राजेश खन्ना: हिंदी सिनेमा का पहला सुपरस्टार

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] | Date 29-12-2022
राजेश खन्ना
राजेश खन्ना

 

ज़ाहिद ख़ान

हिंदी सिनेमा में राजेश खन्ना को पहला सुपरस्टार होने का मर्तबा हासिल है. एक दौर था, जब उनकी अदाओं की पूरी दुनिया दीवानी थी. ख़ास तौर से महिलाओं में राजेश खन्ना का ज़बर्दस्त क्रेज था.

एवरग्रीन स्टार देव आनंद के बाद वे दूसरे ऐसे अदाकार थे, जिनकी हर अदा पर महिलाएं मर मिटती थीं. दिलों को जीत लेने वाली मुस्कराहट और गर्दन थोड़ी सी टेड़ी कर, जब वे अपनी आंखें झपकाते, तो उनकी यह अदा जादू सा कर जाती थी. तिस पर उनके गुरु कुर्ते के जानिब भी सभी की दीवानगी थी.

आलम यह था कि इस कुर्ते का चलन मर्दों तक ही महदूद नहीं था, बल्कि औरतों को भी यह ड्रेस खूब भाई थी. उस ज़माने में राजेश खन्ना की मक़बूलियत कुछ इस कदर थी कि बच्चों के नाम राजेश रखने का एक ट्रेंड सा चल गया था.

उनके फीमेल फैंस के बारे में तो ऐसे-ऐसे क़िस्से हैं कि नई पीढ़ी को यक़ीन ही न हो. मसलन लड़कियां उनकी तस्वीर से शादी कर लेती थीं, उनकी तस्वीर अपने तकिए के नीचे रखकर सोतीं, अपने फेवरेट स्टार को खू़न से चिट्ठियां लिखतीं और उनकी कार की धूल से अपनी मांग भर लेती थीं. ऐसा दीवानापन और मुहब्बत बहुत कम स्टारों को मिला है.

फ़िल्मी दुनिया में राजेश खन्ना एक फ़िनोमिना की तरह उभरे. तीन साल के दरमियान साल 1969 से लेकर 1972 तक उनकी लगातार एक के बाद एक पन्द्रह फ़िल्में सुपर हिट हुईं. लेकिन राजेश खन्ना इस स्टारडम को संभाल नहीं सके. कुछ अपने अहंकारी मिज़ाज, शूटिंग पर अक्सर लेट आना, तो कुछ फ़िल्मों के ग़लत चयन से वे एक बार पिछड़े, तो फिर दोबारा खड़े नहीं हो सके. अलबत्ता बीच-बीच में उनकी कुछ हिट फ़िल्में ज़रूर आती-जाती रहीं.

पंजाब के अमृतसर में 29 दिसम्बर, 1942 में जन्मे राजेश खन्ना का असल नाम जतिन खन्ना था. उनका परिवार बुनियादी तौर से लाहौर का था, जो बंटवारे से बहुत पहले मुंबई में बस गया था.

राजेश खन्ना की सारी तालीम मुंबई में ही हुई. स्कूली दिनों में ही वे नाटकों में हिस्सा लेने लगे थे और कॉलेज में भी यह सिलसिला जारी रहा. पढ़ाई मुकम्मल हुई, तो फ़िल्मों में एक्टिंग करने का जुनून सवार हो गया. फ़िल्मों के लिए कई ऑडिशन दिए, पर बात नहीं बनी. राजेश खन्ना का फ़िल्मों में जाने का रास्ता ‘टैलेन्ट हन्ट’ कॉम्पिटिशन से खुला.

उस वक़्त फ़िल्मफे़यर और यूनाइटेड प्रोड्यूसर्स कम्बाइन फ़िल्मों में नये टैलेन्ट को खोजने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर हर साल ‘टैलेन्ट हन्ट’ कॉम्पिटिशन करता था. कॉम्पिटिशन के विजेताओं को फ़िल्म में काम करने का मौक़ा दिया जाता था. बहरहाल, राजेश खन्ना ने भी इस कॉम्पिटिशन के लिए फॉर्म भर दिया.

हज़ारों नौजवानों के बीच अपनी शानदार अदाकारी से राजेश खन्ना ने यह कॉम्पिटिशन जीत लिया. कॉम्पिटिशन जीतते ही उन्हें एक साथ कई फ़िल्में मिल गईं, मगर उनके करियर का आग़ाज़ डायरेक्टर चेतन आनंद की फ़िल्म ‘आख़िरी ख़त’ (साल-1966) से हुआ. पहली ही फ़िल्म में उन्हें अपनी उम्र के हिसाब से मेच्योर रोल मिला, जिसे उन्होंने बखू़बी निभाया. छोटे बजट की इस फ़िल्म ने बॉक्स ऑफ़िस पर कोई करिश्मा नहीं दिखाया. अलबत्ता इस फ़िल्म के गाने ज़रूर चले. साल 1967 में राजेश खन्ना जीपी सिप्पी की फ़िल्म ‘राज’, नासिर हुसेन-‘बहारों के सपने’ और ‘औरत’ में नज़र आए. लेकिन अफ़सोस यह सारी फ़िल्में नाकामयाब रहीं.

अपनी पहली फ़िल्मी कामयाबी के लिए राजेश खन्ना को ज़्यादा इंतज़ार नहीं करना पड़ा. साल 1969 में आई डायरेक्टर शक्ति सामंत की फ़िल्म ‘आराधना’ ने उन्हें सफलता का स्वाद चखा दिया. इस फ़िल्म की स्टोरी और गीत-संगीत ने सभी के दिलों पर एक जादू सा कर दिया. ख़ास तौर से राजेश खन्ना की अदाकारी लोगों को खू़ब पसंद आई. देश के कई महानगरों में इस फ़िल्म ने सिल्वर और गोल्डन जुबली मनाई. यहां तक कि अहिंदी भाषी क्षेत्रों में भी ‘आराधना’ ने सफलता के झंडे गाड़े.

‘आराधना’ ने राजेश खन्ना की किस्मत बदल कर रख दी. इस फ़िल्म के बाद उनकी एक के बाद एक ‘डोली’, ‘दो रास्ते’ (साल-1969), ‘ख़ामोशी’, ‘द ट्रेन’, ‘सच्चा झूठा’, ‘सफ़र’, ‘कटी पतंग’, ‘आन मिलो सजना’(साल-1970), ‘अंदाज़’, ‘मर्यादा’, ‘हाथी मेरे साथी’ (साल-1971), ‘अमर प्रेम’, ‘दुश्मन’, ‘अपना देश’, ‘मेरे जीवन साथी’ (साल-1972) लगातार पन्द्रह फ़िल्में सुपरहिट रहीं.

फ़िल्मी दुनिया में इससे पहले ऐसी कामयाबी किसी को भी नहीं मिली थी. आलम यह था कि राजेश खन्ना जिस फ़िल्म को छू देते, वह हिट हो जाती थी. इस कामयाबी के पीछे जहां इन फ़िल्मों का मधुर गीत-संगीत था, तो इन फ़िल्मों की सबसे बड़ी यूएसपी राजेश खन्ना थे. जिनकी एक्टिंग और अदाएं सभी को मदहोश कर रही थीं.

साल 1973 राजेश खन्ना के लिए मिला-जुला साल रहा. जिसमें उन्होंने अपने चाहने वालों को ‘दाग’ और ‘नमक हराम’ जैसी फ़िल्में दीं. यही वह साल था, जब अमिताभ बच्चन की फ़िल्म ‘ज़ंजीर’ आई. इस फ़िल्म के आते ही फ़िल्मी दुनिया का उनके जानिब रुख बदल गया.

‘ज़ंजीर’ में अमिताभ का एंग्री यंगमैन का किरदार दर्शकों को ऐसा पसंद आया कि राजेश खन्ना उनसे पिछड़ते चले गए. अलबत्ता बीच-बीच में उनकी कुछ हिट फ़िल्में ‘आपकी कसम’, ‘रोटी’ (साल-1974), ‘प्रेम कहानी’ (साल-1975), ‘छैला बाबू’ (साल-1977), ‘थोड़ी-सी बेवफ़ाई’, ‘आंचल’ (साल-1980), ‘कुदरत’, ‘दर्द’, ‘फ़िफ़्टी-फ़िफ़्टी’ (साल-1981), ‘राजपूत’, ‘धर्मकांटा’ (साल-1982), ‘सौतन’, ‘अवतार’, ‘अगर तुम न होते’ (साल-1983), ‘मक़सद’ (साल-1984), ‘आख़िर क्यों’, ‘अलग-अलग’ (साल-1985), ‘स्वर्ग’ (साल-1990) भी आती रहीं, मगर राजेश खन्ना दर्शकों में वह पहले जैसा जादू नहीं जगा सके.

सुपरस्टार का ख़िताब अब उन अमिताभ बच्चन को मिल गया था, जिन्होंने राजेश खन्ना की दो फ़िल्मों ‘आनंद’ और ‘नमक हराम’ में सपोर्टिंग एक्टर का किरदार निभाया था. बाद के कुछ सालों में राजेश खन्ना की फ़िल्में भले ही न चली हों, मगर इन फ़िल्मों के गाने ख़ूब चले. गायक किशोर कुमार उनकी स्थायी आवाज थे.

किशोर कुमार ने राजेश खन्ना की 91 फ़िल्मों में अपनी आवाज़ दी, तो संगीतकार आरडी बर्मन उर्फ़ पंचम ने उनकी 40 फ़िल्मों में संगीत दिया. और सभी सुपर हिट. राजेश खन्ना की सातवे-आठवे दशक की कोई भी फ़िल्म उठाकर देख लीजिए, उसमें दो-तीन गाने ज़रूर सुपरहिट मिल जाएंगे. ये गाने जब भी रेडियो पर बजते हैं, लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचते हैं. शर्मिला टैगोर, मुमताज, आशा पारेख, हेमा मालिनी, जीनत अमान और टीना मुनीम जैसी हीरोइन के साथ राजेश खन्ना की जोड़ी खू़ब जमी.

‘आनंद’, ‘अमर प्रेम’, ‘ख़ामोशी’, ‘बावर्ची’, ‘कटी पतंग’ राजेश खन्ना की वे फ़िल्में हैं, जिन्हें कल्ट फ़िल्म का दर्जा हासिल है. इन फ़िल्मों में उनकी अदाकारी शिखर पर है. आज भी जब ये फ़िल्में टेलीविजन पर प्रसारित होती हैं, तो इन्हें लाखों दर्शक मिलते हैं.

अपने चार दशक के फ़िल्मी करियर में राजेश खन्ना ने पर्दे पर अनेक किरदार निभाए, जो आज भी लोगों के जे़हन में ज़िंदा हैं. ‘आख़िरी ख़त’, ‘इत्तेफ़ाक़’, ‘बहारों के सपने’, ‘नमक हराम’, ‘सफ़र’ फ़िल्मों का जज़्बाती नौजवान, तो ‘आराधना’, ‘अमर प्रेम’, ‘आन मिलो सजना’ में उनके द्वारा निभाए रोमांटिक किरदार, ‘आनंद’, ‘बावर्ची’, ‘डोली’ फ़िल्मों का सीधा सादा नौजवान हर किरदार में वे जान फूंक देते थे.

उनकी जज़्बाती अदाकारी से सेल्युलाइड के पर्दे पर किरदार ज़िंदा हो जाते थे. दर्शक फ़िल्मों में राजेश खन्ना पर फ़िल्माये रूमानी गानों पर ही अकेले फ़िदा नहीं थे, बल्कि उनकी डायलॉग डिलेवरी के भी आशिक थे. राजेश खन्ना द्वारा बोले गए यह डायलॉग ‘‘आइ हेट टियर्ज, पुष्पा’’ (फ़िल्म-अमर प्रेम), ‘‘ज़िंदगी बड़ी होनी चाहिए, लंबी नहीं बाबू मोशाय’’ (फ़िल्म-आराधना), ‘‘मैं मरने से पहले मरना नहीं चाहता.’’ (फ़िल्म-सफ़र) आज भी उनके चाहने वालों के दिलों में हलचल मचाते हैं.

फ़िल्मों में मिली इस बेशुमार कामयाबी और हिंदी सिनेमा में उनके योगदान को देखते हुए राजेश खन्ना कई पुरस्कारों और सम्मान से भी नवाजे गए. ‘सच्चा झूठा’ (साल-1971), ‘आनंद’ (साल-1972) और ‘अविष्कार’ फ़िल्म में शानदार अदाकारी के लिए उन्हें तीन बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्मफे़यर पुरस्कार मिला, तो वहीं इस पुरस्कार के लिए वे चौदह बार नॉमिनेट हुए. साल 2005 में उन्हें फ़िल्मफे़यर ने ‘फ़िल्मफे़यर लाइफटाइम अचीवमेंट’ पुरस्कार से नवाजा.

साल 2013 में मरणोपरांत भारत सरकार ने उन्हें देश के तीसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित किया. राजेश खन्ना सियासत के मैदान में भी उतरे और यहां भी वे कामयाब रहे. 1991 के आम चुनावों में वे भले ही अपने समय के बड़े लीडर लालकृष्ण आडवानी से नई दिल्ली लोकसभा सीट हार गए, पर बाद में हुए उप चुनाव में उन्होंने शत्रुघन सिन्हा को शिकस्त दी.

बारहवीं लोकसभा चुनाव में राजेश खन्ना एक बार फिर कांग्रेस के टिकट से चुनाव लड़े, मगर उन्हें इसमें हार मिली. उसके बाद भी वे सियासत में सरगर्म रहे, मगर उन्हें उसका कोई फ़ायदा नहीं मिला. कांग्रेस पार्टी चुनावों के प्रचार में ही उनका इस्तेमाल करती रही.

आख़िरी समय में उन्होंने राजनीति से पूरी तरह किनारा कर लिया. राजेश खन्ना का आख़िरी वक़्त बड़ा दर्दनाक बीता. जिन राजेश खन्ना के बंगले के आगे लोगों का चौबीस घंटे हुजूम लगा रहता था, आख़िरी समय में वे बिल्कुल अकेले हो गए थे. साल 2012 की 18 जुलाई वह तारीख थी, जब हिंदी सिनेमा के पहले सुपरस्टार राजेश खन्ना ने इस दुनिया से अपनी आख़िरी विदाई ली.