जब मुग़ल राखी के बंधन से बंधे और अपनी हिंदू बहन की हिफ़ाज़त की

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 23-08-2021
हुमायूं और कर्णावती
हुमायूं और कर्णावती

 

ज़ाहिद ख़ान

रक्षाबंधन, भाई-बहन के पाकीज़ा रिश्ते से जुड़ा एक अहम त्योहार है. जिसमें बहन अपने भाई की कलाई पर राखी बांधकर, उसकी लंबी उम्र की दुआएं करती है, तो भाई भी अपनी बहन की हर मौके पर हिफ़ाज़त और उसकी मदद का क़ौल (वचन) लेता है.

यह एक ऐसा त्योहार है, जिसमें मज़हब और जाति की कोई दीवार आड़े नहीं आती. आपसी मरासिम (संबंध) और जज़्बात अहम होते हैं. हमारे मुल्क में सदियों से ये त्योहार मनाया जाता रहा है. इस त्योहार से जुड़े हुए कई किस्से प्रचलित हैं. इन किस्सों से हिंदू-मुस्लिम समुदाय की एकता और उनके बीच भाईचारे, सद्भावना का परिचय मिलता है. मुग़ल इतिहास को पढ़ें, तो उसमें भी रक्षाबंधन त्योहार से जुड़े कई किस्से दर्ज हैं. ऐसा ही एक अहम किस्सा, मुग़ल बादशाह हुमायूं और चित्तौड़गढ़ की बहादुर राजपूत रानी कर्णावती का है. जब गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने चित्तौड़गढ़ पर हमला किया, तो वहां के राजा दिवंगत संग्राम सिंह की सबसे छोटी पत्नी रानी कर्णावती ने मुग़ल बादशाह हुमायूं को राखी भेजकर, उनसे मदद की गुहार की. हुमायूं अपने जानिब रानी के इस यकीन के जज़्बे से बेहद मुतासिर हुआ. वह उस वक्त बंगाल में एक जंग में मशगूल था.

उसने रानी की इस इल्तिजा (विनती) पर फ़ौरन ध्यान दिया और अपनी सेना के साथ चित्तौड़गढ़ की ओर रवाना हो गया. हुमायूं की सेना जब तक चित्तौड़गढ़ पहुंची, युद्ध के मैदान में कर्णावती की शिकस्त हो गई थी. बहादुरशाह की वहशी सेना से बचने के लिए रानी कर्णावती ने अनेक औरतों के साथ अपनी अस्मत बचाने के लिए जौहर कर लिया. हुमायूं चित्तौड़गढ़ पहुंचा, तो उसे इस बात का बड़ा अफ़सोस हुआ और उसकी सेना ने पूरी दम से जंग के मैदान में मोर्चा संभाला.

ज़ाहिर है कि इस जंग में फ़तह का सेहरा हुमायूं की सेना के सिर बंधा. चित्तौड़गढ़ से उन्होंने बहादुरशाह की फ़ौजों को खदेड़कर, राजपूतों की सत्ता दोबारा बहाल कर दी. इस वाकिए के बाद हुमायूं के उत्तराधिकारियों ने भी कर्णावती की इस राखी का हमेशा सम्मान किया. राखी को जतन से संभालकर रखा. यहां तक कि मुग़ल मलिका नूरजहां बाद में इस राखी को शाही परिवार से जुड़े दीगर लोगों को बड़े ही इज़्ज़त और एहतिराम से दिखलाया करती थीं.

मुग़ल बादशाह अकबर के दौर में भी सभी हिंदू त्योहार बिना किसी भेदभाव के जबर्दस्त उल्लास और उमंग के साथ मनाए जाते थे. यहां तक कि रक्षाबंधन के दिन दरबार के उच्च पदों पर बैठे लोग शहंशाह की कलाई पर राखी का रेशमी धागा बांधा करते थे. अकबर के बाद आने वाले मुगल बादशाहों ने अपने राज में यह रिवायत जारी रखी. रक्षाबंधन से जुड़ा एक और किस्सा है. मुग़ल बादशाह शाहआलम ने भी एक हिंदू औरत को अपनी बहन बनाया था.

शाहआलम उस औरत से काफी मुतासिर (प्रभावित) था. वजह, शाहआलम के वालिद आलमगीर की जब जंग के मैदान में मौत हो गई, तब इस औरत ने उनकी लाश की सारी रात जागकर हिफ़ाज़त की थी. शाहआलम, उस औरत की इस वफ़ादारी और तीमारदारी से काफी प्रभावित हुआ. शाहआलम ने बाकायदा उस औरत को पहले दरबार-ए-आम में बुलाया और उसे बहन कहकर नवाज़ा. शाहआलम की यह मुंहबोली बहन हर साल रक्षाबंधन और भैया दूज के दिन दरबार आती और शाहआलम की कलाई पर मोतियों से जड़ी रेशमी राखी बांधती. शाहआलम, अपनी इस बहन को तोहफ़ों से नवाज़ते. शाहआलम की मौत के बाद, उनके उत्तराधिकारी अकबर शाह और बहादुरशाह ज़फ़र ने भी उस औरत से आखि़र तक भाई का रिश्ता क़ायम रखा.

वे राखी के मौके पर उसे नवाज़ने के अलावा महंगे तोहफे भी देते और उसका एहतिराम करते. हिंदू-मुस्लिम भाई-बहनों के बीच राखी का यह त्योहार आज भी बड़े सौहार्द से मनाया जाता है. हर साल रक्षाबंधन के दिन मीडिया में ऐसे किस्से ज़रूर जगह पाते हैं, जिसमें धर्म की पाबंदियों की परवाह किए बिना हिंदू बहन अपने मुस्लिम भाई को, तो मुस्लिम बहन अपने हिंदू भाई को राखी बांधकर, उसकी लंबी उम्र की दुआ करती है. यही हिंदुस्तान का असली चेहरा है, जो सदियों से एक-दूसरे समुदाय को प्यार और भाईचारे से जोड़े हुए है.