठिन लड़ाई नहीं लड़नी पड़ी.
पहली मुश्किल लड़ाई उन्हें कुर्रम घाटी में लड़नी पड़ी. जनरल फ्रैडरिक राॅबर्ट के नेतृत्व में 6500 ब्रिटिश सैनिक इस घाटी में पंहुचे थे और फिर अचानक ही उन्होंने पाया कि वे पहाड़ियों पर मोर्चा संभाले अफगान सैनिकों से घिर गए हैं.
जनरल रॉबर्ट उस समय तक काफी मशहूर फौजी अफसर बन चुके थे. भारत में 1857 की क्रांति के दौरान वे लखनऊ पर दोबारा कब्जा हासिल करने में कामयाब रहे थे और इसके लिए उन्हें विक्टोरिया क्रास भी मिला था.
कुर्रम घाटी में जब वे घिर गए तो उन्होंने लड़ाई लड़ने के बजाए रात का इंतजार करना बेहतर समझा. अंधेरा होने पर उन्होंने अपनी सेना को आगे बढ़ने का आदेश दिया. यह रणनीति काम कर गई. रात अंधेरे में पहाड़ों पर मोर्चा लगाए बैठे अफगान सैनिक सधा हुआ निशाना लगाने की स्थिति में नहीं थे.
फिर भी इसी अंधेरे में लड़ाई हुई और दोनों तरफ के बहुत से लोग मारे भी गए लेकिन ब्रिटिश फौज सुबह होने से पहले कुर्रम घाटी पार करने में कामयाब रही.याकूब खान को जब लगा कि बचने के रास्ते अब बहुत ज्यादा नहीं रह गए हैं तो उसने ब्रिटिश को समझौते का प्रस्ताव भेजा.
शुरुआत हील-हवाले के बाद दोनों में संधि हो गई. इस संधि के तहत ब्रिटेन को अफगानिस्तान में अपना मिशन स्थापित करने की इजाजत दे दी गई थी. लेकिन इस संधि में जो असली रियायत ब्रिटेन को दी गई थी वह उसके लिए बहुत बड़ी थी.
संधि में अफगानिस्तान ने एक तरह से अपनी विदेश नीति ब्रिटेन को आउटसोर्स कर दी थी. यह तय हुआ कि अफगानिस्तान के विदेश संबंधी मामलों को अब ब्रिटेन देखेगा जिसके बदले वह अफगानिस्तान को हर साल 60हजार पौंड की रकम देगा.
ब्रिटेन के लिए यह बहुत बड़ी बात इस वजह से थी क्योंकि वह अफगानिस्तान को एक ऐसा क्षेत्र बनाना चाहता था जो रूस के हस्तक्षेप से मुक्त रहे. दूसरी तरफ वह अफगानिस्तान से रूस की गतिविधियों पर नजर भी रख सकता था. अफगानिस्तान की जमीन कब्जाने से ज्यादा उसकी दिलचस्पी इन्हीं चीजों में थी. विदेश नीति उसके पास आ जाने से ये दोनों ही मकसद पूरे होते दिख रहे थे.
यह ब्रिटिश प्रधानमंत्री डिजरायली की मंशा के हिसाब से भी था. ब्रिटेन में उनकी काफी तारीफ हो रही थी. यह कहा जा रहा था कि ब्रिटिश सेना ने काफी सस्ते में ही बहुत कुछ हासिल कर लिया है. हालांकि यह कहने वाले भी थे कि अफगानिस्तान जिस तरह का देश है, ब्रिटेन को उसे लेकर हमेशा सतर्क रहना होगा। बाद की घटनाओं ने बताया कि ये लोग सही थे.
काबुल में जब मिशन स्थापित हुआ तो ब्रिटिश सेना को इस बार जगह दी गई बाला हिसार के विशाल किले में. ब्रिटिश फौज की 17वीं बटालियन के अलावा वहां अफगान फौज के 200सैनिकों को भी रखा गया.
और इसी किले में ब्रिटिश सैनिकों को मुकाबला उस दुश्मन से हुआ जिसके बारे में पहले सोचा भी नहीं गया था. जल्द ही वहां हैजा फैल गया और एक एक करके सिपाही और अफसर हैजे का शिकार होने लगे. बाला हिसार में ही नहीं अफगानिस्तान में बाकी जगह जो सैनिक थे वे भी हैजे का शिकार हो रहे थे. यह भी कहा जाता है कि सिर्फ हैजे की वजह से ही पूरी दो रेजीमेंट का सफाया हो गया.
जारी...