जनरल कमर जावेद बाजवाः सबसे लंबे समय तक पद पर रहनेवाले बदनाम सेनाध्यक्ष

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 28-11-2022
जनरल कमर जावेद बाजवा पाकिस्तान के सबसे अप्रभावी सेनाध्यक्ष रहे हैं
जनरल कमर जावेद बाजवा पाकिस्तान के सबसे अप्रभावी सेनाध्यक्ष रहे हैं

 

मंजीत ठाकुर/ नई दिल्ली

जनरल कमर जावेद बाजवा (General Qamar Javed Bajwa) के बारे में यह माना जाता है कि 26 नवंबर, 2016 को पाकिस्तान के तब के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को उनमें एक सैन्य अगुआ नजर आया, जो सियासत के गलियारों से दूरी बनाकर रखता था, और इसके मद्देनजर सैन्य-नागरिक समीकरण संतुलित बनाए रखा जा सकेगा.

पाकिस्तान की स्थापना के बाद से सैन्य-नागरिक संतुलन हमेशा वहां की सेना के पक्ष मे झुका हुआ रहा है और तीन बार के प्रधानमंत्री रहे नवाज शरीफ इसके शिकार भी रहे हैं. 1999 में उनके ही खिलाफ परवेज मुशर्रफ ने तख्तापलट किया था.

ऐसे में नवाज अपने लिए कोई नया खतरा पैदा नहीं करना चाहते थे और जनरल राहिल शरीफ की जगह उनका वारिस किसी ऐसे शख्स को बनाना चाहते थे जो नागरिक मामलों में ज्यादा दखल न दे.

इन समीकरणों के लिहाज से उस वक्त जनरल हेडक्वॉर्टर्स में ट्रेनिंग और मूल्यांकन विभाग के इंस्पेक्टर जनरल रहे जनरल कमर जावेद बाजवा (General Qamar Javed Bajwa) उन्हें माकूल व्यक्ति लगे थे. और इस तरह जनरल कमर जावेद बाजवा (General Qamar Javed Bajwa) पाकिस्तान के 16वें सेना प्रमुख बनाए गए.

सशस्त्र बल की कमान उन्हें 29 नवंबर को, आज से 6 साल पहले, 2016 में सौंपी गई थी, और इस क्रम में चार अन्य सीनियर जनरलों को पदानुक्रम में अनदेखा किया गया था.

सेनाध्यक्ष बनाए जाने से पहले तब के पाक प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से मुलाकात करते बाजवा

ऑपरेशन रद्द-उल-फसाद

जिस दिन जनरल बाजवा को नए सेना प्रमुख के रूप में नामित किया गया था, उसी रोजदो आतंकी हमले हुए थे - उनमें से एक खैबर पख्तूनख्वा के मोहमंद क्षेत्र में फ्रंटियर कोर कैंप में हुआ था.

इन हमलों के साथ ही यह तय हो गया कि नए सेना प्रमुख बाजवा को किन चुनौतियों से दरपेश होना होगा. दूसरे देशों में आतंकवाद को प्रायोजित करने वाले पाकिस्तान को अब खुद भी आतंकवाद का खतराझेलना पड़ रहा था. बाजवा के कार्यकाल शुरू होने के समय इस आतंकवाद ने फिर से सिर उठाना शुरू कर दिया.

इस आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए बाजवा के नेतृत्व में पाकिस्तानी सेना ने अपने इतिहास में पहली बार देशव्यापी आतंकवाद विरोधी अभियान शुरू किया और 17 फरवरी 2017 से शुरू हुए इस अभियान का नाम दिया गया, रद्द-उल-फसाद.

बहरहाल, बाजवा ने इस अभियान को अनिश्चितता से शांति की ओर बढ़ने वाला कदम बताया लेकिन सचाई यह है कि पांच साल लगातार चलने के बाद भी आतंकवाद पाकिस्तान की जड़ों में पैवस्त हो चुका है.

इस अभियान के तहत, पाकिस्तान-अफगानिस्तान सरहद पर बाड़ लगाने का काम शुरू किया गया था और तालिबान के शासन में आने के बाद से अफगान सरकार लगातार इसका विरोध कर रही है.

25 नवंबर, 2017 को टीएलपी समर्थकों ने पुलिस पर आंसू गैस से हमला किया था. (फाइल)

लेकिन आतंकवाद से बचने की अपनी इस दिखावा भरी कार्रवाई में भी पाकिस्तान अपनी कारस्तानियों से नहीं चूका और उसने अफगानी इलाकों में अपने बाड़ लगा दिए. बाड़बंदी के खिलाफ, तालिबान शासन के प्रवक्ता ज़बिहुल्ला मुजाहिद ने एक बयान भी जारी किया है और वह इस बाड़बंदी के बेतुका बता चुके हैं.

जहां सेना ने आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई जारी रखी, वहीं नवाज को अपनी लड़ाई खुद लड़नी थी. अप्रैल 2016में, जनरल बाजवा को सेना प्रमुख के रूप में नामित किए जाने के कुछ महीने पहले, खोजी पत्रकारों के अंतर्राष्ट्रीय संघ ने जनता के लिए 11.5मिलियन गुप्त दस्तावेज उपलब्ध कराए थे. पनामा पेपर्स कहे जाने वाले दस्तावेज़ों से नवाज़ के परिवार और आठ विदेशी कंपनियों के बीच संबंधों का पता चला है.

जब जनरल बाजवा ने सेना प्रमुख की भूमिका में सेवानिवृत्त जनरल राहील शरीफ की जगह ली, तब तक नवाज और उनका परिवार पहले से ही पनामा पेपर्स के खुलासे से जुड़े भ्रष्टाचार के आरोपों पर जांच और अदालती कार्यवाही का सामना कर रहे थे. और इन्हीं परिस्थितियों में नवंबर 2017 में नवाज को कुरसी छोड़नी पड़ी.

आमतौर पर माना जाता है कि उन्हें ऐसा इसलिए करना पड़ा क्योंक नवाज शरीफ को सुप्रीम कोर्ट ने भ्रष्टाचार का दोषी माना था. असल बात यह थी कि पनामा पेपर्स की जांच में नवाज शरीफ दुबई स्थित अपनी कंपनी की आय छिपा ले गए थे और वह भी तब, जब वह प्रधानमंत्री थे. तो इस प्रकार तीसरी बार नवाज के प्रधानमंत्रित्व के कार्यकाल का समय पूर्व खात्मा हो गया.

हालांकि, नवाज की कुरसी जाने के पीछे जनरल बाजवा का हाथ होने की फुसफुसाहटें भी थीं, लेकिन इसको ज्यादा तवज्जो नहीं दी गई. बहरहाल, इसके दो साल के बाद नवाज शरीफ जब लंदन में थे, तब उन्होंने इस बारे में सेना पर आरोप लगाए.

पंजाब के पूर्व रेंजर डीजी मेजर जनरल अजहर नावेद तहरीक-ए-रब्बैक या रसूल अल्लाह के आंदोलनकारियों में नकद बांटते हुए (फोटोः सोशल मीडिया)

सितंबर 2020 में, पीएमएल-एन के नेता ने एक सम्मेलन में सेना की आलोचना करते हुए आरोप लगाया कि वह पाकिस्तान में राज्यसत्ता से भी ऊपर की सत्ता है.

बाद के कई सार्वजनिक संबोधनों में, उन्होंने जनरल बाजवा और तत्कालीन इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आइएसआइ) के महानिदेशक लेफ्टिनेंट जनरल फैज हमीद का नाम लिया, उन पर उनकी सरकार को गिराने, न्यायपालिका पर दबाव बनाने और 2018 के चुनावों में पीटीआइ प्रमुख इमरान खान की सरकार को स्थापित करने का आरोप लगाया.

इसका अर्थ था कि खुद के चुने सेना प्रमुख की स्थिति उनके लिए विश्वसनीय नहीं रह गई थी. और अब वह अपने संवैधानिक दायित्वों से अलग सेना की पारंपरिक दखलअंदाजी वाली भूमिका में आ गए थे.

उस वक्त इमरान खान ने भी नवाज शरीफ के इस बयान को खारिज ही किया था. हालांकि, इसके दो साल के बाद ही इमरान ने अपने रुख को बदल लिया और सेना पर आरोप लगाने के मामले में नवाज शरीफ की भूमिका में आ गए.

नवंबर 2017में, तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान (टीएलपी) के कार्यकर्ताओं ने फैजाबाद इंटरचेंज को अवरुद्ध कर दिया, जो इस्लामाबाद एक्सप्रेसवे के माध्यम से रावलपिंडी और इस्लामाबाद को जोड़ता है. आंदोलनकारी चुनाव अधिनियम, 2017में एक संशोधन को लेकर बहुत गुस्से में थे. मामला धर्म का था और आंदोलनकारी तत्कालीन कानून मंत्री ज़ैद हामिद के इस्तीफे की मांग कर रहे थे.

फैजाबाद इंटरचेंज की उनकी नाकाबंदी कुल 20दिनों तक चली थी, और उन्होंने केवल तभी विरोध बंद कर दिया जब सरकार ने एक विफल पुलिस ऑपरेशन और फिर सेना के हस्तक्षेप के बादउनकी मांगे मान लीं. दोनों पक्षों के बीच तत्कालीन आईएसआई प्रमुख जनरल फैज हमीद के साथ 'गारंटर' के रूप में एक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे.

इमरान खान के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के बाद मौलाना फजलुर रहमान को बधाई देते सांसद (वीडियो ग्रैब)

समझौते में सेना प्रमुख और उनकी प्रतिनिधि टीम को उनके "विशेष प्रयासों" के लिए श्रेय दिया गया और लिखा गया, "देश को एक बड़ी तबाही से बचाने के लिए हम उनके (जनरल बाजवा) आभारी हैं."

जाहिर है, इस मामले में सेना की भूमिका एक मध्यस्थ, गारंटर के रूप में सामने आने से कहीं अधिक थी और वह अपनी संवैधानिक सीमाओं से परे जाकर काम कर रही थी. इस मामले में, तब इस्लामाबाद हाइकोर्ट ने सेना और सरकार की खिंचाई भी की थी.

पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मामले में स्वतः संज्ञान लिया था और 2019 में दिए एक फैसले में सरकार, एजेंसियों, खुफिया एजेंसियों और सेना की मीडिया विंग को अपनी सीमा में रहकर काम करने के निर्देश दिए थे.

जनरल बाजवा के कार्यकाल में दूसरी बड़ी दखल तब सामने आई जब टीएलपी ने एक बार फिर से शहरों की नाकाबंदी शुरू कर दी थी. इस बार, वह जेल में बंद अपने नेता साद रिज़वी की रिहाई की मांग कर रहे थे. इसके साथ ही आंदोलनकारी एक फ्रांसीसी पत्रिका में विवादास्पद कार्टून की वजह से फ्रांस के राजदूत के निष्कासन की मांग भी कर रहे थे.

हालांकि, 2021 में इस आंदोलन के दौरान सेना की क्या भूमिका थी इसके आधिकारिक दस्तावेज नहीं हैं. लेकिन तब आंदोलन से जुड़े कई नेताओं में से एक मौलाना बशीर फारुखी ने कहा था कि आर्मी चीफ, ‘देश में शांति लाने के ले 1000 परसेंट प्रतिबद्ध’हैं. और साथ ही कहा था कि सेना ने आंदोलनकारियों के खिलाफ बलप्रयोग नहीं किया है.

 

और ये बाजवा सिद्धांत क्या है

बाजवा के सेना प्रमुख बनने के दो साल के बाद पाकिस्तान में बाजवा सिद्धांत या बाजवा डॉक्ट्राइन (Bajwa doctrine) पेश किया गया था.

पाकिस्तानी अखबार, द डॉन के एक संपादकीय में लिखा गया है कि इस सिद्धांत के मुताबिक पाकिस्तान वैश्विक शक्तियों के साथ अपने रिश्तों, पड़ोसी देशों (पढ़ें, भारत) के साथ युद्ध की स्थिति की तैयारियों और आतंकवादियों के साथ निपटने के तरीके तय किए गए थे.

बहरहाल, इस सिद्धांत के बेपेंदी का लोटा होने की जितनी मिसालें इस लेख में दी जाएं उतनी कम हैं. पठानकोट, उरी, पुलवामा भारत के साथ उसके छद्म युद्ध की मिसालें हैं, जबकि अमेरिका के साथ खट्टे होते रिश्ते और चीन के हाथों पाकिस्तान के कुछ इलाको की संप्रभुता को भी गिरवी रख देने से इस कथित डॉक्ट्राइन की भी कलई उतर जाती है.

अफगानिस्तान में अमेरिकी फौज की वापसी के साथ ही, पूरे दक्षिण एशिया में एक नया दौर शुरू हो रहा था. ऐसी परिस्थिति में इमरान खान की सरकार ने जनरल बाजवा का कार्यकाल तीन साल के लिए बढ़ा दिया. उस समय भी जनरल बाजवा का पहला कार्यकाल पूरा होने में सिर्फ तीन महीने बाकी थे और वह 29 नवंबर, 2019 को रिटायर हो रहे थे.

लेकिन इस सेवा विस्तार को पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने पलट दिया और पाकिस्तान के अटॉर्नी जनरल को आड़े हाथो लिया. आखिरकार, अदालत ने जनरल बाजवा को छह महीने तक पद पर रहने की इजाजत दे दी. बाद में, बाजवा का कार्यकाल बढ़ाए जाने को लेकर पाकिस्तान की संसद में एक विधेयक पारित किया गया. और हैरत की बात है कि विधेयक टेबल होने के बीस मिनट के भीतर वह विधेयक पारित भी हो गया. अगले दिन यह बिल सेनेट से भी पारित हो गया और अब जनरल बाजवा के पास पूरे तीन साल का नया कार्यकाल था.

इस कार्यकाल को पूरा करने के बाद, जनरल बाजवा जनरल अशफाक परवेज कयानी के क्लब में शामिल हो जाएंगे जिन्होंने सिविलियन सरकार के तहत सबसे लंबा कार्यकाल पूरा किया है.

लेकिन जनरल बाजवा के कार्यकाल को सेना में आंतरिक मनमुटाव के लिए भी जाना जाएगा. पाकिस्तान के अधिकतर संस्थान अमूमन अराजकता के मारे हैं और उनके बीच सेना आंतरिक रूप से अनुशासन के लिए जानी जाती है.

लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि अपने ही संस्थान में बढ़ती और चौड़ी होती खाई को जनरल बाजवा सही तरीके से पहचान नहीं पाए. उन्होंने कदम तो उठाए पर उसमें काफी देर हो गई थी और शायद उनमें उन विरोधियों का सामना करने का माद्दा नहीं था.

एक न्यूज चैनल को दिए अपने साक्षात्कार में पाकिस्तान की सैन्य विशेषज्ञ मारिया रशीद ने माना है कि “शायद ऐसा पहली बार हुआ कि पाकिस्तानी सेना के बीच ऐसी खाई पैदा हुई हो. हालांकि ऐसा विभाजन पहले भी रहा होगा लेकिन वह बाजवा के कार्यकाल में चौड़ी हो गई.”

अब बाजवा के उत्तराधिकारी को एक विभाजित सेना का सामना करना होगा क्योंकि पाकिस्तानी सेना के बहुत से अधिकारी इमरान खान के समर्थक हैं. आमतौर पर पाकिस्तान में सेना से मतभेद रखने वालों को खामोश कर दिया जाता रहा है. लेकिन जब से इमरान खान ने राजनीति में पाकिस्तानी सेना की भूमिका की आलोचना की है उसके बाद से लोग खुलेआम सेना पर उंगली उठाने लगे हैं.

खासतौर पर कमर जावेद बाजवा के रिटायर होने से के दस दिन पहले, उनकी बेहिसाब संपत्ति, जो करीबन 12.7 अरब रुपए के बराबर है, का मामला सामने आया, अब बाजवा के पास कोई नैतिक आधार नहीं है.

वैसे यह भी सच है कि अधिकतर पाकिस्तानी संस्थानो में कोई भी आधार नैतिक नहीं है, लेकिन बदलती परिस्थितियों में, जनरल बाजवा पर क्या कानूनी शिकंजा भी कसेगा और क्या इमरान खान अपनी कुरसी छीने जाने का बदला लेंगे, यह घटनाक्रम पाकिस्तान में संभावित लग रहा है.

पाकिस्तानी सेना का इमरान समर्थक धड़ा भी इस दिशा काम जरूर करेगा.