मुग़लकाल में भी होता था दिवाली पर सबरंग माहौल

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] | Date 02-11-2021
मुग़लकाल में भी होता था दिवाली पर सबरंग माहौल
मुग़लकाल में भी होता था दिवाली पर सबरंग माहौल

 

ज़ाहिद ख़ान

सदियों से हमारे देश का किरदार कुछ ऐसा रहा है कि जिस शासक ने भी सामंजस्यपूर्ण सह अस्तित्व की भावना से सत्ता चलाई, उसे देशवासियों का भरपूर प्यार मिला. देशवासियों के प्यार के ही बदौलत उन्होंने हिंदुस्तान पर सालों राज किया. मुग़ल शासक भी उनमें से एक थे. मुग़लकाल में औरंगज़ेब को यदि छोड़ दें, तो सारे मुग़ल शहंशाह सामंजस्यपूर्ण सह अस्तित्व पर यक़ीन रखते थे. उन्होंने कभी मज़हब के साथ सियासत का घालमेल नहीं किया और अपनी हुकूमत में हमेशा उदारवादी तौर-तरीके आज़माए. उनकी हुकूमत के दौरान धार्मिक स्वतंत्रता, अपना धर्म पालन करने तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि उन्होंने एक ऐसा नया ख़ुशनुमा, सबरंग माहौल बनाया, जिसमें सभी धर्मों को मानने वाले एक-दूसरे की ख़ुशियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते और तीज त्योहार में भी शामिल होते. मुग़लकाल में विभिन्न हिंदू और मुस्लिम त्योहार ज़बर्दस्त उत्साह और बिना किसी भेदभाव के मनाए जाते थे.

अनेक हिंदू त्योहार मसलन दीपावली, शिवरात्रि, दशहरा और रामनवमी को मुग़लों ने राजकीय मान्यता दी थी. मुग़लकाल में ख़ास तौर पर दीपावली त्योहार में एक अलग ही रौनक होती थी. यह पर्व पूरी सल्तनत में अपूर्व उत्साह से मनाया जाता था. दीप पर्व आगमन के तीन-चार हफ़्ते पहले ही महलों की साफ़-सफ़ाई और रंग-रोगन के दौर चला करते. ज्यों-ज्यों पर्व के दिन नज़दीक आने लगते, त्यों-त्यों ख़ुशियां परवान चढ़ने लगतीं. दीयों की रोशनी से समूचा राजमहल जगमगा उठता, जिसे इस मौके के लिए ख़ास तौर पर सजाया-संवारा जाता था.

मुग़ल शासक बाबर दीपावली को धूमधाम से मनाया करते थे. इस दिन पूरे महल को दुल्हन की तरह सजाकर, पंक्तियों में लाख़ों दीप प्रज्वलित किये जाते थे. दिवाली के मुक़द्दस मौके पर शहंशाह बाबर अपनी गरीब रियाया को नये कपड़े और मिठाइयां भेंट करते थे. बाबर के उत्तराधिकारी हुमायूं ने भी उनके इंतकाल के बाद यह रिवायत ज़ारी रखी. दीपावली वे ख़ूब हर्ष उल्लास से मनाते थे. इस अवसर पर हुमायूं, महल में महालक्ष्मी के साथ अन्य हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा भी करवाते और गरीबों को सोने के सिक्के उपहार में देते थे.

पूजा के दौरान एक विशाल मैदान में आतिशबाजी की जाती. फिर 101 तोपें चलाई जातीं. शहंशाह अकबर के शासनकाल में पूरे देश के अंदर गंगा-जमुनी तहज़ीब और परवान चढ़ी. इस्लाम के साथ-साथ वे सभी धर्मों का समान सम्मान करते थे. अकबर ने अपनी सल्तनत में विभिन्न समुदायों के कई त्योहारों को शासकीय अवकाश की फ़ेहरिस्त में शामिल किया था. हर एक त्योहार में ख़ास तरह के आयोजन होते. जिनके लिए शासकीय ख़जाने से दिल खोलकर अनुदान मिलता. दीवाली मनाने की शुरुआत दशहरे से ही शुरू हो जाती. दशहरा पर्व पर शाही घोड़ों और हाथियों के साथ व्यूह रचना तैयार कर, सुसज्जित छतरी के साथ जुलूस निकाला जाता. अकबर के नौ रत्नों में से एक अबुल फ़ज़ल ने अपनी मशहूर किताब ‘आईना-ए-अकबरी’ में शहंशाह अकबर के दीपावली पर्व मनाये जाने का तफ़्सील से ज़िक्र किया है. बादशाह अकबर दिवाली की शाम अपने पूरे साम्राज्य में मुंडेरों पर दीये रौशन करवाते थे. महल की सबसे लंबी मीनार पर 20 गज लंबे बांस पर कंदील लटकाये जाते थे. यही नहीं महल में पूजा दरबार आयोजित किया जाता था. इस मौके पर मुकम्मल साज-सज्जा कर दो गायों को कौड़ियों की माला गले में पहनाई जाती और ब्राह्मण उन्हें शाही बाग में लेकर आते. ब्राह्मण जब अकबर को दुआओं से नवाज़ते, तो शहंशाह ख़ुश होकर उन्हें महंगे तोहफ़ों से लाद देते.

अबुल फज़ल ने अपनी किताब में अकबर के उस दीपावली समारोह का भी ब्यौरा लिखा है, जब शहंशाह कश्मीर में थे. अबुल फज़ल लिखते हैं,‘‘दीपावली पर्व जोश-ओ—ख़रोश से मनाया गया. हुक्मनामा जारी कर नौकाओं, नदी-तट और घरों की छतों पर प्रज्वलित किए गए दीपों से सारा माहौल रोशन और भव्य लग रहा था.’’ दिवाली उत्सव के दौरान शहजादे और दरबारियों को राजमहल में जुआ खेलने की भी इजाज़त होती थी. जैसा कि सब जानते हैं कि दीपावली के बाद गोवर्धन पूजा होती है, मुग़लकाल में गोवर्धन पूजा बड़े श्रद्धा के साथ संपन्न होती थी. यह दिन गौ सेवा के लिए निर्धारित होता. गायों को अच्छी तरह नहला-धुलाकर, सजा-संवारकर उनकी पूजा की जाती. शहंशाह अकबर ख़ुद इन समारोह में शामिल होते थे और अनेक सुसज्जित गायों को उनके सामने लाया जाता.

जहांगीर के शासनकाल में दिवाली के अलग ही रंग थे. वे भी दिवाली को मनाने में अकबर से पीछे नहीं थे. किताब ‘तुज़्क-ए-जहाँगीरी’ के मुताबिक साल 1613 से लेकर 1626 तक जहांगीर ने हर साल अजमेर में दिवाली मनाई. वे अजमेर के एक तालाब के चारों किनारों पर दीपक की जगह हजारों मशालें प्रज्वलित करवाते थे. इस मौके पर शहंशाह जहांगीर, अपने हिन्दू सिपहसालारों को कीमती नज़राने भेंट करते थे. इसके बाद फ़कीरों को नए कपड़े, मिठाइयां बांटी जाती. यही नहीं आसमान में 71 तोपें दागी जाती और बारूद से बने बड़े-बड़े पटाखे चलाये जाते.

दिवाली से पहले, हस्बे मामूल दशहरा पर्व भी मनाया जाता था. औरंगजेब समेत सभी मुग़ल शासकों ने दशहरा पर्व पर भोज देने की परंपरा कायम रखी. इस मौके पर औरंगजेब अपने हिंदू अभिजात्य साथियों में सम्मानस्वरूप वस्त्र वितरित करते. मुग़लकाल में हिंदू तथा मुस्लिम समुदायों के थोड़े से कट्टरपंथी, तंगनज़र तबके को छोड़कर, सभी एक-दूसरे के त्योहारों में बगैर हिचकिचाहट भागीदार बनते थे. दोनों समुदाय अपने मेलों, भोज तथा त्योहार एक साथ मनाते. दिवाली तो जैसे कौमी त्योहार होता. यह पर्व न केवल दरबार में पूरे जोश-ओ—ख़रोश से मनाया जाता, बल्कि आम लोग भी उत्साहपूर्वक इस त्योहार का आनंद लेते. दिवाली पर्व पर ग्रामीण इलाकों के मुस्लिम अपनी झोपड़ियों व घरों में रौशनाई करते तथा जुआ खेलते. वहीं मुस्लिम महिलाएं भी दीपावली को अपनी ईद मानती थीं.

इस दिन वे अपनी बहनों और बेटियों को लाल चावल से भरे घड़े बतौर तोहफ़ा भेजतीं. यही नहीं दिवाली से जुड़ी सभी रस्मों को भी पूरा करतीं. मुग़ल शहंशाह ही नहीं, बंगाल तथा अवध के नवाब भी दिवाली शाही अंदाज़ में मनाते थे. अवध के नवाब तो दीप पर्व आने के सात दिन पहले ही अपने तमाम महलों की ख़ास तौर पर साफ़-सफ़ाई करवाते. महलों को दुल्हन की तरह सजाया जाता. महलों के चारों ओर तोरणद्वार बनाकर, ख़ास तरीके से दीप प्रज्वलित किये जाते थे. बाद में नवाब खुद अपनी प्रजा के बीच में जाकर दीपावली की मुबारकबाद दिया करते थे.