अफगानिस्ताननामा : रूस ने ठुकराई मदद की गुहार

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 19-02-2022
अफगानिस्ताननामा : रूस ने ठुकराई मदद की गुहार
अफगानिस्ताननामा : रूस ने ठुकराई मदद की गुहार

 

अफगानिस्ताननामा: 46

 

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ब्रिटिश फौज का आत्मविश्वास इस बार कुछ ज्यादा ही था. उसके पास सिर्फ आधुनिकहथियार ही नहीं थे बल्कि संचार के नए तौर तरीके भी थे. नई तकनीक के जरिये अब सेनाकी विभिन्न टुकड़ियों के बीच वह संदेशों को आदान प्रदान करने के लिए ज्यादा अच्छीतरह तैयार थी. लेकिन यह आत्मविश्वास सिर्फ तकनीक के कारण ही नहीं था.

एक और कारण यह था कि ब्रिटेन ने बड़ी संख्या मेंसिखों को अपनी सेना में शामिल किया था. अफगानिस्तान से भिड़ने के इस सिख सेना के पास पुरानी अुनभव थे. वे सिख सैनिक ही थे जोपेशावर के इलाके को अफगानिस्तान से छीन चुके थे.

और वे भी सिख सैनिक ही थे जिनके बल परब्रिटिश के खिलाफ भारत में हुई 1857की पहली बगावत को दबाया गयाथा. इसके अलावा ब्रिटेन में और वहां कीसेना में ऐसे भी लोग थे जो पिछली लड़ाई का प्रतिशोध लेना चाहते थे.

हालांकि बहुत से लोगों को यह बात भी अच्छी तरह समझ आरही थी कि अफगानिस्तान पर हमला करना और काबुल तक पहुंच जाना ज्यादा कठिन नहीं है. तकनीक के मामले में पिछड़ेहोने के अलावा एक और कारण भी है जिसके चलते वहां आसानी से घुसा जा सकता था. वह यह था कि अफगानिस्तानके पास राष्ट्रीय सेना जैसी कोई चीज नहीं थी, जो किसी को भी अंदर आने से रोके.

यह काम आमतौर पर वहां केस्थानीय लड़ाकों के पास था जिन्हें हराना ज्यादा कठिन नहीं था. असली समस्या वहां घुसने केबाद टिके रहने थी. यह स्थिति हमें अफगानिस्तान के पूरे इतिहास में दिखाई देती है. लेकिन ब्रिटेन को लग रहाथा कि वह बाद में हालात संभाल लेगा.

शेर अली खान ने इस स्थिति को बदलने की कोशिश जरूर कीथी. उसने राष्ट्रीय सेनाका गठन किया था. सैनिकों के लिए वर्दी भी मुकर्रर की गई थी. लेकिन माना जाता है कि उसने जिन सैनिकोंको भर्ती भी किया था उनकी मूल वफादारी अफगानिस्तान के प्रति नहीं बल्कि अपने कबीलेके प्रति ही ज्यादा थी. एक दूसरी समस्या यह थी कि अफगान अर्थव्यवस्था इस स्थिति में नहीं थी कि सभीसैनिकों को नियमित तौर पर तनख्वाह दी जा सकती.

इन्हीं कारणों से यह बात शेर अली को समझ में आ रहीथी कि अगर हमला होता है तो उसके लिए बड़ी मुसीबत खड़ी हो सकती है. उसे लगा कि ब्रिटिश हमलेका जवाब सिर्फ रूस की मदद के साथ ही दिया जा सकता है. इसके लिए वह तुरंत मजारेशरीफ भागा, यानी अफगानिस्तान के उस इलाके में जो रूसकी सीमा के पास था.

वहां से शेर अली ने रूसी सेनापति कौफमैन के पास संदेश भेजा. यही कौफमैन कुछ समय पहलेकोशिश कर रहे थे कि रूस को काबुल में अपना मिशन स्थापित करने की इजाजत मिल जाए, लेकिन शेर अली बहाने बनाकर टालते रहे.

शेर अली चाहते थे कि रूस की सेना न सिर्फ इस लड़ाई में अफगानिस्तान का साथ देबल्कि अफगान सेना के लिए हथियारों के सप्लाई भी करे. जनरल कौफमैन ने साफ इंकार कर दिया. उन्होंन जवाबी संदेशभिजवाया कि रूस इस समय मदद करने की स्थिति में नहीं है, और शेर अली के लिए बेहतर यही होगा कि वे ब्रिटिश से कोई समझौता कर लें.

शेर अली रूस को ही इस मामले में अंतिम सहारा मान रहेथे. उन्होंने तय किया किवे खुद सेंट पीट्सबर्ग जाकर जार से मदद मांगेंगे. लेकिन दूसरी तरफ से फिर कौफमैन का संदेशआया कि सेंट पीटर्सबर्ग तक पहुंचे तो दूर वे अबू दरिया को पार करने की भी जुर्रत नकरें.

शेर अली वहां से निराश होकर काबुल नहीं लौटे बल्किबल्ख में चले गए. कभी आबाद रहा यह खूबसूरत शहर उस समय तक खंडहर में बदल चुका था. इसी खंडहर शहर में हताशशेर अली का 17 फरवरी 1879 में निधन हो गया. उस समय उन्होंने यह सोचाभी नहीं था कि जिस दूसरे ब्रिटिश अफगान युद्ध को लेकर वे इतने खौफ में हैं उसकाहश्र भी वही होगा जो पहले ब्रिटिश अफगान युद्ध का हुआ था. 

जारी...