‘रामायण’ प्रसिद्ध रामानंद सागर उर्दू के भी बड़े लेखक थे

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  [email protected] | Date 01-01-2023
‘रामायण’ प्रसिद्ध रामानंद सागर उर्दू के भी बड़े लेखक थे
‘रामायण’ प्रसिद्ध रामानंद सागर उर्दू के भी बड़े लेखक थे

 

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साकिब सलीम

ख्वाजा अहमद अब्बास ने रामानंद सागर के एक प्रशंसित और प्रसिद्ध उर्दू उपन्यास ‘और इंसान मर गया’ की प्रस्तावना में लिखा था, ‘‘सौभाग्य से या दुर्भाग्य से, रामानंद सागर किसी भी राजनीतिक दल के सदस्य नहीं हैं. वह इंसानों की पार्टी से ताल्लुक रखते हैं. उन्हें उन उच्च कोटि के कलाकारों में स्थान दिया गया है, जो मानवता का ध्वज लेकर चल रहे हैं.’’

रामानंद सागर को उनकी महान कृति टेलीविजन धारावाहिक ‘रामायण’ के लिए जाना जाता है. टीवी धारावाहिक 1987 में उनके द्वारा लिखा, निर्मित और निर्देशित किया गया था, जिसने देश में तूफान ला दिया था. भारत में लोग ज्यादातर उन्हें एक फिल्म निर्माता के रूप में जानते हैं,जिन्होंने आरजू, घूँघट, जिंदगी और आंखें जैसी क्लासिक फिल्मों का निर्माण और निर्देशन किया था. वह सिनेमा और टीवी के इतने दीवाने थे कि हम अक्सर इस तथ्य को नजरअंदाज कर देते हैं कि वह अपने समय के सबसे प्रमुख उर्दू लेखकों में से एक थे.

सागर फारसी और उर्दू के बहुत पढ़े-लिखे विद्वान थे. उनके बेटे, प्रेम सागर लिखते हैं, ‘‘1942 में, (उन्हें) पंजाब विश्वविद्यालय द्वारा मुंशी फजल (फारसी में पीएचडी) की प्रतिष्ठित उपाधि से सम्मानित किया गया था. उन्होंने दो स्वर्ण पदक जीते और उर्दू और फारसी के लिए उच्चतम डिग्री परीक्षाओं में शीर्ष स्थान हासिल किया और उन्हें ‘अदीब-ए-आलम’ की उपाधि से सम्मानित किया गया.

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सागर ने लाहौर से प्रकाशित होने वाले एक उर्दू दैनिक मिलाप के लिए एक पत्रकार के रूप में अपना करियर शुरू किया और इसके संपादक बने. 1941 में, उन्हें क्षय रोग (टीबी) के कारण कश्मीर के एक अस्पताल में भर्ती कराया गया था. उन दिनों टीबी एक घातक बीमारी थी और डॉक्टरों का मानना था कि सागर नहीं बचेंगे, लेकिन ‘एक आदमी को हराया नहीं जा सकता.’

सागर ने सेनिटोरियम में अपने अनुभवों को लिखना शुरू किया. प्रेम लिखते हैं, ‘‘उन्होंने लाहौर में 1940 के दशक की एक प्रसिद्ध उर्दू साहित्यिक पत्रिका अदब-ए-मशरिक को ‘मौत के बिस्तर से’ या ‘डायरी ऑफ ए टीबी पेशेंट’ शीर्षक से अपना लेखन भेजना शुरू किया. पत्रिका के संपादक को उनके लेखन और दूसरों को जीने का रास्ता दिखाने वाले एक अस्पताल में मृत्यु के लिए नियत एक व्यक्ति के विरोधाभास से गहरा धक्का लगा. श्रृंखला बहुत लोकप्रिय हुई और जब सागर ने अस्पताल छोड़ा, तब तक वह एक स्थापित उर्दू लेखक बने चुके थे.

विपत्तियाँ, पीड़ा और दुःख महान साहित्यिक कृतियों को प्रेरित करते हैं. भारत के विभाजन ने सागर की आत्मा को आंदोलित कर दिया. उन्हें लाहौर में अपना घर छोड़ने और श्रीनगर में शरण लेने के लिए मजबूर होना पड़ा. उन्होंने इंसानों का सबसे बुरा चेहरा देखा था. वह समाज को बताना चाहते थे कि नफरत किसी को अछूता नहीं छोड़ेगी. ‘और इंसान मर गया’ ने उनके दिल में जन्म लिया, जो त्रासदी पर लिखा गया सबसे प्रशंसित उर्दू उपन्यास बन गया.

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सागर अपने परिवार के साथ श्रीनगर में शरणार्थी के रूप में रह रहे थे. जब 27 अक्टूबर, 1947 को हकीकत सामने आई कि जब पाकिस्तान के कश्मीर पर आक्रमण के बाद उन्हें एक बार फिर शरणार्थी बनना पड़ा.

डकोटा डीसी-3 को फंसे हुए नागरिकों को निकालने के लिए तैनात किया गया था. लोगों से सामान नहीं ले जाने को कहा गया, ताकि विमान में और लोगों को बैठाया जा सके. बीजू पटनायक पायलट थे और उन्होंने एक आदमी को देखा, जिसके सिर पर एक संदूक थी. क्रुद्ध पटनायक चिल्लाए, ‘‘तुम एक लालची आदमी हो! एक इंसान की कीमत पर अपनी दौलत अपने साथ ले जाना’’ और लात मारकर ट्रंक खोल दिया. संदूक हस्तलिखित लिपियों से भरा था. वह आदमी सागर था, जो अब आंसू बहा रहा था, उन्होंने कहा, ‘‘ये मेरे उपन्यास ‘और इंसान मर गया’, मेरी कुचली हुई भावनाओं, युद्ध की निरर्थकता और शांति की आवश्यकता के बारे में मेरी भावनाओं के नोट्स हैं. यह एकमात्र धन है, जो मैं अपने साथ ले जा रहा हूँ!’’ पटनायक ने तुरंत उन्हें एक प्रसिद्ध लेखक के रूप में पहचान लिया और उनके पैर छुए और उनका परिवार सकुशल दिल्ली पहुंच गया.

सागर कुर्सी पर बैठे बुद्धिजीवी नहीं थे. कश्मीर पर आक्रमण किया जा रहा था. लोग मारे जा रहे थे. महिलाओं के साथ बलात्कार हो रहे थे. वह दिल्ली में बैठकर कैसे लिख सकते थे. उन्होंने अपने परिवार को दिल्ली के एक मुस्लिम इलाके में मुस्लिम दोस्तों की हिरासत में छोड़ दिया और वापस कश्मीर चले गए. कल्पना कीजिए, कुछ महीने पहले सांप्रदायिक हिंसा से लाहौर से उखड़ा हुआ एक व्यक्ति अपने परिवार के लिए अपने मुस्लिम दोस्तों पर भरोसा कर रहा था.

सागर अकेले नहीं थे. उस समय के कई अन्य साहित्यकार कश्मीर में उनके साथ शामिल हुए. ख्वाजा अहमद अब्बास, राजिंदर सिंह बेदी, चंद्रकिरण सोनरेक्स, नवतेज सिंह, शेर सिंह, राजबंस खन्ना कुछ प्रमुख लेखक थे, जो युद्ध के मोर्चे पर पहुंचे थे. अब्बास ने याद किया, ‘‘माहौल ने स्पेन और अंतर्राष्ट्रीय ब्रिगेड की याद दिला दी, जहां यह कहा गया था कि लेखक अपनी किताबों को जीने के लिए आते हैं और कवि अपनी कविता के लिए मरने आते हैं.’’

‘और इंसान मार गया’ इस युद्ध के मोर्चे पर पूरा हुआ. अब्बास ने सागर के बारे में बताया, ‘‘जब मैं कमरे में दाखिल हुआ तो कोई कहानी पढ़ रहा था, वो थे रामानंद सागर. स्वाद के एक रोमांटिक आदमी, रामानंद सागर. वह कुछ दिनों पहले अपने परिवार के साथ एक कंगाल शरणार्थी के रूप में दिल्ली पहुंचे थे. और, वह तुरंत अपनी पत्नी और बच्चों को वहीं छोड़कर युद्ध के मोर्चे पर वापस लौट गए. वह अपने उपन्यास का पहला अध्याय पढ़ रहे थे... वह उपन्यास सुन रहे थे और मेरे लिए वह आशा और मानवता के प्रकाश का साकार रूप था. वो रोशनी की वो नन्ही सी किरण थी, जो अँधेरे में रास्ता दिखाती है. अब कोई अँधेरा नहीं था, क्योंकि मुझे रोशनी का एक मोती मिल गया था.’’

सागर ने ‘और इंसान मार गया’ का वर्णन करते हुए कहा, ‘‘प्यार उतना मजबूत नहीं है, जितनी नफरत है. मैं इस उपन्यास के माध्यम से आप में नफरत जगाना चाहता हूं. ताकि आपकी भावनाएं मजबूत और दृढ़ हों.. अगर आप इन हत्याओं, बलात्कारों और हिंसा को दिल की गहराई नफरत कर पाए, तो मुझे विश्वास होगा कि मैं खुद और उपन्यास सफल है.’’

प्रो इश्तियाक अहमद के विचार में, ‘‘और इंसान मर गया, विभाजन पर सबसे मानवीय और राजनीतिक रूप से तटस्थ उपन्यास होने की प्रतिष्ठा प्राप्त करता है.’’

उपन्यास को समीक्षकों ने खूब सराहा और सागर को उर्दू लेखन के दिग्गजों में से एक के रूप में स्थापित किया. एक सवाल अक्सर पूछा जाता है कि उन्होंने साहित्यिक कृतियों का निर्माण क्यों बंद कर दिया. उन्होंने फिल्मों के लिए लिखा तो था, लेकिन कहानियां और उपन्यास लिखना बंद कर दिया था. उत्तर उनके द्वारा पूर्वानुमान के रूप में दिया गया था.

जुलाई 1948 में लिखी गई ‘और इंसान मर गया’ के परिचय में सागर ने लिखा, ‘‘मेरे अंदर बहुत कुछ हैख् जो लेखन के रूप में मुझसे बाहर आना चाहता है. लेकिन, मुझे एहसास है कि आने वाले लंबे समय तक, मैं केवल साहित्यिक उद्देश्य के लिए कुछ नहीं लिख पाऊंगा. क्योंकि पेट भरने की आवश्यकता मेरी आत्मा और बुद्धि को खिलाने से ज्यादा कष्टदायक हो गई है.’’