फकीर संन्यासी आंदोलन: कौन हैं शहीद मजनू शाह मलंग ?

Story by  ओनिका माहेश्वरी | Published by  onikamaheshwari | Date 22-11-2022
फकीर संन्यासी आंदोलन: हिंदू सन्यासियों व मुस्लिम फकीरों ने उठाए थे अंग्रेजों के खिलाफ हथियार
फकीर संन्यासी आंदोलन: हिंदू सन्यासियों व मुस्लिम फकीरों ने उठाए थे अंग्रेजों के खिलाफ हथियार

 

ओनिका माहेश्वरी/ नई दिल्ली 

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में न सिर्फ क्रांतिकारियों, महिलाओं और आम जनता ने भाग लिया बल्कि बड़े पैमाने पर साधु-संतों ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया था. उन्हीं में से एक सन्यासियों और फकीरों का विद्रोह जो भारत में हिंदू-मुस्लिम एकता का भी उदाहरण हैं.
 
बात उस समय की है जब अंग्रेजों ने हिन्दुस्तान पर अपना अधिकार जमाने के पश्चात इसे लूटना प्रारंभ कर दिया था. हिन्दुस्तान की जनता उनके तरह तरह के हथकंडों से परेशान हो चुकी थी.
 
अंग्रेजों ने अपने साथ यहाँ के जमींदारों और साहूकारों को भी मिला  लिया था और इनकी सांठ-गाँठ से देश की ग़रीब जनता त्रस्त थी. हिन्दुस्तान की जनता आखिरकार कब तक यह अत्याचार सहती? आखिरकार विद्रोह शुरू हो गए और अंग्रेज़ लुटेरों तथा उनके गुर्गे जमींदारों-साहूकारों को मार भगाने के प्रयास में जनता से जुट गयी. यह संग्राम देश का पहला स्वाधीनता संग्राम था और इस संग्राम के समय समय पर अनेक रूप दिखाई पड़े.

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में एक प्रेरक अध्याय है जिसमें हिंदू सन्यासियों व मुस्लिम फकीरों ने हथियार उठाए और दोनों ने मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी.
 
इसे भारत में सन्यासी-फकीर विद्रोह के रूप में जाना जाता है. यह 18वीं शताब्दी के दौरान बंगाल और बिहार के क्षेत्र में तीन दशकों तक चलने वाला बड़ा विद्रोह था. इस दौरान बंगाल में विनाशकारी अकाल भी आया जिसमें करीब 1 करोड़ लोग मारे गए.
 
भूख और प्राकृतिक आपदा ने लोगों का जीवन बर्बाद कर दिया. इसके बावजूद कंपनी सरकार ने जबरन टैक्स वसूलने शुरू किए थे. यह विद्रोह उसी शोषणकारी नीति के खिलाफ था.
 
 
 
पलासी और बक्सर के युद्धों में ब्रिटिश पूँजीवादियों की विजय के बाद ही हम किसानों और कारीगरों को इन नये लुटेरों और उनके समर्थक जमींदारों तथा साहूकारों से संघर्ष करते पाते हैं. 
 
उनका पहला विद्रोह इतिहास में संन्यासी-विद्रोह के नाम से मशहूर है. यह विद्रोह 1763 में बंगाल और बिहार में शुरु हुआ और 1800 तक चलता रहा.
 
मुगलों के हाथों से जब सत्ता अंग्रेजों के पास गई, तो किसानों व जमींदारों से वसूले जानेवाले करों के हक़दार अंग्रेज हो गए किन्तु, दोनों की टैक्स वसूली का तरीका अलग था. अगर कोई कर नहीं दे पाता था, तो मुगल शासक के कारिंदे उसके नाम पर वो टैक्स चढ़ा देते और बाद में उससे वसूल करते थे. 
 
अंग्रेजों ने टैक्स सिस्टम में बदलाव कर दिया. इसके तहत अगर कोई टैक्स देने में असमर्थ होता, तो अंग्रेज उसकी जमीन की बोली लगाकर बेच देते थे .इस व्यवस्था के विरोध में आंदोलन शुरू हो गए.
 
कैसे शुरू हुआ आंदोलन
 
रामनामी भिक्षु और मुस्लिम फकीरों ने जो कि इसी क्षेत्र में भिक्षा मांगकर जीवन जीते थे, उन्हें भी बड़ी परेशानी झेलनी पड़ी. अकाल पड़ने से लोगों के पास खाने तक का अनाज नहीं बचा तो भिक्षा देने में भी लोग कतराने लगे.
 
वहीं दूसरी ओर ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी जबरन वसूली करते रहे. स्थानीय लोगों ने कंपनी अधिकारियों द्वारा  जबरन वसूली का विरोध शुरू कर दिया.
 
तब सन्यासियों और फकीरों ने भी हथियार उठा लिए और विदेशी आक्रमणकारियों के खिलाफ उठ रही आक्रोशित जनता के साथ हो गए. तब पूरे बंगाल और बिहार में खूनी संघर्ष शुरू हो गया. 

इस विद्रोह में मुख्यतः तीन शक्तियाँ शामिल थीः (1) प्रधानतः बंगाल और बिहार के कारीगर और किसान जिन्हें ब्रिटिश पूंजीवादियों ने तबाह कर दिया था, (2) मरते हुए मुगल साम्राज्य की सेना के बेकारी और भूख से पीड़ित सैनिक जो खुद किसानों के ही परिवार के थे, और (3) संन्यासी और फ़क़ीर जो बंगाल और बिहार में बस गये थे और किसानी में लग गये थे.
 
इस विद्रोह के मूल शक्ति किसान थे. बेकार और भूखे सैनिकों ने इन्हें सेना के रूप में संगठित कर संघर्ष को रूप दिया था. संन्यासियों और फ़क़ीरों ने आत्म बलिदान का आदर्श और विदेशी पूंजीवादियों से देश की स्वतंत्रता का लक्ष्य निर्धारित किया.
 
संन्यासियों और फ़क़ीरों ने संग्रामी किसानों और कारीगरों के सामने विदेशियों के चंगुल से देश की मुक्ति और धर्मरक्षा का आदर्श उपस्थित किया.
 
इस आंदोलन में हिस्सा लेने वाले मलंग दीवानगान-ए-आतिशी से बावस्ता थे. यह सिलसिला मदारिया की एक शाखा है. मदारिया सिलसिला जाकर सैयद बदीउद्दीन शाह मदार से जुड़ता है जो शैख़ मुहम्मद तैफ़ूर बुस्तामी के मुरीद थे. इनकी दरगाह मकनपुर में स्थित है.
 
 
 
सूफ़ियों और सन्यासियों ने लोगों को यह शिक्षा दी कि देश को मुक्त करना सबसे बड़ा धर्म है. पराधीन जाति की मुक्ति के लिए सर्वस्वत्याग, मातृभूमि में अचल ‘भक्ति, अन्याय के विनाश और न्याय की प्रतिष्ठा के लिए संन्यास  और प्रबल विदेशी शक्ति के विरुद्ध देशवासियों के एक होने का आह्वान – ये सब उस सबसे बड़े धर्म के पालन का सर्वोत्तम पथ है.
 
 
 
1774-75 में मजनू शाह मलंग ने बिहार और बंगाल के विद्रोहियों को फिर से संगठित करने की कोशिश की. 15 नवम्बर 1776 को मजनू की सेना और कंपनी की सेना के बीच टक्कर उत्तर बंगाल में हुई.
 
मजनू शाह ने कई साल बिहार और बंगाल में घूम-घूमकर विद्रोहियों को संगठित करने का प्रयास किया. सेना के लिए कितने ही जमीन्दारों से कर भी वसूल किया. अंग्रेज़ शासकों ने उन्हें पकड़ने की बार-बार कोशिश की, पर असफल रहे.
 
29 दिसम्बर 1786 को अंग्रेज़ो से युद्ध करते हुए उनका घेरा तोड़कर निकलने में मजनू शाह सख्त़ घायल हुए और एक आध दिन बाद ही संन्यासी विद्रोह के इस सर्वश्रेष्ठ नेता की मृत्यु हो गयी.
 
 
मलंगों की तज्हीज़ ओ तकफ़ीन बाकी मदारिया फ़क़ीरों से अलग होती हैं. मदारिया की दूसरी शाखाओं जैसे ख़ादिमान, आशिक़ान और तालिबान में मृत शरीर को दफ़नाया जाता है, जबकि मलंगों में उनकी जटा या भीक को काट कर उसे अलग दफनाया जाता हैं और शरीर को अलग दफ़न किया जाता है. उदाहरणार्थ – मजनू शाह मलंग की दो क़ब्रें  हैं जो मकनपुर में स्थित हैं. एक में उनकी जटा दफ़न हैं और दूसरे में शरीर. कहा जाता है की मजनू शाह ने खुद कई मलंगों को इस तरीके के दफ़नाया था जो सन्यासी फ़क़ीर आंदोलन के दौरान शहीद हुए थे.
 
 
इसके बाद संन्यासी विद्रोह से प्रायः अलग हो गये, किन्तु फ़क़ीर मूसा शाह के, जो मजनू शाह के शिष्य और भाई थे, नेतृत्व में विद्रोह चलाते रहे. मजनू शाह के दुसरे मुरीद भी थे परन्तु कहा जाता है कि नेता बनने की चाह में इनमे से ही एक मुरीद ने मूसा शाह का क़त्ल कर दिया.
 
 
मजनू शाह मलंग के उल्लेखनीय योगदान और इनकी देशभक्ति को सलाम करते हुए बांग्लादेश में उनके नाम पर एक पुल का नाम रखा गया है.
 
 
लूट लिया कंपनी का खजाना
 
अंग्रेज गवर्नर की दमनकारी नीति के बावजूद व्यापक विरोध जारी रहा. सन्यासी और फकीरों की टोली ने कंपनी के खजाने को लूट लिया. यहां तक ​​कि अंग्रेज अधिकारियों को भी मार डाला गया.
 
फकीरों ने औपनिवेशिक आर्थिक नीतियों से गरीब ढाका के मलमल बुनकरों को भी लामबंद किया. लेकिन जमींदारों और विभिन्न क्षेत्रों के शासकों जैसे रानी चौधरानी, ​​​​नदी युद्ध में दक्ष रानी ने भी विद्रोह का समर्थन किया.
 
उफनती तीस्ता नदी में देशी नावों पर सवार विद्रोहियों ने कंपनी बलों पर अचानक हमले किए लेकिन आर्थिक और मानवीय संकट के इस समय में भी कंपनी के खजाने जमीन से जबरन वसूले गए धन से भरे हुए थे. सन्यासी फकीर विद्रोह को समाप्त करने में कंपनी को लगभग तीन दशक लग गए.