शिक्षक दिवस विशेषः मदरसों के शिक्षकों को क्या हम भूल जाते हैं

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  [email protected] | Date 03-09-2021
उस्तादों को आदाब
उस्तादों को आदाब

 

मो. जबिहुल कमर ‘जुगनू’/नई दिल्ली

शिक्षक तो शिक्षक होते हैं, चाहे वे प्रोफेसर हों या स्कूल शिक्षक, या मकतब-मदरसा के उस्ताद. लेकिन सच्चाई यह है कि हममें से ज्यादातर लोग अपने उन पुराने शिक्षकों को भूल जाते हैं, जिनसे हमने अपनी शिक्षा प्रारंभ की थी. अक्सर यह देखा गया है कि शिक्षक दिवस पर उच्च स्तरीय शिक्षकों को विश किया जाता है. हालाँकि सही अर्थों में पुराने शिक्षक ही हमारे प्रशिक्षण और शिक्षा, दोनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. क्योंकि जब हम जागरूक और बा-शऊर हो जाते हैं, तो हमारे उच्च स्तरीय शिक्षक आमतौर पर प्रशिक्षण से कहीं ज्यादा हमें पढ़ाते या लेक्चर देते हैं, इसलिए कहना पड़ेगा कि प्रशिक्षण प्रणाली तो प्राथमिक स्तर के शिक्षकों से जुड़ी होती है.

इसके अलावा यह भी एक तथ्य है कि शिक्षक दिवस के अवसर पर बहुत से शिक्षकों की बहुत सी बातें विभिन्न स्रोतों से सामने आती हैं, जबकि छोटे-छोटे मदरसों के शिक्षकों का कोई उल्लेख नहीं हो पाता है. इसलिए आज हम आपको उन शिक्षकों से मिलवाएंगे जिनकी मेहनत और बच्चों की करुणा की कहानियां सुनहरी अक्षरों से लिखी जानी चाहिए.

चूँकि मैं ने विश्वविद्यालय के साथ मदरसों से भी शिक्षा प्राप्त की है और वहां के शिक्षकों को बहुत करीब से देखा है. यहाँ के अधिकांश शिक्षकों की जीवन से बहुत कुछ सीखा जा सकता है, क्योंकि वह पूरी तरह से बच्चों की शिक्षा और प्रशिक्षण के लिए समर्पित होते हैं. मदरसों में छात्रों और शिक्षकों की जीवन, विशेष रूप से कुरान को याद यानी हिफ्ज कराने वालों की जीवन बहुत अलग होती है. क्योंकि वह सभी मौसमों में सुबह तीन या चार बजे उठते हैं और सुबह की नमाज से बहुत पहले से बच्चों को पढ़ाने लग जाते हैं. अर्थात उनकी जीवन का अधिक हिस्सा बच्चो के साथ गुजरता है. उनकी जिन्दगी में दिन के 6 - 8 घंटे का फार्मूला लागू नहीं होता है. यह कोई  पुरानी बात नहीं, आज भी अधिकांश मदरसों में ऐसा ही है, विशेषकर हिफ्ज (कुरान याद कराने वाले मदरसों में). इसलिए हम नीचे की पंकितयों में हिफ्ज से जुड़े शिक्षक और छात्र को पेश करेंगेः

तस्खीर फाउंडेशन दिल्ली के अंतगर्त चलने वाले इदारा उलूम इस्लामिया, पलवल हरियाणा के शिक्षक मौलाना अबुल्लैस नदवी कहते हैं, “आलमियत से जुड़े शिक्षक के यहाँ टाइम टेबल का मामला तो होता है, मगर हिफ्ज का मामला कुछ भिन्न है, क्योंकि ध्यान केवल कुरान को याद करने पर केन्द्रित होता है. इसलिए इसमें छात्र को सबक याद करवाया जाता है. एक ही पाठ को कई बार दुहराने की प्रकिया होती है, हम शिक्षक कुरान के कुछ शब्द पढ़ते हैं और छात्र उसे दोहराते है. उच्चारण, याद और दुहराना, यह सब रोज-रोज की हमारी जिम्मेदारी में शामिल है. में दस बच्चों को हिफ्ज करा रहा हूँ, लॉकडान के कारण अभी बच्चे कम हैं. एक बात यह भी है कि कक्षा के सभी बच्चे एक ही किताब पढ़ते हैं. आलमियत का पाठ्यक्रम हो या स्कूल का निर्धारित पुस्तक कक्षा में पहुँचने के बाद शिक्षक द्वारा पढ़ायी जाती है. लेकिन हिंफ्ज के क्लास में हर बच्चा अलग होता है. कोई कुरान का तीसरा अध्याय याद करता है, तो कोई दसवां अध्याय हिफ्ज करता है, यानी हर छात्र का मामला अलग-अलग होता है, इसलिए हिफ्ज कक्षा वाले शिक्षकों को अधिक मेहनत करनी पड़ती है.”

जब हम ने हाफिज अब्दुस समद से, उनके शिक्षकों के बारे में बातें की, तो उन्होंने अपने पुराने टीचर्स के बारे में बहुत कुछ बताया. उन्होंने कहा “वर्ष 2002-2003 की बात है, मैं लोनी-गाजियाबाद के एक छोटे से मदरसे इरशाद-उल-उलूम लालबाग में पढ़ रहा था. कुरान याद करता था. उस समय मेरे शिक्षक हाफिज नईम, कारी अदनान, हाफिज इश्तियाक और कारी सिराज थे. ये मेरे हिफ्ज के शिक्षक हैं. इनमें से कई की मौत हो चुकी है और कई अब भी जिंदा हैं. कुरान याद करना ही उस समय एक काम था. इसलिए, कुरान को हर समय याद करता था, मेरी उम्र ग्यारह या बारह वर्ष रही होगी. शिक्षकों की कड़ी मेहनत के कारण, मैंने कुरान को करीब ढाई साल में याद कर लिया था. ये शिक्षक हमारे साथ सुबह तीन-चार बजे उठ जाते थे.

मदरसा शिक्षकों की मेहनत और प्यार का कोई दूसरा उदाहरण नहीं हो सकता है कि उनमें से कई एक  मदरसे के बच्चों के साथ खाना भी बनाते थे. कल वह बातें छोटी लगती थीं, आज जब मैंने जेएनयू से पीएचडी की डिग्री प्राप्त कर ली है, तो पिछले दिनों की बातें हमें सोचने पर मजबूर कर देती हैं. कई बार आंखें नम हो जाती हैं. मैं कह सकता हूं कि अगर इस छोटे से मदरसे में शिक्षकों द्वारा अपनायत नहीं मिलती, तो मैं जेएनयू नहीं पहुंच पाता. बचपन से जुडी बहुत सी यादें हैं, मैं क्या किया-किया बयां करूँ, बस यही अभिवादन करता हूं की अपने मदरसे के शिक्षकों और विश्विद्यालय के शिक्षकों का नाम रौशन करूँगा, यही उनकी पूंजी और जिन्दगी का हासिल (लक्ष्य) है. एक शिक्षक अपने छात्र से क्या चाहता है, यही ना, नेक नामी”!

उल्लेख रहे की अब्दुस समद, अब सलमान अब्दुस समद के नाम से मशहूर हैं, उनकी कई पुस्तके प्रकाशित हो चुकी हैं. उनका चर्चित उपन्यास ‘लफ्जों का लहू’ हिंदी और उर्दू संस्करण में मौजूद है. इस नावेल के साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार, भारत सरकार से सम्मानित किया जा चूका हैं.

इदारा दावतुल कुरान अरिरया बिहार के हाफिज और कारी सईद अतहर कहते हैं,  “कुरान के सही उच्चारण का विशेष ध्यान रखा जाता है. शब्दों का गलत उच्चारण करने से शब्दों का अर्थ बदल जाते हैं. हम हिफ्ज के बच्चों के उच्चारण पर विशेष ध्यान देते हैं ताकि वे कुरान सही ढंग से पढ़ें और शब्दों के अर्थ न बदलें.”

उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि ‘अक्ल’ का अर्थ बुद्धि और प्रज्ञा है, लेकिन अगर कोई ‘अकल’ पढ़ेगा तो अर्थ बदल जाएगा. क्योंकि ‘अकल’ का अर्थ है भोजन करना. अर्थात अरबी ‘ऐन’ और ‘अलिफ’ के फर्क से दोनों का अर्थ बदल गया .

उन्होंने यह भी कहा कि बच्चे बचपन में परंपरा के कारण हमारा सम्मान करते हैं, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता है, बच्चों के दिलों में हमारा सम्मान बढ़ता जाता है. वह उच्च शिक्षा के लिए बड़े-बड़े मदरसों में जाते हैं, लेकिन हिफ्ज कराने वाले शिक्षक उनके दिलों से दूर नहीं हो पाते हैं. 

कहा जाता है कि मदरसे के बच्चों का उच्चारण काफी बेहतर होता है. इसमें बड़ी सच्चाई है, लेकिन याद रहे कि मदरसे के जो बच्चे हिफ्ज करते हैं, उनका उच्चारण बेहतर होता है. क्योंकि उन्हें औपचारिक उच्चारण (तजवीद) सिखाया जाता है. इसलिए कुरान को याद करते-करते, बच्चा सही उच्चारण में माहिर हो जाता है. लिहाजा हम कह सकते हैं कि भाषाविज्ञान के ध्वन्यात्मक (सौति आहंग / आवाज और अल्फाज की अदाएगी) का मामला भी कहीं ना कहीं हिफ्ज से जुड़ जाता है.

यह एक तथ्य है कि मुस्लिम समाज को शिक्षित करने और देश में शिक्षा की फजा को लोकप्रिय बनाने में मदरसों और उनके शिक्षकों की भी भूमिका है. उच्च शिक्षा के क्षेत्र में मुसलमानों के प्रतिनिधित्व में आज मदरसा के छात्र भी शामिल हैं. उच्च पदों पर आसीन कई मदरसा स्नातक गर्व से कहते हैं कि हम मदरसे में पढ़े-लिखे हैं. यह अलग बात है कि मदरसे के सिलेबस पर काफी काम होना चाहिए, जो नहीं हो रहा है. उम्मीद है कि अगर मदरसे के पाठ्यक्रम में अच्छा बदलाव किया गया तो देश के पहले राष्ट्रपती डॉ. राजेंद्र प्रसाद जैसे बुद्धिजीवी आज भी वहां से निकल सकते हैं. मदरसे में थोड़े बदलाव की जरूरत है, नहीं तो कुरान याद कर के सीनों में बसाने वाले हाफिज दुनिया के किसी भी पाठ्यक्रम को याद कर सकते हैं . बड़ी से बड़ी परीक्षाओं की तैयारी कर के वह सफल हो सकते है. क्योंकि कुरान याद करते करते उनका जेहन तेज हो जाता, और याद करने की क्षमता बढ़ जाती है.