गिलानी तो दफ्न हो गए पर आपने अपना दिमाग क्यों दफ्न कर दिया?

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 03-09-2021
सैयद अली शाह गिलानी
सैयद अली शाह गिलानी

 

जोहरा सिद्दीकी

पाकिस्तान ने गिलानी को अपना सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार निशान-ए-पाकिस्तान दिया था, जिसके बदले में गिलानी ने 'इस्लाम' और 'आज़ादी' के बैनर तले पाकिस्तान समर्थक नारे और भड़कते जज्बात पाकिस्तान को लौटाए. सवाल यह है कि गिलानी ने कश्मीर में अपने लोगों को क्या दिया, खासकर उन युवाओं को, जिनमें से कई ने अपनी शिक्षा और उज्ज्वल भविष्य को केवल 'आजादी' के भ्रम के तहत अपनी पाक-समर्थक परियोजनाओं की सेवा के लिए छोड़ दिया था?

कश्मीर के अलगाववादी नेता और घाटी में एक अखिल इस्लामवादी उपदेशक सैयद अली शाह गिलानी का बुधवार को 92वर्ष की आयु में निधन हो गया. वह 31जुलाई 1993को गठित ऑल पार्टीज हुर्रियत कॉन्फ्रेंस (एपीएचसी) के पूर्व अध्यक्ष थे.

पाक प्रायोजित अलगाववादी आंदोलन की राजनीतिक अभिव्यक्ति के रूप में, जिसने उनकी तहरीक-ए-हुर्रियत को जन्म दिया. गौरतलब है कि गिलानी के शव (मैय्यत) को भारत में केंद्र शासित प्रदेश में दफनाने की अनुमति दी गई थी, इस तथ्य के बावजूद कि उसका दिल पाकिस्तान का था. गिलानी वह व्यक्ति थे जिन्होंने घाटी में शांति और स्थिरता के 'शत्रु' के रूप में खुद को पेश किया, और कश्मीर में अधिकांश हड़तालों के पीछे थे, जो राज्य द्वारा शुरू किए गए किसी भी शांति उपाय या विकास कार्यक्रम को रोकते थे.

लेकिन गुरुवार को,दिवंगत गिलानी को श्रीनगर के हैदरपोरा में उनके आवास के पास क़ब्रिस्तान में एक शांत अंतिम संस्कार में शांति से दफनाया गया. उनकी नमाज-ए-जनाजा (अंतिम संस्कार की प्रार्थना) एक स्थानीय मस्जिद में की गई और धार्मिक औपचारिकताओं और पूर्वापेक्षाओं को पूरा करने के बाद, उनका दफन लगभग 4.30 बजे हुआ. गिलानी के बेटे नईम के अनुसार, "उसके पिता चाहते थे कि उसे पुराने श्रीनगर के ईदगाह में दफनाया जाए", और वे उसे वहीं दफनाना चाहते थे. लेकिन कुछ प्रोटोकॉल और उच्च अधिकारियों के दबाव के कारण उन्हें श्रीनगर के हैदरपोरा में उनके आवास के पास निकटतम कब्रिस्तान में दफनाया गया. हालांकि गिलानी के परिवार को यह पसंद नहीं आया, क्योंकि कोई और नहीं चाहेगा कि उनके पिता की इच्छा अधूरी रह जाए, एक आश्चर्य है कि गिलानी उस देश में दफन क्यों नहीं होना चाहते थे जिसके लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन लगा दिया.

गिलानी अपने पूरे जीवन में राजनीतिक हितों और पाकिस्तान के गुप्त उद्देश्यों के अधीन रहे. लेकिन जब उनकी मृत्यु की बात आई, तो उन्होंने यहीं भारत में दफन होने का फैसला किया. यहाँ, बहादुर शाह जफर के प्रसिद्ध उर्दू दोहे को याद किया जा सकता है:

दो गज़ ज़मीन भी ना मिली कू-ए-यार में

लेकिन विडंबना यह है कि सीमा पार आतंकवाद और उग्रवाद के अपने राज्य-प्रायोजन के लिए गिलानी के जीवन को भुनाने वाला पाकिस्तान अब उसकी मौत का भी फायदा उठाने की कोशिश कर रहा है.

पाकिस्तान राज्य ने गिलानी की मृत्यु पर "एक दिवसीय राजकीय शोक" मनाया और जैसा कि अपेक्षित था, उसने इस अवसर को भी भारत के खिलाफ अपनी कटुतापूर्ण बयानबाजी के लिए इस्तेमाल किया. जहां पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने गिलानी की मौत पर 'आधिकारिक शोक दिवस' घोषित कर अपना 'गहरा दुख' व्यक्त किया, वहीं गिलानी के लिए पाकिस्तान समर्थक नारा "हम पाकिस्तानी और पाकिस्तान हमारा" पाकिस्तान में चिल्लाया गया.

कहने की बात नहीं कि उन्होंने गिलानी को निशान-ए-पाकिस्तान दिया था, और गिलानी उन्हें "हम पाकिस्तानी और पाकिस्तान हमारा" जैसा नारा.

लेकिन सवाल यह है कि गिलानी ने कश्मीर में अपने ही लोगों को और खासकर युवा कश्मीरी मुसलमानों को क्या दिया, जिनमें से कई को उन्होंने 'आजादी' के बैनर तले अपनी पाक-समर्थक परियोजनाओं की सेवा के लिए प्रभावित किया, प्रभावित किया और भर्ती किया?

गिलानी का जीवन अपने आप में इस प्रश्न का एक स्पष्ट और स्पष्ट उत्तर है: उनका जन्म 1929में जम्मू-कश्मीर के बारामूला जिले के सोपोर में एक कुलीन परिवार में हुआ था, वे ओरिएंटल कॉलेज में उच्च अध्ययन के लिए लाहौर गए, मौलाना मौदुदी से प्रेरित हुए. धार्मिक विचार और फिर अपनी छोटी उम्र में दक्षिणपंथी इस्लामी आंदोलन, जमात ए इस्लामी में शामिल हो गए. कश्मीर में घर वापस, उन्होंने हुर्रियत कांफ्रेंस का प्रतिनिधित्व किया और 2003में हुर्रियत के विभाजन के बाद अपने गुट को जारी रखा. गिलानी ने न केवल भोले-भाले कश्मीरी युवाओं का शोषण किया, बल्कि उनकी उस महान क्षमता को भी छीन लिया जिसके साथ वे पैदा हुए थे. उन्हें 'कश्मीरी लोगों की राजनीतिक आकांक्षाओं' के नाम पर अपनी शिक्षा और करियर छोड़ना पड़ा, वहीं गिलानी के बच्चों की पढ़ाई विदेश में हो रही थी.

अब गिलानी के गुजर जाने के बाद उन्होंने अपने धड़े और आम कश्मीरी युवाओं दोनों को अधर में छोड़ दिया है. जहां उनके अपने लोग हैं, वहीं कश्मीर में नई पीढ़ी दोराहे पर है. वे महसूस करते हैं कि अपने पूरे जीवन में, गिलानी ने जो कुछ किया वह छद्म वैचारिक युद्ध के माध्यम से व्यक्तिगत गौरव और भौतिक लाभ अर्जित करना था, जिसे उन्होंने अनुचित और अन्यायपूर्ण रूप से 'इस्लामी' कहा और इस तरह भोले-भाले युवाओं को लुभाया. इसने कई प्रतिभाशाली कश्मीरी दिमागों को तबाह कर दिया है और उनकी बौद्धिक ऊर्जा बर्बाद कर दी है जो एक बेहतर कारण को कायम रखने के लिए काम कर सकती थी. और राष्ट्र-निर्माण से बढ़कर और क्या फलदायी हो सकता है!

अब कश्मीर की युवा पीढ़ी को नींद से बाहर आना होगा. कश्मीर के सबसे वरिष्ठ अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी की मौत केंद्रशासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर में पैन-इस्लामवाद की आड़ में पाकिस्तान समर्थित अलगाववाद का अंत नहीं है. पुराने के स्थान पर कौन से नए खिलाड़ियों को पेश किया जाएगा, यह तो समय ही बताएगा. युवा, आकांक्षी और दूरंदेशी कश्मीरियों को बस इतना करना चाहिए कि वे 'आजादी' के पाक बयानिया को तोते की तरह रटनेवालों की पहचान करें. उन्होंने जम्मू और कश्मीर में स्थानीय लोगों की भावनाओं का सही मायने में कभी प्रतिनिधित्व नहीं किया है और न ही करेंगे.

 

(जोहरा सिद्दीकी विभिन्न इस्लामी पत्रिकाओं में नियमित योगदानकर्ता हैं और उन्होंने जामिया मिलिया इस्लामिया, नई दिल्ली से राजनीति विज्ञान में एमए पूरा किया है.)