Researchers identify physiological indicators to predict test anxiety in students
आवाज द वॉयस/नई दिल्ली
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), मद्रास के शोधकर्ताओं ने मापने योग्य शारीरिक संकेतकों की पहचान की है, जो परीक्षा के बारे में अधिक चिंता करने वाले छात्रों की पहचान करने में मदद कर सकते हैं। इससे नये और लक्षित हस्तक्षेपों का मार्ग प्रशस्त होगा, जो शैक्षिक प्रणालियों में तनाव और प्रदर्शन के प्रति दृष्टिकोण में क्रांतिकारी बदलाव ला सकते हैं। अधिकारियों ने यह जानकारी दी।
यह अध्ययन बिहेवियरल ब्रेन रिसर्च में प्रकाशित हुआ है, जो एक अंतरराष्ट्रीय पत्रिका है। यह मनुष्यों और जानवरों में व्यवहार और संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं के तंत्रिका-जैविक आधार पर अध्ययन प्रकाशित करती है।
यह अध्ययन इस बात को रेखांकित करता है कि परीक्षा के दौरान चिंता से जूझने वाले छात्रों में मस्तिष्क और हृदय किस प्रकार अलग-अलग तरीके से परस्पर क्रिया करते हैं तथा प्रारंभिक पहचान और व्यक्तिगत रूप से इससे निपटने की रणनीतियों के लिए एक वैज्ञानिक आधार प्रदान करता है।
राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी, 2022) के अनुसार, परीक्षा की चिंता अनुमानित 81 प्रतिशत भारतीय छात्रों को प्रभावित करती है, जिससे अक्सर शैक्षणिक प्रदर्शन और दीर्घकालिक मानसिक स्वास्थ्य पर असर पड़ता है। जहां कुछ छात्र दबाव में अच्छा प्रदर्शन कर लेते हैं, वहीं, कुछ छात्र टालमटोल करने लगते हैं और प्रभावी ढंग से सामना नहीं कर पाते।
आईआईटी मद्रास के इंजीनियरिंग डिज़ाइन विभाग के वेंकटेश बालसुब्रमण्यन के अनुसार, शोध दल ने यह समझने की कोशिश की कि ऐसा क्यों होता है और उन्होंने वस्तुनिष्ठ, शारीरिक आंकड़ों पर ध्यान केंद्रित किया।
उन्होंने ‘पीटीआई-भाषा’ को बताया, ‘‘यह पता चला है कि तनाव के दौरान जब मस्तिष्क–हृदय संचार नेटवर्क बाधित होता है, तो कुछ छात्र अधिक चिंता और परहेजी व्यवहार प्रदर्शित करते हैं। यह अध्ययन अनुकूल (एडैप्टिव) और प्रतिकूल (मैलएडैप्टिव) परीक्षा-प्रतिक्रियाओं के बीच एक स्पष्ट जैविक अंतर को उजागर करता है।’’
बालसुब्रमण्यन ने बताया कि टीम ने पाया कि लोगों में तनाव के दौरान हृदय स्पंदन अनियमित था, जिसका अर्थ है कि उनकी चिंता की प्रवृत्ति मूल्यांकनात्मक परिवेश में हृदय के संतुलित रहने की क्षमता को प्रभावित कर सकती थी।
उन्होंने कहा, ‘‘यह सूक्ष्म समझ अकादमिक तनाव को देखने के हमारे नज़रिए को बदल देती है—एक विशुद्ध मनोवैज्ञानिक मुद्दे के रूप में नहीं, बल्कि माप करने योग्य शारीरिक अंतःक्रियाओं पर आधारित एक मुद्दे के रूप में।’’