जयंती विशेष : मिर्जा गालिब का मेवात कनेक्शन

Story by  यूनुस अल्वी | Published by  [email protected] | Date 27-12-2022
मिर्जा गालिब का मेवात कनेक्शन
मिर्जा गालिब का मेवात कनेक्शन

 

यूनुस अलवी/ नूंह (हरियाणा )

 
दिल्ली के अलावा मेवात से भी मिर्जा गालिब का नाता रहा है. हरियाणा के इस मेव मुस्लिम बहुल क्षेत्र में मिर्जा गालिब से जुड़ी अनेक दास्तान आज भी जिंदा हैं. अलग बात है कि सरकारी संस्थाएं हों या साहित्यिक संगठन मेवात को इस लिहाज से खास अहमियत नहीं देते.

देश के महान शायर मिर्जा गालिब का मूल नाम असदुल्लाह बेग खां था. उनका जन्म 27 दिसंबर 1797 को हुआ और 15 फरवरी 1869 को वह दुनिया का अलविदा कह गए. मेवात के फिरोजपुर झिरका के तत्कालीन नवाब शम्सुद्दीन से गालिब की रिश्तेदारी थी. नवाब शम्सुद्दीन की बहन उमराव बैग से मिर्जा गालिब का निकाह हुआ था.
 
 फिरोजपुर झिरका के नवाब अहमद बख्श के पिता मिर्जा आरिफ जान 18वीं शताब्दी के मध्य में भारत आए, जबकि गालिब के दादा कुकान बेग खां मध्य एशिया से यहां आए थे. अहमद बख्श की बहन गालिब के ताऊ नसरुल्लाह खां से बिहाई गई थीं.
 
गालिब ने लिखा है कि दादा की मृत्यु के बाद उनके पिता ने लखनऊ जाकर नवाब आसिफ दौला के यहां नौकरी की. वह हैदराबाद के नवाब निजाम अली खां के नौकर भी रहे. गालिब के पिता अब्दुल्लाह बेग खां की शादी मुगल सेना के एक अवकाश प्राप्त सेना नायक गुलाम हुसैन खां के परिवार में हुई. उनकी तीन संताने थीं.
 
दो पुत्र एक पुत्री. पुत्रों में सबसे बड़े हमारे मशहूर शायर मिर्जा गालिब थे. वर्ष 1802 में अब्दुल्ला बेग खां की मृत्यु के समय गालिब केवल पांच वर्ष के थे. उसके बाद गालिब का परिवार नसरूल्लाह बेग खां के संरक्षण में आगरा आ गया.
 
1803 में जब अंग्रेजों का प्रधान सेनापति लॉर्ड केक आगरा पहुंचा तो उस समय नसरूल्लाह खां वहां के किला के नायक थे. उन्हांेने अपने साले अहमद बख्श खां के कहने पर उनका कोई विरोध नहीं किया और किला लॉर्ड केक को सौंप दिया.
 
बाद में लोर्ड केक ने नसरूल्लाह बेग खां को भरतपुर के सोंक व सूसा नामक दो किले जीवन भर के लिए इनाम में दे दिए. वर्ष 1806 में एक दिन नसरुल्लाह खान की हाथी से गिरकर मौत हो गई. इस तरह नसरुल्लाह खान और गालिब का परिवार एक बार फिर बेसहारा हो गया.

उधर, 1806 तक नबाब अहमद बख्श फिरोजपुर झिरका और लोहारू भिवानी की दो छोटी रियासतों के नवाब बन चुके थे. नबाब ने इन बच्चों की देखभाल के लिए फिरोजपुर झिरका बुला लिया.
 
लॉर्ड केक से कहकर स्वर्गीय नसरूल्लाह बेग खां के परिवार के भरण पोषण के लिए 10 हजार रूपये सालाना पेंशन स्वीकृत करा ली.  किन्हीं कारणों से यह एक माह बाद ही पांच हजार रूपये कर दी गई.
 
मिर्जा गालिब और उसके भाई बहनों को इनमें से 750 रूपये सालाना हिस्सा मिलता था. आठ अक्टूबर 1827 को नबाब अहमद बख्श की भी मृत्यु हो गई. अहमद बख्श के सबसे बड़े पुत्र होने के नाते शम्शुद्दीन दोनों रियासतों के नवाब बन गए.
 
18 अक्टूबर 1835 को दिल्ली के रेजीडेंट फ्रेजर की हत्या के जुर्म में नवाब शम्सुद्दीन को फांसी दे दी गई थी. उसके बाद मिर्जा गालिब को मिलने वाली पेंशन हमेशा के लिए बंद कर दी गई. कहते हैं जब इंसान पर मुसीबतों का पहाड़ टूटता है तो वह सोच फिकर में डूब जाता है.
 
उस दौरान उसके दिल से निकलने वाले अलफाज एक हीरा बनकर निकलते हैं उन्हें पिरोने के बाद एक लड़ी बन जाती है. इस तरह हमारे महान शायर मिर्जा गालिब के उन गमों के दौरान लिखे गए अलफाज शेर बनते चले गए और यही शेर उन्हें दुनिया में मशहूर शायर बना गए.
 
जानकार कहते हैं कि मिर्जा गालिब कई बार फिरोजपुर झिरका आ चुके हैं, पर इसकी निशानी के तौर पर यहां अब कुछ नहीं. किसी ने इस बचाकर रखने की पहल नहीं की और न ही गालिब का मेवात और हरियाणा से कोई रिश्ता रहा, इसे जाहिर करने का यहां अब तक कोई प्रयास किया गया है.