इरफ़ान ख़ान की आंखें भी अदाकारी करती थीं

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  onikamaheshwari | Date 06-01-2023
अदाकार इरफ़ान ख़ान का जन्मदिवस:
अदाकार इरफ़ान ख़ान का जन्मदिवस:

 

जाहिद ख़ान

पने एक पुराने इंटरव्यू में इरफ़ान ने कहा था,‘‘उनके करियर में सबसे बड़ी चुनौती, उनका चेहरा था.शुरुआती दौर में उनका चेहरा लोगों को विलेन की तरह लगता था. वो जहां भी काम मांगने जाते थे, निर्माता और निर्देशक उन्हें ख़लनायक का ही किरदार देते. 

जिसके चलते उन्हें करियर के शुरुआती दौर में सिर्फ़ नेगेटिव रोल ही मिले.’’ लेकिन अपनी मेहनत और दमदार एक्टिंग से वह फ़िल्मों के केन्द्रीय किरदार नायक तक पहुंचे और इसमें भी कमाल कर दिखाया. हां, इसकी शुरुआत ज़रूर छोटे बजट की फ़िल्मों से हुई. एनएसडी में उनके जूनियर रहे निर्देशक तिग्मांशु धूलिया की फ़िल्म ‘पान सिंह तोमर‘ से उन्हें वह सब कुछ मिला, जिसकी वे अभी तक तलाश में थे.  

फ़िल्म न सिर्फ़ बॉक्स ऑफिस पर सुपर हिट साबित हुई, बल्कि इस फ़िल्म के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया. ‘पान सिंह तोमर‘ के बाद उन्होंने एक के बाद एक कई हिट फ़िल्में दीं‘हिन्दी मीडियम’, ‘लंच बॉक्स’, ‘चॉकलेट’, ‘गुंडे’, ‘पीकू’, ‘क़रीब क़रीब सिंगल’, ‘न्यूयार्क’, ‘लाइफ़ इन ए मेट्रो’, ‘बिल्लू’ आदि फ़िल्मों में उन्होंने अपने अभिनय से फ़िल्मी दुनिया में एक अलग ही छाप छोड़ी.

शारीरिक तौर पर बिना किसी उछल-कूद के, वे गहरे इंसानी जज़्बात को भी आसानी से बयां कर जाते थे. हॉलीवुड अभिनेता टॉम हैंक्स ने उनकी अदाकारी की तारीफ़ करते हुए एक बार कहा था, ‘‘इरफ़ान की आंखें भी अभिनय करती हैं.’’ 

वाक़ई इरफ़ान अपनी आंखों से कई बार बहुत कुछ कह जाते थे. आहिस्ता-आहिस्ता अल्फ़ाज़ों पर ज़ोर देते हुए, जब फ़िल्म के पर्दे पर वे शाइस्तगी से बोलते थे, तो इसका दर्शकों पर ख़ासा असर होता था.

अदाकारी के मैदान में आलमी तौर पर उनकी जो शोहरत थी, ऐसी शोहरत बहुत कम अदाकारों को नसीब होती है. सहज और स्वाभाविक अभिनय उनकी पहचान था. स्पॉन्टेनियस और हर रोल के लिए परफ़ेक्ट ! मानो वो रोल उन्हीं के लिए लिखा गया हो. उन्हें जो भी रोल मिला, उसे उन्होंने बख़ूबी निभाया. उसमें जान फूंक दी.

इरफ़ान की किस फ़िल्म का नाम लें और किस को भुला दें ? उनकी फ़िल्मों की एक लंबी फ़ेहरिस्त है, जिसमें उन्होंने अपनी अदाकारी से कमाल किया है. ‘मक़बूल’, ‘हैदर’, ‘मदारी’, ‘सात ख़ून माफ़’, ‘पान सिंह तोमर’, ‘तलवार’, ‘रोग‘, ‘एक डॉक्टर की मौत‘ आदि फ़िल्मों में उनकी अदाकारी की एक छोटी सी बानगी भर है.

राजस्थान के छोटे से कस्बे टोंक के एक नवाब ख़ानदान में 7 जनवरी 1967 को पैदा हुए, इरफ़ान ख़ान अपने मामू रंगकर्मी डॉ. साजिद निसार का अभिनय देखकर, नाटकों के जानिब आए. जयपुर में अपनी तालीम के दौरान वह नाटकों में अभिनय करने लगे. जयपुर के प्रसिद्ध नाट्य सभागार ‘रवींद्र मंच’ में उन्होंने कई नाटक किए.

उनका पहला नाटक ‘जलते बदन‘ था. अदाकारी का इरफ़ान का यह नशा, उन्हें ‘नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा’ यानी एनएसडी में खींच ले गया. एनएसडी में पढ़ाई के दौरान अपने वालिद के इंतिक़ाल के बाद, उन्हें काफ़ी माली परेशानियां झेलना पड़ीं.

एक वक़्त, उन्हें घर से पैसे मिलने बंद हो गए. एनएसडी से मिलने वाली फ़ेलोशिप के ज़रिए, उन्होंने साल 1987 में जैसे-तैसे अपना कोर्स ख़त्म किया. नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा ने इरफ़ान ख़ान की एक्टिंग को निखारा.

उन्हें एक्टिंग की बारीकियां सिखाईं, जो आगे चलकर फ़िल्मी दुनिया में उनके बेहद काम आईं. एनएसडी में पढ़ाई के दौरान इरफ़ान ने कई बेहतरीन नाटकों में अदाकारी की. 

रूसी नाटककार चिंगीज आत्मितोव के नाटक ‘एसेंट ऑफ फ्यूजियामा’, मेक्सिम गोर्की के नाटक ‘लोअर डेफ्थ्स’, ‘द फ़ैन’, ‘लड़ाकू मुर्गा’ और ‘लाल घास पर नीला घोड़ा’ आदि में उन्होंने अनेक दमदार रोल निभाए.स्टेज पर अभिनय करते-करते, वह टेलिविजन के पर्दे तक पहुंचे. उन दिनों राष्ट्रीय चैनल ‘दूरदर्शन’ शुरू-शुरू ही हुआ था और उसके नाटक देशवासियों में काफ़ी पसंद किए जाते थे. 

रफ़ान ने यहां अपनी क़िस्मत आज़माई और इसमें वे ख़ासा कामयाब हुए. गीतकार-निर्देशक गुलज़ार के सीरियल ‘तहरीर’ से लेकर ‘चंद्रकांता’, ‘श्रीकांत’, ‘चाणक्य’ ‘भारत एक खोज’, ‘जय बजरंगबली’, ‘बनेगी अपनी बात’, ‘सारा जहां हमारा‘, ‘स्पर्श’ तक उन्होंने कई सीरियल किए और अपनी अदाकारी से दर्शकों की वाह—वाही लूटी. 

‘चाणक्य’ में सेनापति भद्रसाल और ‘चंद्रकांता’ में बद्रीनाथ और सोमनाथ के रोल भला कौन भूल सकता है ? उन्हीं दिनों इरफ़ान ने टेली फ़िल्म ‘नरसैय्या की बावड़ी’ में नरसैय्या का किरदार भी निभाया था.टेलीविजन में अदाकारी, इरफ़ान ख़ान की जुस्तुजू और आख़िरी मंज़िल नहीं थी. उनकी चाहत फ़िल्में थीं और किसी भी तरह वह फ़िल्मों में अपना आग़ाज़ करना चाहते थे.

बहरहाल, इसके लिए उन्हें ज़्यादा लंबा इंतज़ार नहीं करना पड़ा. साल 1988 में निर्देशक मीरा नायर ने अपनी फ़िल्म ‘सलाम बॉम्बे’ में इरफ़ान को एक छोटे से रोल के लिए लिया.  फ़िल्म रिलीज़ होने तक यह रोल और भी छोटा हो गया. जिससे इरफ़ान निराश भी हुए.

बावजूद इसके उनका यह रोल दर्शकों और फ़िल्म समीक्षकों दोनों को ख़ूब पसंद आया. फ़िल्म ऑस्कर अवॉर्ड के लिए भी नॉमिनेट हुई, जिसका फ़ायदा इरफ़ान को भी मिला. अब उन्हें फ़िल्मों में छोटे-छोटे रोल मिलने लगे.

फ़िल्मों में केन्द्रीय रोल पाने के लिए इरफ़ान को एक दशक से भी ज़्यादा वक़्त का इंतज़ार करना पड़ा. साल 2001 में निर्देशक आसिफ़ कपाड़िया की फ़िल्म ‘द वॉरियर’ उनके करियर की टर्निंग प्वाइंट साबित हुई. 

इस फ़िल्म से उन्हें ज़बर्दस्त पहचान मिली. ये फ़िल्म अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोहों में भी प्रदर्शित की गई. उनकी इस अंतरराष्ट्रीय ख्याति पर बॉलीवुड का भी ध्यान गया. निर्देशक विशाल भारद्वाज ने अपनी फ़िल्म ‘मक़बूल’ के केन्द्रीय किरदार के लिए उन्हें चुना. साल 2003 में यह फ़िल्म रिलीज़ हुई और उसके बाद का इतिहास सभी जानते हैं. 

पंकज कपूर, तब्बू, नसीरुउद्दीन शाह, ओम पुरी, पीयूष मिश्रा जैसे मंजे हुए अदाकारों के बीच इरफ़ान ने अपनी अदाकारी का लोहा मनवा लिया. साल 2004 में वे ‘हासिल’ फ़िल्म में आए. इस फ़िल्म में भी उन्हें एक नेगेटिव किरदार मिला. 

इस नेगेटिव रोल का दर्शकों पर इस क़दर जादू चला कि उन्हें उस साल ‘बेस्ट विलेन‘ का फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड मिला. ज़ाहिर है कि ‘मक़बूल’ और ‘हासिल’ के इन किरदारों ने इरफ़ान ख़ान को फ़िल्म इंडस्ट्री में स्थापित कर दिया. एक बार उन्होंने शोहरत की बुलंदी छुई, तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा.

इरफ़ान बॉलीवुड के उन चंद अदाकारों में से एक हैं, जिन्हें हॉलीवुड की अनेक फ़िल्में मिलीं और उन्होंने इन फ़िल्मों में भी अपनी अदाकारी का झंडा फहरा दिया. ‘अमेजिंग स्पाइडर मैन‘, ‘जुरासिक वर्ल्ड‘, द नेमसेक, ‘अ माइटी हार्ट’ और ‘द इन्फ़र्नो‘ जैसी हॉलीवुड की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुपर-डुपर हिट रही फ़िल्मों का वह हिस्सा रहे.

डैनी बॉयल की साल 2008 में आई ‘स्लमडॉग मिलेनियर‘ को आठ ऑस्कर अवॉर्ड्स मिले. जिसमें उनकी भूमिका की भी ख़ूब चर्चा हुई. यही नहीं ताईवान के निर्देशक आंग ली के निर्देशन में बनी फ़िल्म ‘लाइफ़ ऑफ पाई’ ने भी कई अकेडमी अवॉर्ड जीते. 

अपनी एक्टिंग के लिए इरफ़ान को अनेक अवार्डों से नवाज़ा गया. साल 2004 में ‘हासिल’, साल 2008-‘लाइफ़ इन अ मेट्रो’, साल 2013-‘पान सिंह तोमर’ और साल 2018 में ‘हिंदी मीडियम’ के लिए उन्हें फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड मिला. 

साल 2011 में भारत सरकार ने इरफ़ान को ‘पद्मश्री’ सम्मान से सम्मानित किया. इरफ़ान ख़ान ने अपनी जिंदगी के आख़िरी दो साल ‘न्यूरोएंडोक्राइन ट्यूमर’ नामक ख़तरनाक बीमारी से जूझते हुए बिताए। ज़िंदगी के जानिब उनका रवैया हमेशा पॉजिटिव रहा. 

इतनी गंभीर बीमारी से जूझते हुए भी, उन्होंने कभी अपनी हिम्मत नहीं हारी. यह उनकी बेमिसाल हिम्मत और जज़्बा ही था कि साल 2019 में वह विदेश से इलाज के बाद मुम्बई वापस लौटे. वापस लौटकर ‘इंग्लिश मीडियम’ फ़िल्म की शूटिंग पूरी की. 

साल 2020 की शुरुआत में यह फ़िल्म रिलीज़ हुई. जब ऐसा लग रहा था कि उन्होंने अपनी बीमारी पर काबू पा लिया है. वह ज़िंदगी की जंग जीत गए हैं, कि अचानक 29 अप्रैल, 2020 को उनकी मौत की ख़बर ने सभी को चौंका दिया. 

इरफ़ान ख़ान आज भले ही जिस्मानी तौर पर हमसे जुदा हो गए हों, लेकिन अपनी लासानी अदाकारी से वह अपने चाहने वालों के दिलों और ज़ेहन में हमेशा ज़िंदा रहेंगे.