शख्सियतः मौलाना हसरत मोहानी, वह मेंबर ऑफ पार्लियामेंट जिसने कभी वीआईपी सहूलियतें नहीं लीं

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] • 1 Years ago
बाबा आंबेडकर के साथ हसरत मोहानी
बाबा आंबेडकर के साथ हसरत मोहानी

 

ज़ाहिद ख़ान

मौलाना हसरत मोहानी एक ही वक़्त में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, सहाफ़ी, एडिटर, शायर, कांग्रेसी, मुस्लिमलीगी, कम्युनिस्ट थे. साल 1878 की पहली जनवरी को उन्नाव (उत्तर प्रदेश) के मोहान कस्बे में एक जागीरदार परिवार में जन्मे मौलाना हसरत मोहानी का हक़ीक़ी नाम सय्यद फ़ज़ल-उल-हसन था. मोहान कस्बे में पैदा होने की वजह से उनके नाम के पीछे मोहानी लग गया और बाद में ’हसरत मोहानी’ के नाम से ही मशहूर हो गए.

उन्नाव की डौडिया खेड़ा के राजा राव रामबक्श सिंह की शहादत का मौलाना हसरत मोहानी के दिलो दिमाग पर ऐसा असर पड़ा कि वे छात्र जीवन से ही आज़ादी के आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगे.

अपनी इंक़लाबी विचारधारा और आज़ादी के आंदोलन में हिस्सा लेने की वजह से कई बार वे कॉलेज से निष्कासित हुए, लेकिन आज़ादी के जानिब उनका जुनून और दीवानगी कम नहीं हुई. पढ़ाई पूरी करने के बाद, वे नौकरी चुनकर एक अच्छी ज़िंदगी बसर कर सकते थे, मगर उन्होंने संघर्ष का रास्ता चुना.

पत्रकारिता और क़लम की अहमियत को पहचाना और साल 1903 में अलीगढ़ से ही एक सियासी-अदबी रिसाला ’उर्दू-ए-मुअल्ला’ निकाला. जिसमें अंग्रेज़ी हुकूमत की नीतियों की कड़ी आलोचना की जाती थी. इस रिसाले में हसरत मोहानी ने हमेशा आज़ादी पसंदों के लेखों, इंक़लाबी शायरों की क्रांतिकारी ग़ज़लों-नज़्मों को तरजीह दी, जिसकी वजह से वे अंग्रेज़ सरकार की आंखों में ख़टकने लगे.

साल 1907 में अपने एक मज़मून में मौलाना हसरत मोहानी ने सरकार की तीखी आलोचना कर दी. जिसके एवज में उन्हें जेल जाना पड़ा और सज़ा, दो साल क़ैद बामशक़्क़त ! जिसमें उनसे रोज़ाना एक मन गेहूँ पिसवाया जाता था. क़ैद के हालात में ही उन्होंने अपना यह मशहूर शे’र कहा था, ‘‘है मश्क़-ए-सुख़न जारी, चक्की की मशक़्क़त भी/इक तुर्फ़ा तमाशा है शायर की तबीयत भी.’’

वैचारिक स्तर पर मौलाना हसरत मोहानी कांग्रेस के ‘गरम दल’ के ज़्यादा करीब थे. लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से उनका लगाव था. कांग्रेस के ‘नरम दल’ के लीडरों की पॉलिसियों से वे मुतमईन नहीं थे. वक्त पड़ने पर वे इन नीतियों की कांग्रेस के मंच और अपनी पत्रिका ’उर्दू-ए-मुअल्ला’ में सख़्त नुक्ताचीनी भी करते.

साल 1907 में कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में बाल गंगाधर तिलक कांग्रेस से जुदा हुए, तो वे भी उनके साथ अलग हो गए. यह बात अलग है कि बाद में वे फिर कांग्रेस के साथ हो लिए. साल 1921 में मौलाना हसरत मोहानी ने ना सिर्फ ‘इंक़लाब जिंदाबाद’ नारा दिया, बल्कि अहमदाबाद में हुए कांग्रेस सम्मलेन में ’आज़ादी ए कामिल’ यानी पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव भी रखा.

कांग्रेस की उस ऐतिहासिक बैठक में क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक़उल्ला खां के साथ-साथ कई और क्रांतिकारी भी मौजूद थे. महात्मा गांधी ने इस प्रस्ताव को मानने से इंकार कर दिया. बावजूद इसके हसरत मोहानी ‘पूर्ण स्वराज्य’ का नारा बुलंद करते रहे और आख़िकार यह प्रस्ताव, साल 1929 में पारित भी हुआ.

भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद समेत तमाम क्रांतिकारियों ने आगे चलकर मौलाना हसरत मोहानी के नारे ‘इंक़लाब जिंदाबाद’ की अहमियत समझी और देखते-देखते यह नारा आज़ादी की लड़ाई में मक़बूल हो गया. एक समय देश भर में बच्चे-बच्चे की ज़बान पर यह नारा था. अपनी क्रांतिकारी और साहसिक सरगर्मियों के लिए मौलाना हसरत मोहानी दो बार साल 1914 और 1922 में भी ज़ेल गए. लेकिन उन्होंने अपना हौसला नहीं खोया. वे जेल से वापिस आते और फिर उसी जोश और जज़्बे से अपने काम में लग जाते. अंग्रेज हुकूमत का कोई जोर-जुल्म उन पर असर नहीं डाल पाता था.

मौलाना हसरत मोहानी, फ़ारसी और अरबी ज़बान के बड़े विद्वान थे. उनके कलाम में अपना ही एक रंग है, जो सबसे जुदा है. हुस्न-ओ-इश्क में डूबी उनकी ग़ज़़लें, हमें एक अलग हसरत मोहानी से तआरुफ़ कराती हैं. मिसाल के तौर पर उनकी ग़ज़लों के कुछ अश्आर देखिए, ‘‘न सूरत कहीं शादमानी की देखी/बहुत सैर दुनिया-ए-फ़ानी की देखी.’’, ‘‘क़िस्मत-ए-शौक़ आज़मा न सके/उन से हम आँख भी मिला न सके.’’

मौलाना हसरत मोहानी की ऐसी और भी कई ग़ज़लें हैं, जो आज भी बेहद मक़बूल हैं. ख़ास तौर पर ग़ज़ल,‘‘चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है’’ तो जैसे उनकी पहचान है. मौलाना हसरत मोहानी ने अपनी ज़िंदगानी में तेरह दीवान संकलित किए और हर दीवान पर ख़ुद ही प्रस्तावना लिखी. उनके अशआर की तादाद भी तक़रीबन सात हज़ार है. जिनमें से आधे से ज़्यादा उन्होंने ज़ेल की क़ैद में लिखे हैं.

उनकी लिखी कुछ ख़ास किताबें ’कुलियात-ए-हसरत’, ’शरहे कलामे ग़ालिब’, ’नुकाते सुख़न’, ’मसुशाहदाते ज़िन्दां’ हैं. वहीं ’कुल्लियात-ए-हसरत’ में उनकी ग़ज़ल, नज़्म, मसनवी आदि सभी रचनाएं शामिल हैं.

मौलाना हसरत मोहानी की शख़्सियत से जुड़े ऐसे अनेक किस्से और हैरतअंगेज़ कारनामे हैं, जो उन्हें जंग-ए-आज़ादी के पूरे दौर और फिर आज़ाद हिंदोस्तां में उन्हें अज़ीम बनाते हैं.

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने उनके बारे में कहा था, ‘‘मुसलमान समाज के तीन रत्न हैं और मुझे लगता है कि इन तीनों में मोहानी साहब सबसे महान हैं.’’ आज़ादी के बाद भी मोहानी लगातार मुल्क की ख़िदमत करते रहे. संविधान बनाने वाली कमेटी में मौलाना हसरत मोहानी शामिल थे. संविधान सभा के मेंबर और संसद सदस्य रहते, उन्होंने कभी वीआईपी सहूलियतें नहीं लीं. यहां तक कि वे संसद से तनख़्वाह या कोई भी सरकारी सहूलियत नहीं लेते थे.

सादगी इस क़दर कि ट्रेन के थर्ड क्लास और शहर के अंदर तांगे पर सफ़र करते थे. छोटा सा मकान उनका आशियाना था. दिल्ली में जब भी संविधान सभा की बैठक में आते, तो एक मस्ज़िद में उनका क़याम होता. मौलाना हसरत मोहानी की ज़िंदगानी से जुड़ा यह एक ऐसा वाकया है, जो उनके उसूलपसंद होने को दर्शाता है.