मथुरा वालों की हवेली: संगीत का 100 साल पुराना गुरुकुल, जहां हर ईंट में गूंजते हैं सुर

Story by  फरहान इसराइली | Published by  [email protected] | Date 25-08-2025
Mathura Walon Ki Haveli: 100 years old Gurukul of Music, where music resonates in every brick
Mathura Walon Ki Haveli: 100 years old Gurukul of Music, where music resonates in every brick

 

फ़रहान इसरायली/जयपुर

 स्थापत्य कला, किले और महलों के लिए दुनिया भर में मशहूर गुलाबी नगरी जयपुर अपनी सांस्कृतिक और कलात्मक विरासत के लिए भी उतनी ही जानी जाती है. यहां की हर गली, हर चौक, हर इमारत अपने भीतर कोई न कोई इतिहास समेटे हुए है. इन्हीं ऐतिहासिक धरोहरों के बीच घाटगेट के पास खड़ी है एक ऐसी हवेली, जिसे लोग आज भी "सुरों का गुरुकुल" कहते हैं— मथुरा वालों की हवेली.

यह हवेली सिर्फ पत्थर और गारे की इमारत नहीं, बल्कि हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत, ग़ज़ल और कव्वाली की वह प्रयोगशाला रही है, जहां से देश-दुनिया को कई बड़े फनकार मिले.

पद्मश्री से सम्मानित ग़ज़ल गायक अहमद हुसैन–मोहम्मद हुसैन, मशहूर कव्वाल साबरी ब्रदर्स, हिंदी फिल्मों में अपनी आवाज़ का जादू बिखेरने वाले सईद साबरी, अमीन–फरीद साबरी, ग़ज़ल गायक मोहम्मद वकील, रियलिटी शो विजेता अजमत हुसैन और रहमान—ये सब उसी हवेली के आंगन में बड़े हुए, जहां सुबह-शाम रियाज़ की आवाज़ गूंजा करती थी.

लेकिन आज, यह हवेली अपनी चमक खो चुकी है. कभी जहां तबले और हारमोनियम की संगत से वातावरण गूंजता था, आज वहां टूटती दीवारें, झड़ता पलस्तर और सैटेलाइट डिश से लटकी नक्काशीदार बालकनियां हैं. कभी कला और साधना का केंद्र रही यह जगह अब रोज़गार और जीवन संघर्ष का प्रतीक बन चुकी है.


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अहमद हुसैन–मोहम्मद हुसैन

इतिहास : मथुरा से जयपुर तक

करीब 200 साल पहले, मथुरा और वृंदावन के कुछ कलाकारों ने इस हवेली की नींव डाली. मशहूर कव्वाल अमीन साबरी बताते हैं,"हमारे दादा चैन मोहम्मद और जमाल बख्श वृंदावन में गाते थे. एक बार जयपुर रियासत के राजा बांके बिहारी मंदिर दर्शन को पहुंचे और वहां हमारे बुजुर्गों की गायकी से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उन्हें जयपुर बुला लिया. राजा ने घाटगेट के पास रहने के लिए एक बड़ी हवेली दी, जो आज ‘मथुरा वालों की हवेली’ कहलाती है."

तब से यह हवेली संगीतकारों की शरणस्थली बन गई. यहां रहते हुए कलाकारों को दरबार में गाने का मौका मिलता, इनाम मिलता और सरकारी मदद भी. धीरे-धीरे यह हवेली संगीत की एक परंपरा बन गई, जहां हर घर से सुरों की ध्वनि सुनाई देती थी.

सुरों की गूंज और साधना

बीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों में यह हवेली ‘संगीत का मंदिर’ बन चुकी थी. सुबह होते ही गलियों में रियाज़ की धुनें फैल जातीं और देर रात तक तबले और हारमोनियम की संगत गूंजती रहती.

हवेली का हर कमरा किसी न किसी उस्ताद का क्लासरूम था. छोटे-छोटे बच्चे गुरु-शिष्य परंपरा में बैठकर सुर, ताल और लय सीखते. यही वजह है कि इस हवेली से निकलने वाले कलाकारों ने न केवल जयपुर बल्कि पूरे देश और विदेश में अपने फन का परचम लहराया.

ग़ज़ल गायकी में नया अध्याय लिखने वाले अहमद हुसैन–मोहम्मद हुसैन का बचपन भी इसी हवेली की गोद में बीता. वे कहते हैं,"आज भी जब सोते हैं तो हवेली की यादें सपनों में लौट आती हैं. वही छोटे-छोटे कमरे, वही आंगन और वही रियाज़ की गूंज,सब कुछ अब भी मन में जिंदा है."
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दोनों बेटों फरीद (बाएं) और अमीन (दाएं) के साथ मशहूर गायक सईद साबरी।

शोहरत और फिल्मों तक सफ़र

हवेली ने केवल दरबारी संगीतकार ही नहीं, बल्कि फिल्म इंडस्ट्री को भी कई बेहतरीन आवाजें दीं.सईद साबरी को सबसे पहले शोहरत मिली फिल्म हिना में गाए गाने “देर न हो जाए, कहीं देर न हो जाए” से..

इसके बाद अमीन–फरीद साबरी ने शाहरुख खान की फिल्म परदेस की मशहूर कव्वाली “नहीं होना था, लेकिन हो गया प्यार” गाकर लोगों का दिल जीत लिया.फिल्म सिर्फ तुम का गाना “जिंदा रहने के लिए तेरी कसम, एक मुलाकात ज़रूरी है सनम” भी इन्हीं की आवाज़ में है.

ग़ज़ल गायकी में अहमद हुसैन–मोहम्मद हुसैन ने फिल्म वीर-जारा के मशहूर गीत “तेरे दर पर दीवाना आया” से पूरे देश को दीवाना बना दिया. उनकी ग़ज़लों ने शास्त्रीय संगीत को आम लोगों से जोड़ा. उनके योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया.


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सा रे गा मा पा लिटिल चैंप्स’ के विजेता अजमत हुसैन

हवेली से निकले नए सितारे

यह हवेली आज भी नई पीढ़ी को कलाकार दे रही है. ‘सा रे गा मा पा लिटिल चैंप्स’ के विजेता अजमत हुसैन ने यहीं से सुरों की तालीम ली. युवा कीबोर्डिस्ट रहबर हुसैन और गायक मोहम्मद कासिम भी इसी परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं.

हालांकि, वे मानते हैं कि अब माहौल वैसा नहीं रहा, रहबर कहते हैं,"हम अपनी शर्तों पर काम कर रहे हैं, लेकिन असली रियाज़ की कमी है. आज के जमाने में निजी ट्यूशन, डिजिटल प्लेटफॉर्म और छोटे-मोटे कार्यक्रम ही सहारा बने हुए हैं."

 जर्जर हवेली, बिखरती परंपरा

आज हवेली में 150 से ज्यादा परिवार रहते हैं. जो कभी संगीत की साधना के लिए बना था, वह अब छोटे-छोटे हिस्सों में बंट चुका है. नक्काशीदार बालकनियों पर अब डिश एंटेना टंगे हैं.

कभी जहां सुरों की गूंज थी, वहां आज मदरसा चलता है. कला अब भी जुनून है, लेकिन रोज़ी-रोटी की मजबूरियों और संस्थागत सहयोग की कमी ने इसे पेशे के रूप में कठिन बना दिया है.

मोहम्मद वकील, जिन्होंने सारेगामा पा जैसे शो जीते और कई फिल्मों में गाया, आज मुंबई शिफ्ट हो चुके हैं. वहीं, रहमान और अजमत जैसे युवा कलाकार जयपुर में रहकर संघर्ष कर रहे हैं.

हवेली और जयपुर की पहचान

जयपुर आने वाले हर पर्यटक को लोकल गाइड इस हवेली की कहानी सुनाते हैं. बताते हैं कि यहां से निकले कलाकारों ने पूरी दुनिया में जयपुर का नाम रोशन किया. आज भी जब कोई सैलानी घाटगेट की गलियों से गुजरता है, तो उसकी नजर इस हवेली पर ठहर जाती है.

हवेली में रहने वाले लोग भी गर्व से कहते हैं,"हम कई पीढ़ियों से गाना-बजाना ही करते आ रहे हैं. शादी-ब्याह, सामाजिक कार्यक्रम, आर्केस्ट्रा—सब हमारी रोज़ी-रोटी हैं. यही हमारा पेशा और हमारी पहचान है."


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हवेली का भविष्य?

सवाल यह है कि क्या यह हवेली फिर से अपने सुनहरे दिनों में लौट पाएगी? क्या सरकार और संस्थान इस परंपरा को संजोने की कोशिश करेंगे? या फिर यह हवेली सिर्फ एक बीते जमाने की याद बनकर रह जाएगी?

हालांकि, एक बात तय है, मथुरा वालों की हवेली सिर्फ एक इमारत नहीं, बल्कि एक ऐसी धरोहर है जिसने हिंदुस्तानी संगीत को नई ऊंचाइयां दीं और जयपुर को सुरों की राजधानी बना दिया.

आज चाहे हवेली की दीवारें जर्जर हो गई हों, लेकिन वहां के सुर और लय अब भी ज़िंदा हैं, अपने फनकारों, उनके किस्सों और उनकी आवाज़ों में. यही आवाज़ें इस हवेली की असली पहचान हैं, जो आने वाली पीढ़ियों को भी प्रेरित करती रहेंगी.