प्यारे मुहम्मद का पैगाम, संपूर्ण मानवता के नाम

Story by  मलिक असगर हाशमी | Published by  [email protected] | Date 19-10-2021
प्यारे मुहम्मद का पैगाम, मानवता के नाम
प्यारे मुहम्मद का पैगाम, मानवता के नाम

 

मो. जबिहुल कमर ‘जुगनू’ 
 
दुनिया में हर इंसान के अधिकार और दायित्व हैं. वह लेता है. वह लेना जानता है.उसी तरह उसे ईश्वरीय संविधान और मानवता के अनुसार, देना भी चाहिए. हम जानते हैं कि इस्लाम सिर्फ एक धर्म नहीं, जीवन जीने की संपूर्ण कला है.
 
कुरान और सुन्नत में इंसानों के अधिकारों और दायित्वों का स्पष्ट जिक्र है. निस्संदेह, जो इन अधिकारों और दायित्वों को जानता है वह वह किसी का हक नहीं मार सकता. किसी पर अत्याचार नहीं कर सकता. इस्लाम मानवता का सम्मान करना सिखाता है.
 
मानवाधिकारों के प्रति जागरूक करता है. मानव अधिकारों का इस्लामी ज्ञान अन्य धर्मों से अलग है. पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने मानव जीवन के हर पहलू पर दर दिया है, जो हमारे जीवन को सुंदरता और संतुलन बनाता है.
 
जब हमने इस्लामिक विद्वानों व बुद्धिजियों  से इस संदर्भ में बात की तो उन्होंने इस प्रकार से संदेश को रेखांकित किया.इस्लामिक स्कॉलर व सहाफी सलमान अब्दुस समद कहते है कि इस्लाम में मानवाधिकार एकेश्वरवादी सोच पर आधारित हैं. इस्लाम मानव अधिकारों को मानवीय गरिमा के लिए आवश्यक मानता है.
 
धार्मिक सिद्धांत के अनुसार मनुष्य पृथ्वी पर अल्लाह का उत्तराधिकारी है. इस संबंध में सम्मान का पात्र है. एक इस्लामी समाज में, प्रत्येक व्यक्ति, धर्म या राष्ट्रीयता की परवाह किए बिना, सम्मान और स्वतंत्रता का हकदार है.
 
इस्लाम ने मानव अधिकारों के क्षेत्र में सभी प्रकार के भेदभावों को नकारते हुए न केवल सांसारिक मामलों में समानता के सिद्धांत पर आधारित अधिकार दिए हैं, इस सिद्धांत के तहत अच्छे कर्म करने के लिए परलोक का इनाम भी घोषित किया है. ख्सूरह अल-इमरानः 195,
 
सलमान अब्दुस समद आगे कहते हैं कि इस्लाम जीवन में संयम सिखाता है. इस्लाम ने मानव अधिकारों की एक व्यापक अवधारणा दी जिसमें अधिकारों और कर्तव्यों के बीच संतुलन है. आज हर कोई मानवाधिकार के मुद्दे पर केंद्रित है.
 
हमें यह जानने की जरूरत है कि मानवाधिकारों की जिस अवधारणा तक लोग आज पहुंच गए हंै, वह उस अवधारणा से कहीं अधिक व्यापक और स्पष्ट है, जिसे पवित्र पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)  ने चैदह सौ साल पहले पेश किया था.
 
अपने विदाई उपदेश में पवित्र पैगंबर मुहम्मद  ने मानव अधिकारों पर विस्तार से जोर दिया. विदाई उपदेश की विशेषता यह है कि इसमें पैगंबर मुहम्मद साहब ने न केवल मुसलमानों को बल्कि पूरी मानवता को संबोधित किया. पैगंबर ने अपने विदाई उपदेश में ‘‘मुस्लिम‘‘ शब्द का इस्तेमाल नहीं किया. 
 
उनके द्वारा प्रदत्त मानवाधिकारों की महान अवधारणा में मानव जीवन के विभिन्न पहलू को शामिल किया हैंः

 व्यक्तिगत अधिकार

व्यक्ति समाज की एक इकाई है. जब तक किसी समाज में व्यक्ति की स्थिति और उसके अधिकारों की रक्षा नहीं की जाती है, उस समाज में ‘‘समग्र रूप से‘‘ अधिकारों की सुरक्षा की गारंटी नहीं दी जा सकती है. इस्लाम ने न केवल व्यक्ति को एक सम्मानजनक स्थान दिया,  उसे वे सभी अधिकार भी दिए जो उसके विकास और कल्याण के लिए आवश्यक हैं.
 
सामाजिक अधिकार

समाज के विभिन्न सदस्यों को उनके सामाजिक अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में शिक्षित करके, इस्लाम ने उन्हें वे सभी सकारात्मक नींव प्रदान की हैं जो एक संतुलित, उदार और सम्मानजनक मानवाधिकार समाज की स्थापना के लिए आवश्यक हैं.
 
राजनीतिक अधिकार

राजनीतिक अधिकारों और कर्तव्यों की स्पष्ट परिभाषा के बिना एक अनुकरणीय राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना संभव नहीं है. इसलिए, पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इस्लामिक स्टेट के सभी नागरिकों के अधिकारों को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया. 
 
आर्थिक अधिकार

पैगंबर द्वारा दिए गए आर्थिक और वित्तीय अधिकार समाज में समान हैं मौलाना कलीमुल्लाह कासमी महासचिव जामिया मिन्हाजुल सुन्नाह ने इस्लामी दृष्टिकोण से मानव अधिकारों का आधुनिक नजरिया को पेश किया है.उन्होंने कहा कि  इस्लाम और पश्चिम देश ही मानवाधिकारों और मौलिक स्वतंत्रता को बहुत महत्व देते हैं, लेकिन मानवाधिकारों के मुद्दे पर उनके विचार मौलिक रूप से भिन्न हैं.
 
इस्लामी विचार मानव अधिकारों को ईश्वर के साथ मनुष्य के संबंधों के संदर्भ में देखता है, जबकि मानव अधिकारों की पश्चिमी अवधारणा धर्मनिरपेक्ष है, जो एक नागरिक के रूप में राज्य के साथ मनुष्य के संबंधों पर आधारित है.
 
मोटे तौर पर, दो दृष्टिकोणों के बीच का अंतर यह है कि इस्लाम में, अधिकार को सर्वोच्च कानून का दर्जा प्राप्त है. मनुष्य पृथ्वी पर ईश्वर का उपमहाद्वीप है. इस प्रकार, एक इस्लामी राज्य में, लोगों के पास कुल शक्ति नहीं है, लेकिन सामूहिक रूप से अपने प्रतिनिधियों की शक्तियों के माध्यम से सरकार चलाते हैं, जिसकी सीमाएं ब्रह्मांड के निर्माता द्वारा निर्धारित की गई हैं.
 
मौलाना कलीमुल्लाह कासमी आगे कहते हैं  कि कुरान और सुन्नत अपने आप में एक सर्वोच्च कानून हैं. इसके विपरीत, पश्चिम के धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्रों में, लोगों को शक्ति का स्रोत माना जाता है. उनके प्रतिनिधियों द्वारा तैयार किए गए संविधान को सर्वोच्च कानून माना गया है.
 
मौलाना कलीमुल्लाह कासमी कहते हैं  कि इस्लाम में मानवाधिकारों की व्यापक अवधारणा है. इस्लाम कर्तव्यों को अधिकारों के साथ समेकित करता है और दोनों को अविभाज्य बनाता है. मानो एक का कर्तव्य दूसरे का अधिकार हो और दूसरे का कर्तव्य पहले का अधिकार.
 
समाज का विकास, एकजुटता और राजनीति कर्तव्यों और अधिकारों के बीच संतुलन और अनुपात पर निर्भर करती है. व्यक्तियों की क्षमताओं को अधिकारों के अधिग्रहण के माध्यम से ही प्रकट किया जा सकता है, और ये क्षमताएं उनके कर्तव्यों के सर्वोत्तम प्रदर्शन और समाज के उत्थान की गारंटी देती हैं.
 
व्यक्तियों के अधिकारों और कर्तव्यों को पूरा करने के लिए समाज और दुनिया जिम्मेदार हैं. अधिकारों और कर्तव्यों के बिना, व्यक्ति अपनी क्षमताओं को व्यक्त नहीं कर सकते हैं और ना अपने व्यक्तित्व को पूरा कर सकते हैं, जो उनके और समाज के लिए हानिकारक है. अधिकारों और कर्तव्यों के बिना एक अच्छे और आदर्श समाज का सपना साकार नहीं हो सकता और अधिकारों और कर्तव्यों के बिना सभ्यता और संस्कृति का विकास असंभव है.
 
दूसरी ओर मानव अधिकारों की पश्चिमी अवधारणा अधूरी है और जीवन के सभी पहलुओं की व्याख्या नहीं करती है, लेकिन इस्लाम जीवन की एक पूर्ण संहिता है, जो जीवन के सभी पहलुओं पर प्रकाश डालता है और नियम और कानून प्रदान करता है.
 
इसका व्यावहारिक चित्र पवित्र पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की जीवनी में मिलता है, जिसमें मनुष्य के प्रति सम्मान और मनुष्य के मनोवैज्ञानिक व्यवहार और मनुष्य की राष्ट्रीय, सांस्कृतिक, आर्थिक और सामाजिक आवश्यकताओं का ध्यान रखा गया है. जकात और सदाकत को इंसानों के बीच आर्थिक समानता पैदा करने के लिए अनिवार्य कर दिया गया ताकि धन कुछ हाथों में केंद्रित न हो.
 
विदित हो कि इस्लाम में मानवाधिकार हर इंसान के लिए अनिवार्य हैं और उनका पालन भी अनिवार्य है. मानवाधिकारों का उल्लंघन करने वाले इस्लामी राजनीतिक व्यवस्था में सजा के पात्र हैं, लेकिन समकालीन पश्चिमी अर्थों में, मानवाधिकार केवल जोरदार नारे हैं और केवल सामान्य सिफारिशें हैं जो किसी पर लागू नहीं होती हैं.
 
नोटः यह लेखक के अपने विचार हैं.