शायर मजाज़ के जन्मदिवस पर विशेष : तेरे माथे पे ये आंचल बहुत ही खू़ब है लेकिन...

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] | Date 19-10-2022
शायर मजाज़ के जन्मदिवस पर विशेष :  तेरे माथे पे ये आंचल बहुत ही खू़ब है लेकिन...
शायर मजाज़ के जन्मदिवस पर विशेष : तेरे माथे पे ये आंचल बहुत ही खू़ब है लेकिन...

 

ज़ाहिद ख़ान

मजाज़ में ग़ज़ब का सेंस ऑफ़ ह्यूमर था। वे तुर्की-व-तुर्की जवाब देते थे.एक मर्तबा जोश ने मजाज़ को समझाने की गरज़ से कहा, ‘‘शराब पीने में सब्र बरतना चाहिए.मुझे देखो मैं अपने सामने घड़ी रखकर पीता हूं.’’ इस बात पर मजाज़ का फ़ौरन जवाब था, ‘‘अगर मेरा बस चले तो घड़ी नहीं, घड़ा रखकर पीयूं.’’

 एक बार वे अल्लामा इक़बाल से मिलकर लौटे, तो दोस्तों ने मुलाक़ात के बारे में जब पूछा तो उनका कहना था, ‘‘इक़बाल और मुझमें कोई ख़ास फर्क नहीं.वह हां जी, हां जी करते रहे और मैं जी हां, जी हां !’’ वामपंथी विचारधारा में यक़ीन रखते थे, लेकिन सच बात को सच कहने का माद्दा भी उनमें था.

एक मर्तबा अपने दोस्त से बातचीत में हंसकर बोले, ‘‘इंक़लाब तो आना चाहता है, ये कम्युनिस्ट उसे आने नहीं देते.’’ इतने ज़िंदादिल, हंसमुख शायर और फ़िलोसोफ़र की ज़ाती ज़िंदगी कोई ज़्यादा अच्छी नहीं रही.इश्क़ में लगातार नाकामियां और जे़हनी परेशानियों की वजह से मजाज़ पर कई बार नर्वस ब्रेक डाउन का हमला हुआ.जिसके चलते वे अस्पताल और पागलखाने तक पहुंचे.

घर वालों और दोस्तों की देखभाल से वे हर बार ठीक भी हुए.लेकिन वे अपनी ज़िंदगी को ज़्यादा लंबे समय तक महफ़ूज नहीं रख पाए.5 दिसम्बर, 1955 को महज़ 44 साल की छोटी उम्र में मजाज़ इस बेदर्द दुनिया को हमेशा के लिए छोड़कर चले गए.मजाज़ को बहुत कम उम्र मिली.

यदि उन्हें और उम्र मिलती, तो वे क्या हो सकते थे ?, इसके बारे में शायर-ए-इंक़लाब जोश मलीहाबादी ने अपनी आत्मकथा ‘यादों की बरात’ में लिखा है, ‘‘बेहद अफ़सोस है कि मैं यह लिखने को ज़िंदा हूं कि मजाज़ मर गया.यह कोई मुझसे पूछे कि मजाज़ क्या था और क्या हो सकता था.

मरते वक्त तक उसका महज़ एक चौथाई दिमाग ही खुलने पाया था और उसका सारा कलाम उस एक चौथाई ख़ुले दिमाग की खुलावट का करिश्मा है.अगर वह बुढ़ापे की उम्र तक आता, तो अपने दौर का सबसे बड़ा शायर होता.’’

बहरहाल, मजाज़ बड़े शायर तो थे ही और अपनी शायरी से कम अरसे में ही वे तालीमयाफ़्ता नौजवानों, उनमें भी ख़ास तौर पर लड़कियों के महबूब शायर बन गए थे.मजाज़ जिस दौर में लिख रहे थे, उस दौर में फै़ज़ अहमद फ़ै़ज़, अली सरदार जाफ़री, मख़्दूम, जज़्बी आदि भी अपनी शायरी से पूरे मुल्क में धूम मचाए हुए थे.लेकिन वे इन शायरों में सबसे ज्यादा मक़बूल और दिलपसंद थे.

मजाज़ की गैर मामूली शोहरत के बारे में मशहूर अफ़साना निगार इस्मत चुग़ताई ने लिखा है, ‘‘जब उनकी क़िताब ‘आहंग’ प्रकाशित हुई, तो गर्ल्स कॉलेज की लड़कियां इसे अपने सरहाने तकियों में छिपाकर रखतीं और आपस में बैठकर पर्चियां निकालती थीं कि हम में से किसको मजाज़ अपनी दुल्हन बनाएगा.’’

मजाज़ की ज़िंदगानी में उनकी नज़्मों का सिर्फ़ एक मजमुआ ‘आहंग’ (साल 1938) छपा, जो बाद में ‘शबाताब’ और ‘साजे-नौ’ के नाम से भी शाया हुआ.‘आहंग’ में मजाज़ की तक़रीबन 60नज़्में शामिल हैं और सभी नज़्में एक से बढ़कर एक.‘‘मुझ से मत पूछ ’’मिरे हुस्न में क्या रक्खा है’’/आँख से पर्दा-ए-ज़ुल्मात उठा रक्खा है/.....मुझ से मत पूछ ’’तिरे इश्क़ में क्या रक्खा है’’/सोज़ को साज़ के पर्दे में छुपा रक्खा है.’’

लखनऊ के एक पुराने कस्बे रुदौली में 19अक्टूबर, 1911को असरार-उल-हक़ यानी मजाज़ की पैदाइश हुई.उनकी शुरुआती तालीम लखनऊ में ही हुई। उसके बाद उन्होंने आगरा के सेंट जॉन्स कॉलेज में दाखिला ले लिया.

आगरा में उस्ताद शायर फ़ानी बदायूंनी, अहसन मारहरवी और मैक़श अकबराबादी की शायराना संगत मिली.या यूं कहें इन उस्ताद शायरों की शार्गिदी में वे शायरी का हुनर सीखे.मजाज़ ने अपनी इब्तिदाई शायरी में उनसे ज़रूरी इस्लाह ली.

सच बात तो यह है कि फ़ानी बदायूंनी ने ही उन्हें ‘मजाज़’ का तख़ल्लुस दिया.कॉलेज में जज़्बी और आले अहमद सुरूर उनके दोस्त थे.ज़ाहिर है इस माहौल में मजाज़ के अंदर भी शायरी की ज़ानिब मोहब्बत जागी.अदबी महफ़िलों में शिरकत करने के साथ-साथ वे भी शे’रगोई करने लगे.

दीगर शायरों की तरह मजाज़ की शायराना ज़िंदगी की इब्तिदा, ग़ज़लगोई से हुई.शुरुआत भी लाजवाब, ‘‘तस्कीन-ए-दिल-ए-महज़ूँ न हुई वो सई-ए-करम फ़रमा भी गए/इस सई-ए-करम को क्या कहिए बहला भी गए तड़पा भी गए/इस महफ़िल-ए-कैफ़-ओ-मस्ती में इस अंजुमन-ए-इरफ़ानी में/सब जाम-ब-कफ़ बैठे ही रहे, हम पी भी गए छलका भी गए.’’ लेकिन चंद ही ग़ज़लें कहने के बाद, मजाज़ नज़्म के मैदान में आ गए.

आगे चलकर नज़्मों को ही उन्होंने अपने राजनीतिक सरोकारों की अभिव्यक्ति का वसीला बनाया.अलबत्ता बीच-बीच में वे ज़रूर ग़ज़ल लिखते रहे.‘‘कुछ तुझ को ख़बर है हम क्या क्या ऐ शोरिश-ए-दौराँ भूल गए/वो ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ भूल गए, वो दीदा-ए-गिर्यां भूल गए.’’

अपनी शायरी से थोड़े से ही अरसे में मजाज़ नौजवानों दिलों की धड़कन बन गए.उनके शे’र, हर एक की ज़बान पर आ गए.ऐसे ही उनके ना भुलाए जाने वाले कुछ मशहूर शे’र हैं, ‘‘जो हो सके, हमें पामाल करके आगे बढ़/न हो सके, तो हमारा जवाब पैदा कर.’’, ‘‘सब का मदावा कर डाला, अपना ही मदावा कर न सके/सबके तो ग़रीबां सी डाले अपना ही ग़िरेबां भूल गए.’’

‘आवारा’ वह नज़्म है, जिसने मजाज़ को एक नई पहचान दी.मजाज़ का दौर मुल्क की आज़ादी की जद्दोजहद का दौर था.बरतानवी हुकूमत की साम्राज्यवादी नीतियों और सामंतवादी निजाम से मुल्क में रहने वाला हर बाशिंदा परेशान था.

‘आवारा’ पूरी एक नस्ल की बेचैनी की नज़्म बन गई.नौजवानों को लगा कि कोई तो है, जिसने अपनी नज़्म में उनके ख़यालों की अक्काशी की है.‘आवारा’ नज़्म पर यदि ग़ौर करें, तो इस नज़्म की इमेजरी और काव्यात्मकता दोनों रूमानी है, लेकिन उसमें एहतेजाज़ और बगावत के सुर भी हैं.

यही वजह है कि वे नौजवानों की पंसदीदा नज़्म बन गई.आज भी यह नज़्म नौजवानों को अपनी ओर, उसी तरह आकर्षित करती है.‘‘शहर की रात और मैं नाशादो-नाकारा फिरूं/जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूं/गै़र की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूं/ए-ग़मे-दिल क्या करूं ऐ वहशते-दिल क्या करूं.’’

‘आवारा’ पर उस दौर की नई पीढ़ी ही अकेले फ़िदा नहीं थी, मजाज़ के साथी शायर भी इस नज़्म की तारीफ़ करने से अपने आप को नहीं रोक पाए.उनके जिगरी दोस्त अली सरदार जाफ़री ने लिखा है, ‘‘यह नज़्म नौजवानों का ऐलाननामा थी और आवारा का क़िरदार उर्दू शायरी में बग़ावत और आज़ादी का पैकर बनकर उभर आया है.’’ इस नज़्म के अलावा मजाज़ की ‘शहरे-निग़ार’, ‘एतराफ़’ वगैरह नज़्मों का भी कोई जवाब नहीं.

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, मजाज़ की ‘ख़वाबे सहर’ और ‘नौजवान ख़ातून से खि़ताब’ नज़्मों को सबसे मुक़म्मिल और सबसे कामयाब तरक़्क़ीपसंद नज़्मों में से एक मानते थे.फ़ैज़ की इस बात से फिर भला कौन नाइत्तेफ़ाकी जतला सकता है.

‘नौजवान ख़ातून से खि़ताब’ नज़्म, है भी वाक़ई ऐसी, ‘‘हिजाब-ए-फ़ित्ना-परवर अब उठा लेती तो अच्छा था/ख़ु़द अपने हुस्न को पर्दा बना लेती तो अच्छा था/.....दिल-ए-मजरूह को मजरूह-तर करने से क्या हासिल/तू आँसू पोंछ कर अब मुस्कुरा लेती तो अच्छा था/.....तेरे माथे पे ये आंचल बहुत ही खूब है,लेकिन/तू इस आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था.’’

इस नज़्म में साफ़ दिखलाई देता है कि मजाज़ औरतों के हुक़ू़क़ के हामी थे और मर्द-औरत की बराबरी के पैरोकार.मर्द के मुकाबले वे औरत को कमतर नहीं समझते थे.उनकी निग़ाह में मर्दों के ही बराबर औरत का मर्तबा था.

मजाज़ शाइरे-आतिश नफ़स थे, जिन्हें कुछ लोगों ने जानबूझकर रूमानी शायर तक ही महदूद कर दिया.यह बात सच है कि मजाज़ की शायरी में रूमानियत है, लेकिन जब उसमें इंक़लाबियत और बग़ावत का मेल हुआ, तो वह एक अलग ही तर्ज की शायरी हुई.‘‘बहुत मुश्किल है दुनिया का संवरना/तिरी जुल्फ़ों का पेचो-ख़म नहीं है/ब-ई-सैले-गमो-सैले-हवादिस/मिरा सर है कि अब भी ख़म नहीं है.’’

मजाज़ ने दीगर तरक़्क़ीपसंद शायरों की तरह ग़ज़लों की बजाय नज़्में ज़्यादा लिखीं.उन्होंने शायरी में मुहब्बत के गीत गाये, तो मज़दूर-किसानों के जज़्बात को भी अपनी आवाज़ दी.मजाज़ ने अपनी नज़्मों में दकियानूसियत, सियासी गुलामी, शोषण, साम्राज्यवादी, सरमायादारी, और सामंतवादी निजाम, सियासी गुलामी के खि़लाफ़ आवाज़ उठाई। उनकी नज़्मों में हमें आज़ादख़याली, समानता और इंसानी हक़ की गूंज सुनाई देती है.‘

हमारा झंडा’, ‘इंक़लाब’, ‘सरमायेदारी’, ‘बोल अरी ओ धरती बोल’, ‘मज़दूरों का गीत’, ‘अंधेरी रात का मुसाफ़िर’, ‘नौजवान से’, ‘आहंगे-नौ’ वगैरह उनकी नज़्में इस बात की तस्दीक करती हैं.मजाज़ ने दिल्ली में ऑल इंडिया रेडियो में नौकरी की और रेडियो के रिसाले ‘आवाज़’ के सब एडीटर भी रहे.हार्डिंग लायब्रेरी में असिस्टेंट लायब्रेरियन के तौर पर काम किया.

कुछ दिन मुंबई भी रहे, जहां उस वक़्त उनके कई दोस्त काम कर रहे थे, लेकिन वे कहीं टिककर नहीं रहे.साल 1936 में मजाज़ ने अपनी नायाब नज़्म ‘नज्र-ए-अलीगढ़’ लिखी.किसी भी शायर के लिए इससे ज्यादा फ़ख्र की क्या बात होगी कि जिस यूनिवर्सिटी से वह पढ़कर निकला, उसी यूनिवर्सिटी का यह तराना, कुलगीत बन जाए.

आज भी यह नज़्म यूनिवर्सिटी में गायी जाती है.‘‘सरशार-ए-निगाह-ए-नर्गिस हूँ पा-बस्ता-ए-गेसू-ए-सुम्बुल हूँ/ये मेरा चमन है मेरा चमन मैं अपने चमन का बुलबुल हूँ.’’ प्रोफेसर मोहम्मद हसन ने मजाज़ की ज़िंदगी और उनके पूरे दौर पर एक शानदार नावेल ‘ग़मे-दिल वहशते-दिल’ लिखा है.नावेल, जीवनीपरक है.