‘हम देखेंगे’: फैज अहमद फैज ने ली साहिर लुधियानवी से प्रेरणा

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 04-06-2024
‘हम देखेंगे’: फैज अहमद फैज ने ली साहिर लुधियानवी से प्रेरणा
‘हम देखेंगे’: फैज अहमद फैज ने ली साहिर लुधियानवी से प्रेरणा

 

साकिब सलीम

‘हम देखेंगे’ दुनिया भर में हिंदी-उर्दू भाषी लोगों के बीच जनांदोलनों का गाना बन गया है. पिछले चार दशकों से छात्र, मजदूर और राजनीतिक संगठन इस कविता का अपने-अपने तरीके से इस्तेमाल करते आ रहे हैं. फैज अहमद फैज ने यह नज्म 1979 में जनरल जिया उल हक द्वारा इस्लाम के नाम पर मार्क्सवादी और अन्य विद्वानों के खिलाफ की गई कार्रवाई के विरोध में लिखी थी.

पाकिस्तान सरकार ने आम लोगों के बीच विद्वानों को बदनाम करने के लिए अपने मीडिया के जरिए यह प्रचार किया कि मार्क्सवादी या वामपंथी नास्तिक या इस्लाम विरोधी हैं. जनता के सामने दिखावे की जंग में फैज ने इस्लामी प्रतीकों का इस्तेमाल करते हुए एक कविता लिखी, जिसमें उन्होंने यह साबित करने की कोशिश की कि वे इस्लाम को अच्छी तरह जानते हैं और तानाशाह के खिलाफ उनका संघर्ष कुरान की शिक्षाओं से पूरी तरह सहमत है.

लेकिन फैज की इस कविता से पहले उर्दू शायरी के एक और दिग्गज साहिर लुधियानवी ने पाकिस्तान सरकार के खिलाफ इसी संदेश के साथ एक कविता लिखी थी, ‘हम भी देखेंगे’. साल था 1949. भारत और पाकिस्तान को आजाद हुए दो साल से भी कम समय हुआ था. साहिर लाहौर में रह रहे थे, जो पाकिस्तान में था, और उन्होंने इस आशय की एक कविता लिखी थी कि लोग पाकिस्तान में कम्युनिस्ट या समाजवादी सरकार को देखेंगे.

कहने की जरूरत नहीं कि साहिर को उसके बाद पाकिस्तान से भागना पड़ा और भारत में बसना पड़ा. फैज के विपरीत, साहिर को किसी भी बात को साबित करने के लिए इस्लामी कल्पना का उपयोग करने की जरूरत नहीं है. कविता मार्क्सवादी समाजवाद का एक सीधा संदेश है.

साहिर ने लिखा, ‘‘दबेगी कब तलाक आवाज-ए-आदम हम भी देखेंगे, रुकेंगे कब तलक़ जज्बात-ए-बरहम हम भी देखेंगे.’’ यह विचार मार्क्सवादी समाजशास्त्रीय घटनाक्रम का है, जिसका अंतिम परिणाम लोगों का शासन या सरल शब्दों में समाजवादी सरकार है.

तीस साल बाद फैज ने लिखा, ‘‘ष्हम देखेंगे, लाजिम है कि हम भी देखेंगे, वो दिन के जिसका वादा है, जो लौह-ए-अजल में लिखा है, हम देखेंगे.’’ साहिर उस दिन की उम्मीद कर रहे थे जब समाजवादी या साम्यवादी विचारकों की भविष्यवाणी सच होगी. फैज ने कुरान के लौह-ए-अजल के विचार का उपयोग करके उसी बिंदु को स्पष्ट किया. कुरान इस शब्द का उपयोग उस शाश्वत स्लेट को संदर्भित करने के लिए करता है, जिस पर शुरुआत से लेकर प्रलय तक पूरे ब्रह्मांड की नियति दर्ज की गई है.

फैज ने घोषणा की कि लोग वादा किए गए दिन के गवाह बनेंगे, जो कुरान के अनुसार शाश्वत स्लेट पर लिखा गया है. दोनों कविताओं को ध्यान से पढ़ने पर पता चलेगा कि कल्पना के अलावा दोनों की टोन और संदेश भी एक जैसे थे. उदाहरण के लिए, अगर साहिर ने लिखा, “जबीन-ए-काज-कुलाही हक पर हम भी देखेंगे” तो फैज ने लिखा, “सब ताज उछाले जाएंगे, सब तख्त गिराए जाएंगे”.

फैज ने अपनी नज्म को एक मुसलमान की इस उम्मीद के साथ समाप्त किया कि दुनिया खत्म होने से पहले एक न्यायपूर्ण शासन होगा. उन्होंने अपनी कविता का अंत इस तरह किया, ‘‘उठेगा अन-अल-हक का नारा, जो मैं भी हूं तुम भी हो, और राज करेगी खल्क-ए-खुदा, जो मैं भी हूं और तुम भी हो.’’ इसके विपरीत साहिर ने अपनी कविता को एक स्पष्ट संदेश के साथ समाप्त किया कि वह पाकिस्तान में कम्युनिस्ट सरकार का लाल झंडा देखना चाहते थे. उन्होंने लिखा, ‘‘ये हंगामा-ए-विदा-ए-शब है ऐ जुल्मत के फर्जंदो, सहर के दोष पर गुलनार परचम हम भी देखेंगे, तुम्हें भी देखना होगा ,ये आलम हम भी देखेंगे.’’

हालांकि फैज ने, कम से कम मेरी जानकारी में, कभी भी साहिर को अपनी सबसे प्रतिष्ठित कविताओं में से एक के लिए प्रेरणा नहीं माना, लेकिन बारीकी से पढ़ने पर पता चलता है कि न केवल विचार, बल्कि फैज की भाषा भी साहिर की कविता से बहुत प्रेरित थी, जो उनके काम से तीन दशक पहले की है.