जब श्री शारदा पीठ के शंकराचार्य ने किया था फतवे का समर्थन और प्रचार

Story by  मुकुंद मिश्रा | Published by  [email protected] | Date 06-03-2021
खिलाफत आंदोलन के दौरान जेल में मौलाना शौकत अली, मोहम्मद अली, शंकराचार्य और किचलू
खिलाफत आंदोलन के दौरान जेल में मौलाना शौकत अली, मोहम्मद अली, शंकराचार्य और किचलू

 

साकिब सलीम

बात 25 दिसंबर, 1921 की है. कराची के डिप्टी सुपरिटेंडेंट ऑफ पुलिस (डीएसपी) जमानशाह महबूब शाह ने शंकराचार्य के लिए उनके पदनाम की बजाए अवमाननापूर्ण तरीके से उनके नाम वेंटकरमण कहकर पुकारा था और तब खिलाफत आंदोलन और असहयोग आंदोलन के कद्दावर नेता मौलाना मोहम्मद अली जौहर ने सिंध के कमिश्नर बीसी केनेडी के सामने अपनी मुखालफत दर्ज कराई थी. उन्होंने कहा था, “मैं इस बात की कत्तई परवाह नहीं करता कि कि मैं और मेरा भाई (मौलाना शौकत अली) मौलाना कहे जाएं या नहीं. इसकी अहमियत हमारे लिए बेहद कम है... निजी तौर पर मैं इसका विरोध नहीं करूंगा... लेकिन मैं शंकराचार्य की तरफ से अवश्य बोलूंगा. शंकराचार्य के स्तर के अनुरूप ही उन्हें पुकारा जाना चाहिए.”

यह मौका था, जब कराची के खालिकदीना हॉल में ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ मुस्लिम सिपाहियों को भड़काने और युद्ध छेड़ने के आरोप में सात आरोपियों पर मुकदमा चल रहा था. ब्रितानी हुकूमत ने मौलाना हुसैन अहमद मदनी, पीर गुलाम मुजाहिदीन और मौलाना निसार अहमद के खिलाफ एक फतवा जारी करने के एवज में मुकदमा चलाया था. इस फतवे में ब्रिटिश फौज में काम करने के हराम बताया गया था. दिलचस्प है कि बाकी के चार लोगों पर इस फतवे को लोकप्रिय बनाने और इसे मंजूरी देने के आरोप थे और उनमें से एक थे श्री शारदा पीठ के जगद्गुरु शंकराचार्य.

शंकराचार्य ने इस फतवे और खिलाफत आंदोलन के समर्थन में कहा था, “सभी के लिए स्वधर्म के सिद्धांत पर विश्वास करने वाले व्यक्ति के तौर पर, हर हिंदू को खिलाफत के पक्ष में आगे आना चाहिए.” बाद में उन्होंने लिखा, “कराची में हम सात के खिलाफ चलाया गया मुकदमा इंसानों के कानूनों पर ईश्वरीय कानून को ऊपर रखने के लिए था. और यह भारत के कठिन संघर्ष में एक मोड़ साबित होगा. भारत की (ब्रिटिश) सरकार और प्रांतीय सरकारों को ने आखिरकार अपना छद्म उतार फेंका है और इसने ईश्वर और उनकी आस्था, जिसे सभी भारतीय—हिंदू, मुस्लिम, सिख, पारसी और ईसाई—बेहिचक मानते हैं.”

दूसरी तरफ, जब मजिस्ट्रेट ने शंकराचार्य को खड़े होकर अपना बयान दर्ज कराने को कहा तो मोहम्मद अली खड़े हुए और उन्होंने मजिस्ट्रेट से कहा कि एक संन्यासी होने की वजह से, शंकराचार्य अपने गुरु के सिवाए किसी के सामने खड़े नहीं हो सकते. मजिस्ट्रेट ने उनका बयान रिकॉर्ड नहीं किया और शंकराचार्य भी खड़े नहीं हुए.

अदालत की कार्यवाही से पता चलता है कि ब्रिटिश मानते थे कि खिलाफत आंदोलन भारत में राष्ट्रवादी गतिविधियों को छिपाने की एक तरीका था. हालांकि, इसमें सीधे तौर पर धार्मिक शब्दावलियों का इस्तेमाल किया जाता था लेकिन इसका राष्ट्रवादी उद्देश्य स्पष्ट था.

ब्रिटिश हिंदू-मुस्लिम एकता को तोड़ना चाहते थे और इसी मकसद के लिए उन्होंने पहले शंकराचार्य के साथ बदतमीजी की और उन्हें बैठकर बयान रिकॉर्ड करवाने की इजाजत नहीं दी. साथ ही, उन्हें उनके मुस्लिम साथियों—अली बंधुओं, सैफुद्दीन किचलू, हुसैन अहमद, निसार अहमद, पीर गुलाम—की तरह उनके पदनाम से भी नहीं बुलाया गया. लेकिन इस कोशिश का उनके सभी साथियों में विरोध किया और खासतौर पर मोहम्मद अली ने इसकी मुखालफत की और शंकराचार्य के साथ ही वे लोग भी जमीन पर, बगैर कुर्सियों के बैठे.

इसके बाद अदालत ने शंकराचार्य को रिहा कर दिया पर बाकी छह लोगों पर मुकदमे चलते रहे. शंकराचार्य ने इसका विरोध किया और लिखा कि वह इस आंदोलन के पूरी तरह समर्थन में हैं. मोहम्मद अली ने अदालत में कहा कि शंकराचार्य उनके साथी हैं और ब्रिटिश उनके बीच खाई पैदा नहीं कर  सकते.

हालांकि, शंकराचार्य को सभी आरोपों से मुक्त कर दिया गया और अन्य छह लोगों को दो साल की सजा दी गई. भारतीय राष्ट्रवादियों ने इसे हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच अलगाव पैदा करने की कोशिश ही बताई.

(लेखक इतिहासकार हैं)