हिंदी दिवसः मार्केटिंग से क्यों शरमाते हैं हिंदी वाले?

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 14-09-2021
मार्केटिंग से क्यों शरमाते हैं हिंदी वाले?
मार्केटिंग से क्यों शरमाते हैं हिंदी वाले?

 

मेहमान का पन्ना । नवीन चौधरी        

नेल्सन मंडेला का एक कथन है कि ‘व्यक्ति जिस भाषा को जानता है उसमें बात करने पर बात उसके मस्तिष्क में जाती है. यदि आप उससे उसकी अपनी भाषा में बात करें तो वह बात उसके दिल में जाती है.’

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जहाँ जाते हैं वहाँ से अपना रिश्ता बताते हैं और उस रिश्ते को पारिभाषित करने के लिये वह अपने भाषण की शुरुआत उस इलाके की भाषा में करते हैं. बाजार को यदि देखें तो अधिकांश प्रोडक्ट जो किसी भी आय-समूह के लिये बनाए जाते हों, उनके विज्ञापन स्थानीय भाषा में बनाए जाते हैं.

भाषा मात्र संवाद का माध्यम नहीं बल्कि लोगों से भावनात्मक जुड़ाव का भी एक माध्यम है. यह बात राजनीति, मार्केटिंग, साहित्य, सब पर लागू होती है. आज नये लेखकों के एक बड़े समूह को अंग्रेजी में सिद्धहस्त होने के बावजूद हिंदी में लिखना लुभा रहा रहा है. यह सब लेखक मानते हैं कि हिंदी में न सिर्फ वह अपने भावों को ज्यादा बेहतर प्रस्तुत कर पाते हैं बल्कि अपने पाठकों से बेहतर जुड़ाव बना पाते हैं.

मैं एक लेखक होने से पहले एक मार्केटिंग प्रोफेशनल हूँ और भाषा को भावनात्मक जुड़ाव के साथ एक बेहतरीन मार्केटिंग टूल के रूप में देखता हूँ. लेखक होने के बाद उसी भाषा में लिखे साहित्य जिसका उद्देश्य ही लोगों को समाज से जोड़ना, दिशा देना, कहानियाँ बताना है, उस साहित्य को मार्केटिंग से दूर होने का प्रयास करते देखता हूँ.

काम-काज में अंग्रेजी के इस्तेमाल के कारण हिंदी पर एक नकारात्मक प्रभाव पड़ता दिखता है, न सिर्फ हिंदी में बल्कि मैं अब अन्य भारतीय भाषाओं में भी युवाओं को अपनी भाषा से दूर होते देख रहा हूँ. वह बोलते जरूर अपनी भाषा हैं किंतु वह पढ़ने लिखने में प्रायः अक्षम होते हैं. वह अपनी भाषा के शब्दों से अपरिचित हो रहे हैं और उन्हें समझने के लिये अंग्रेजी का सहारा लेते हैं. ऐसे में युवाओं को उनकी भाषा से जोड़े रखना का काम, शब्दों से परिचय कराने का काम साहित्य द्वारा किया जाता है.

हिंदी दिवस के उपलक्ष्य पर हर वर्ष हिंदी को प्रसार के लिये तमाम बातें होती हैं. हिंदी में पढ़ने लिखने और काम करने की चर्चा होती है किंतु भाषा की मार्केटिंग भी हो सकती है ऐसा कभी नहीं सोच जाता है. 

ओटीटी प्लेटफॉर्म और इंटरनेट के इस दौर में साहित्य से जोड़ने के लिये किसी भी अन्य प्रोडक्ट की तरह भाषा और साहित्य को भी मार्केटिंग की आवश्यकता है. देश में लगभग 20% लोग ही अंग्रेजी ठीक से बोल सकते हैं किंतु अंग्रेजी साहित्य की बाजार मे हिस्सेदारी 50% के करीब है. हिंदी 35% और बचे हुए में अन्य भारतीय भाषाएं आती हैं.

इस स्थिति के लिये एक कारण दिया जाता है कि अंग्रेजी पाठकों की क्रय-क्षमता अधिक है किंतु यही एकमात्र सत्य होता तो मर्सीडीज, बीएमडब्ल्यू जैसी गाड़ियां देश के सभी बड़े हिंदी अखबारों में विज्ञापन न देती. कहने की जरूरत नहीं कि विज्ञापन की भाषा हिंदी होती है. मर्सीडीज जानता है कि उसके ग्राहक हिंदी बेल्ट में हैं और उनसे जुडने के लिये उसे उनकी भाषा में मार्केटिंग करनी होगी.

किसी भी अन्य प्रोडक्ट की तरह अंग्रेजी प्रकाशक भी अपनी किताबों के प्रचार में किसी प्रकार की कमी नहीं करते. वह किताब लिखवाते समय साहित्य देखते हैं और बेचते समय उसे एक प्रोडक्ट मानते हैं.

हिंदी साहित्य से जुड़े लोगों को भी इस सत्य को स्वीकार करना होगा कि छप जाने के बाद किताब एक प्रोडक्ट है और उसकी मार्केटिंग होनी आवश्यक है. पिछले कुछ वर्षों में नये लेखकों के आने से परिदृश्य काफी बदला है. लेखक सिर्फ लिखने में मेहनत नहीं कर रहे बल्कि अपने लिखे को पाठकों तक पहुंचाने के लिये भी सभी उपाय कर रहे हैं जिसके सुपरिणाम हमारे सामने हैं. हिंदी लेखकों की गरीब और झोलाछाप छवि बदली है. दिल्ली पुस्तक मेले में हिंदी के हॉल में भीड़ बढ़ रही है. हिंदी को पढ़ना अब उतना ‘लो-क्लास’ नहीं, बल्कि आज की पीढ़ी के अनुसार ‘कूल’ समझा जाने लगा है. फिल्म एवं ओटीटी प्लेटफॉर्म पर हिंदी साहित्य की मांग बढ़ी है.

मार्केटिंग को लेकर कुछ वरिष्ठ साहित्यकारों से बातचीत में यह निकल कर आया कि उन्होंने किताबों को प्रोडक्ट के रूप में नहीं देखा. अब जब वह मार्केटिंग के प्रभाव को समझ पा रहे हैं तो यह नहीं जानते कि मार्केटिंग हो कैसे? वह लिखें या मार्केटिंग करें? क्या यह काम प्रकाशक का नहीं होना चाहिये?

मेरे अपने अनुभव के आधार पर मार्केटिंग कोई ऐसा भी कठिन कार्य नहीं कि न किया जा सके. ऐसा भी नहीं कि मार्केटिंग सिर्फ प्रकाशक द्वारा ही होनी चाहिये. निश्चित तौर पर मार्केटिंग करना प्रकाशक का दायित्व है (जिसे हिंदी प्रकाशकों ने अपने ऊपर लिया ही नहीं), किंतु लेखक की मार्केटिंग में सक्रियता एक और एक ग्यारह बनाती है. एक प्रकाशक बहुत सी किताबों को प्रकाशित करता है और वह हर किताब को उतना समय नहीं देगा जितना देना चाहिये. प्रकाशक किताबों को सभी सेल्स प्लेटफ़ॉर्म पर पहुंचाए, किताबों के रिव्यू करवाए यह महत्वपूर्ण है. वह किताब के हर पहलू को नहीं दर्शा सकता, ना ही पाठक अपने सवाल उसके पास लेकर जाएंगे. 

लेखक के पास अपनी ही किताब है इसलिए वह निश्चित तौर पर प्रकाशक के मुकाबले अपनी किताब को ज्यादा बेहतर दिखा सकता है. पाठक लेखक को पढ़-सुन कर उनकी किताबों की ओर आकर्षित होते हैं. सोशल मीडिया ने लेखकों के लिये मार्केटिंग को आसान किया है. लेखक न सिर्फ अपने पाठकों से सीधे जुड़ता है बल्कि वह अपने विचारों को अधिकाधिक पाठकों तक पहुँचा सकता है जिसका लाभ निश्चित तौर पर किताब की बिक्री को मिलता है.

याद रखिए कि बुकशेल्फ में रखी एक किताब स्वयं चल कर कहीं नहीं जा सकती. किताब को शेल्फ से बाहर निकलने के लिये एक पाठक की आवश्यकता होती है और पाठक को किताब तक पहुँचाने का काम मार्केटिंग का है.  

इस हिंदी दिवस पर तमाम चर्चाओं के बीच यदि हम यह भी ठान लें कि हमारी भाषा को हम अधिकाधिक लोगों तक पहुंचाने के लिये सकुचाएंगे नहीं, भाषा की मार्केटिंग करेंगे तो भाषा और साहित्य दोनों को फिर से पहले का स्थान पाने में समय नहीं लगेगा.

 

(नवीन चौधरी 'जनता स्टोर' नाम के मशहूर हिंदी उपन्यास के लेखक हैं और उनकी किताब पर जल्द ही वेब सीरीज भी आने वाली है.)