अब्दुल हनीफ जैदीः विरासत फोटोग्राफी के पचास साल

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  [email protected] • 2 Years ago
फील्ड में एएच जैदी
फील्ड में एएच जैदी

 

नीलम गुप्ता

दिल्ली आ जाने के बाद शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि मैं कोटा गई और एएच जैदी से मुलाकात न हुई हो. फिर चाहे वे और उनकी पत्नी रजिया हमारे घर आते या मैं उनके. बातें करते-करते जैदी हम लोगों की कितनी ही फोटो खींच लेते और कभी-कभी तो खासतौर से.

फिर अगले दिन उनमें से कुछ के प्रिंट हाथ में थमा जाते. वे जब भी फोटो ले रहे होते, अंदर से अलग तरह की खुशी व एक्साइटमेंट रहता कि एक और एक्सक्लूसिव फोटो मिलेगी. उनकी खींची हुई फोटो को देखकर जितनी खुशी होती थी, उतना ही अपने प्रति भ्रम भी. क्या वास्तव में यह मैं ही हूं.

‘क्या वास्तव मे! यह सवाल मेरा ही नहीं, उनकी हर फोटो के साथ हर आम-ओ-खास का रहता है. फिर फोटो चाहे हाड़ौती की किसी नदी की हो, किले की हो या फिर किशोर सागर में किलोलें भरते प्रवासी पक्षियों की.

वर्ष 1970 के बाद से जब भी उनकी कोई फोटो स्थानीय अखबारों में छपी, उसने लोगों को हतप्रभ किया. वे सोचने पर मजबूर हो गए कि क्या यह हमारे शहर की वही जगह है, जिसे आते-जाते वे न जाने कितनी बार देखते रहे हैं.

कोटा शहर के तालाब के ठीक बीचोंबीच स्थित जगमंदिर अपने आप ही बहुत खूबसूरत है और हर किसी का ध्यान आकर्षित करता है. पर जैदी ने जब उसकी फोटो ली और वह अखबार में छपी, तो लोग उसे दुबारा-तिबारा देखने गए. बाद में तो पर्यटन विभाग ने उसे कोटा का सिंबल बनाकर प्रचारित किया.

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गुराड़िया महादेव  का नज़ारा

इसी तरह चंबल किनारे स्थित गडरिया जी महादेव पर बरसातों में पिकनिक मनाने आधे से ज्यादा कोटा व बूंदी उमड़ता है. भोले नाथ के दर्शन और प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद. पर जब उसी गडरिया जी महादेव की जैदी की फोटो स्थानीय अखबार में छपी, तो लोग चक्कर खा गए.

वहां जाकर हर प्रकार से देखने के बाद भी उन्हें समझ न आया कि यह फोटो कैसे लिया गया होगा. कोटा जिले के पर्यटन अधिकारी संदीप श्रीवास्तव के अनुसार उस फोटो को देखकर पहली बार किसी ने महसूस किया कि वहां चंबल मुस्कुराती है.’ खुद मैंने भी जब उसे देखा, तो लगा जैसे कि वह किसी टापू की फोटो है. सेाच ही नहीं सकती थी कि यह कोटा की चंबल है. राजस्थान फोटोग्राफी प्रतियोगिता 2003 में इस चित्र को प्रथम पुरस्कार मिला.

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चम्बल रिवर  जवाहर सागर की ऊंची ऊंची चट्टाने


ये दो चित्र मात्र उदाहरण हैं. अपने 50 साल के फोटोग्राफी के सफर में अब्दुल हनीफ जैदी ने न जाने ऐसे अनोखे, अद्भुत चिरस्मरणीय, दिल-ओ-दिमाग में उतर जाने वाले कितने ही चित्र अपने कैमरे में कैद किए और आज उनके पास करीब दस हजार ऐसे छायाचित्र हैं, जिन्हें हाड़ौती के प्राकृतिक सौंदर्य, इतिहास, पुरातत्व व संस्कृति का अनमोल खजाना कहा जा सकता है.

अपने इन छायाचित्रों के माध्यम से पूरे हाड़ौती क्षेत्र की इस अनमोल विरासत को उन्होंने सुरक्षित व संवर्धित किया है. आज इतिहास व पुरातत्व के छात्र अध्ययन के लिए उन पर निर्भर करते हैं. जिज्ञासु पर्यटक उन्हें अपना गाइड मानते हैं.

उनके छायाचित्रों ने कोटा के पर्यटन को तो बढ़ावा दिया ही है, फिल्म उद्योग को भी आकर्षित किया है. चंग, माचिस, बद्रीनाथ की दुल्हनिया, मर्दानी-2 जैसी फिल्में वहां बन पाईं, तो इसलिए कि इन फिल्मों के प्रोड्यूसरों को जैसी लोकेशन चाहिए थी, उनका पता जैदी की फोटोज से आसानी से लग जाता था.

करीब 40 साल के अपने प्रयासों से बॉलिवुड को अंततः कोटा में ले आने में सफल हुए लाइन प्रोड्यूसर सुभाष सोरल का कहना था-‘मेरी कामयाबी के पीछे बड़ा हाथ एएच जैदी का है. कोटा में प्राकृतिक सौंदर्य भरपूर है और उसमें जगह-जगह खंडहर पड़ी ऐतिहासिक इमारतें, राजाओं की हवेलियां, जंगल, पहाड़ तालाब यानि वह सभी कुछ, जो किसी भी फिल्मी कथानक को फिल्माने के लिए चाहिए.

पहले तो मैं जैदी भाई से ऐसे स्थलों की फोटो एलबम बनवाकर इसलिए मुंबई जाता था कि प्रोड्यूसर को दिखाकर कोटा में शूटिंग के लिए प्रेरित कर सकूं. अब जब टीवी सीरियल और फिल्म दोनों के लिए ही कोटा पसंदीदा जगह बनती जा रही है, तो मेरे पास जिस तरह की लोकेशन की मांग आती है, मैं जैदी भाई से डिस्कस करता हूं.

उनके पास पहले की कोई फोटो होती है, तो वे दे देते हैं, नहीं तो साथ चलकर खींच कर दे देते हैं.’ पर उन्हीं से क्यों, फोटोग्राफर तो और भी बहुत हैं कोटा में? पूछने पर वे कहते हैं- ‘हैं तो, पर जैदी जैसी समझ, एंगल व नजरिया उनके पास नहीं है.

वे जिस तरीके से फोटो खींचते हैं, उससे वहां की एक-एक चीज निकल कर सामने आ जाती है. उनके एंगल व सोच बहुत अच्छी है. दूसरा उनका कलेक्शन बहुत बड़ा व विविध है. सारी हाड़ौती का चप्पा-चप्पा उन्होंने बारीकी से छाना हुआ है. जैसे ही सामने वाले की मांग बताता हूं, वे बिना वक्त लगाए बता देते हैं कि इसके लिए फलां स्पाट ठीक रहेगा. ऐसा अनुभव व दूरदृष्टि औरों के पास नहीं.’

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कैमरों का कलेक्शन

पर्यटन अधिकारी संदीप श्रीवास्तव का कहना है, ‘उनका काम लाजवाब है. हमें भी जरूरत होती है, तो हम उनसे फोटो लेते हैं. हैरिटेज, संस्कृति व वन्य क्षेत्र में उनकी फोटोग्राफी का मुकाबला नहीं. उनका डाटा कलेक्शन यूनीक है. आज मेरे आफिस में सारी फोटो उन्हीं की लगी हुई हैं. कोटा के सर्किट हाउस, कलेक्टर के कांफ्रेस हाल, रेलवे स्टेशन, शहर के तमाम बड़े होटलों में उन्हीं के फोटो का डिस्प्ले है. फोटोग्राफी में आज वे कोटा के आइकॉन है. उनका किसी से मुकाबला नहीं.’

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रैन बसेरा रिजाॅर्ट की आखिरी तस्वीर

सही ही है. यह उनके फोटो ही थे, जिनसे लोग कोटा व बूंदी की संस्कृति से परिचित हो सके. वो संस्कृति, जो महलों के भीतर बंद थी. प्रसिद्ध कोटा दशहरा की राजा की यात्रा को महल के भीतर आमंत्रित मेहमान ही देख पाते थे.

जैदी ने अपने छायाचित्रों के जरिए उसे जन-जन तक पहुंचा दिया. बूंदी के महल की चित्रशाला, जो किताबों व कुछ राजसी लोगों तक ही सीमित थी, उसका परिचय लोगों से कराया. बूंदी से कोटा और झालावाड़ तक के रास्ते में गांवों में बिखरी पड़ी खंडहर, लावारिस ऐतिहासिक संपदा की तरफ सरकार व पुरातत्व विभाग का ध्यान उनके छाया चित्रों ने ही खींचा.

और आज तो उनके अपने ही कई छायाचित्र इस मायने में ऐतिहासिक हो गए हैं कि पिछले तीस-चालीस साल में बहुत से स्थानों, भवनों, किलों व प्राकृतिक स्थलों का स्वरूप बदल चुका है. उनके मूल स्वरूप की जानकारी जैदी के फोटो से ही मिलती है.

झालावाड़ जिले का छोटा सा पर बेहद खूबसूरत र्प्यटन स्थल रैन बसेरा 2012 में आग लगने से पूरी तरह खत्म हो गया. यह सारा लकड़ी का बना हुआ था. अगर किसी ने आज उसे देखना हो, तो वह जैदी के पास देख सकता है. सोरसन कभी गोडावण पक्षी का अपना इलाका था. पर शिकार के कारण उनकी संख्या कम होती चली गई और 22 साल पहले मात्र एक ही बचा था. बाद में वह भी खत्म हो गया. आज वहां कोई गोडावण पक्षी नहीं है. इस मायने में जैदी के पास 22 साल पहले खींची गई उसकी फोटो एतिहासिक महत्व की ही कही जाएगी.

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एएच जैदी के फोटो फीचर पत्र-पत्रिकाओं में भी अक्सर छपते रहे.

यही कारण है कि जैदी के पास इतिहास के शोधकर्ता छात्र और पुरातत्व विभाग के अधिकारी भी आते हैं. जैदी के अनुसार-देश ही नहीं विदेशों तक से शोधकर्ता छात्र मेरे पास आते हैं. मैं उन्हें अपने फोटो तो दिखाता ही हूं, जरूरत हो तो उस स्थान पर उनके साथ भी जाता हूं.

मेरे फोटो छपने के बाद बहुत से खंडहर हो चुके ऐतिहासिक स्थलों को पुरातत्व विभाग ने अपने संरक्षण में लिया. रावतभाटा रोड पर बाड़ौली का ऐतिहासिक मंदिर है. मुझे भी उसकी कोई जानकारी नहीं थी. एक बार इतिहाकारों की राष्ट्रीय संगोष्ठी कोटा में हुई.

वे उसके बारे में जानते थे. उन्हें वहां ले जाने का जिम्मा मुझे ही मिला. पहली बार देखा. खंडहर हालत में. उसके बाद तो मैंने लगातार वहां की फोटो खींच-खींच कर मीडिया को दिए. इससे पुरातत्व विभाग का ध्यान उस ओर गया.

तब उसने उसे अपने अधिकार में लिया. आज वह एक बेहद खूबसूरत र्प्यटन स्थल है. इसी तरह बारां जिले में विलास मंदिर को भी पुरातत्व विभाग ने मेरे फोटो छपने के बाद ही अपने अधिकार में लिया. यहां सैकड़ों की संख्या में छोटी-छोटी मूर्तियां हैं.

स्थानीय लोगों ने बहुत सी तोड़ दीं. कई चोरी हो गईं. अब वहां एक छोटा सा संग्रहालय बनाया गया है. अटरू गांव के गड़गच मंदिर में भी सैकड़ों मूर्तियां थीं. बहुत सी चोरी हो गईं. खंडहर हालत. फोटो छपे. तब राजस्थान पुरातत्व विभाग ने उसे अपने अधिकार में लिया.

बारां जिले के भंडदेवरा मंदिर समूह की जब 1975 में फोटो ली, तो पांच में से मात्र तीन मंदिर ही बचे थे. इस मंदिर की आकृति ऐसी है कि इसे खजुराहो का छोटा रूप कहा जाता है. मेरे द्वारा ली गई फोटो इस मंदिर की पहली फोटो थी. आज वह बारां जिले के सचिवालय में लगी हुई है.’

एक बार कोटा में मैंने जैदी से कहा, कोई ऐसी जगह दिखाइए, जो मैंने अभी तक नहीं देखी हो, तो वे कोटा शहर के बाहर स्थित किशोर सागर ले गए. इसे मैं पहले भी कई बार देख चुकी थी, पर अभी जो देखा, वह पहले कभी नहीं देखा था. सैकड़ों प्रवासी पक्षी. और उन्हें देखने के लिए बहुत से लोग भी वहां मौजूद थे. ऐसे ही पक्षियों पर शोध कर रही एक छात्रा भी उनकेे साथ आई.

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विहंगम दृश्य बून्दी

जैदी का कहना है कि हाड़ौती क्षेत्र पानी से भरपूर है. अरावली का पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण यहां बड़े-बड़े तालाब भी बहुत हैं. बरसात में हर तरफ से बहते झरनों के मधुर संगीत कानों में रस घोल जाता है. राजमहलों में लगी पेंटिंग्स से पता लगता है कि ये पक्षी दो सौ साल से भी पहले से यहां आ रहे हैं.

पर इनकेे बारे में प्रचार नहीं था, तो इसलिए कि इधर के लोगों / राजाओं ने इस ओर कभी ज्यादा ध्यान नहीं दिया और वन्य अधिकारियों ने इसे प्रचारित करने की जरूरत नहीं समझी. अन्यथा घना अभ्यारणय से कम प्रवासी पक्षी नहीं होते यहां.

स्थानीय पक्षियों की विविधता भी बहुत है. इनके फोटो मैने खींचे. अखबारों में छपे. उदपुरिया तालाब के स्थानीय पक्षी पेटेंड स्टोर्क की फोटो पहली बार 1995 में अखबारों को दी. यह जगह इस पक्षी का प्रजनन केंद्र भी है.

उन्होंने बताया कि इसी तरह उमेदगंज, अलनिया, अभेड़ा, बरधा, जामूनिया, भीमलत, रामगढ़ तालाब / रिजर्व फारेस्ट की फोटो मीडिया को दिए. कभी-कभी तो चार -पांच दोस्त मिलकर जाते और बाइनोक्यूलर से वहां आए प्रवासी पक्षियों की अलग-अलग जातियों की गिनती करते. फोटों के साथ वह भी अखबार को बताते.

इससे उस खबर का महत्व तो बढ़ता ही, देखने के लिए आने वालों की संख्या भी बढ़ जाती. आज इन सभी तालाबों के इर्द-गिर्द फिल्मों या टावी / वेब सीरियलों की शूटिंग होती है. ये सभी प्रकृतिक स्थल होने के साथ-साथ इस मायने में ऐतिहासिक हैं कि इनके भीतर राजाओं के ग्रीष्मकालीन महल या फिर शिकारगाह भी थे हैं.’

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पेंटेट स्टोर्क  बर्ड उदपुरिया

जैदी ने 1968 में जब फोटोग्राफी सीखना शुरू किया, तब शहर में और भी कई फोटोग्राफर थे. सभी व्यावसायिक. फिर क्या कारण है कि वे रचनात्मक फोटोग्राफी की ओर मुड़ गए, जबकि उन्हें उस समय अपने परिवार के लिए पैसे की जरूरत थी.

वे कहते हैं-‘मैंने चित्रकला में एमए किया था. बीए में इतिहास को पढ़ा था. मेरे पिता वैसे तो एक निजी कंपनी में नौकरी करते थे. पर वे पंेटिग के शौकीन थे. उनके पास दो कैमरे थे. बहुत मामूली से. वे उनसे लैंडस्केप्स की फोटो खींच कर लाते और उसे पेंटिंग में ढाल देते.

इस तरह बचपन से ही पेंटिंग व फोटोग्राफी दोनों में मेरा रूझान हो गया. परिवार बड़ा था. इसलिए पिता की आय से गुजारा नहीं हो पाता था. रूझान होने के कारण सोचा, क्यों न फोटोग्राफी अच्छी तरह से सीखकर वही काम कर लिया जाए.

मेरा एक मौसेरा भाई एक स्टूडियो में काम कर रहा था. मैं भी उसके पास बैठने लगा. फिर छोटा सा याशिका कैमरा खरीदा. दोस्तों के साथ आस-पास कभी चंबल, कभी बूंदी निकल जाता और फोटो खींचता रहता. बूंदी में मेरी ननिहाल है. वहां रुक जाता.

जैदी बताते हैं कि 1974 में कोटा के राजकीय महाविद्यालय में ड्राइंग में एमए व इस फोटोग्राफी की वजह से ही जुओलॅाजी विभाग में फोटोग्राफर की नौकरी मिल गई. वहां छात्रों के साथ कई बार बाहर जाना होता. खाली समय में मैं अपनी फोटोग्राफी करता रहता.

सरकारी नौकरी मिल जाने के बाद सारी तनख्वाह घर खर्च के लिए पिता जी की दे देता. फोटोग्राफी का खर्च निकालने के लिए शादियों की फोटोग्राफी करने लगा. दो और कैमरे खरीदे. कभी दोस्तों के साथ, तो कभी अकेला ही साइकिल पर निकल जाता और प्राकृतिक स्थलों की फोटो खींचता रहता.

धीरे-धीरे सोच बढ़ने लगी. उस जगह पर बार-बार जाकर अलग-अलग ऐंगल से उसे देखता. सुबह शाम दोपहर में उसे देखता. इससे इन जगहों का सौंदर्य मेरे सामने खुलने लगा और मैं ऐसे समय पर उन्हें अपने कैमरे में बंद करता, जब वे अपने सौंदर्य के चरम पर होते थे. जो कोई भी इन फोटो को देखता, तारीफ करता. हौसला बढ़ता गया. कालेज का अधिकतर फोटोग्राफी का काम मेरे पास आने लगा. बाहर भी मांग बढ़ने लगी. जैसे-जैसे पैसा हाथ में आता गया, तो मैं उच्चतर कोटि के कैमरे खरीदता गया. अब तक मेरे पास कोटा व बूंदी के ऐतिहासिक व प्रकृतिक स्थलों के फोटो का अच्छा कलेक्शन हो गया था.

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उन्होंने बताया कि कोटा इंस्ट्रूमेंटशन के पीआरओ रामकुमार वर्मा अपने आर्टिकल के साथ मेरे फोटो स्वागत, पर्यटन विभाग व जर्मनी की पत्रिकाओं में भेजते. उनके लिए मैंने पैनोरमा बनाने शुरू किए. इससे विदेशियों का परिचय भी हाड़ौती के प्रकृतिक व ऐतिहासिक स्थलों से होने लगा.

कोटा या बूंदी उस समय देश-दुनिया के पर्यटन के नक्शे पर नहीं था. पर मेरे फोटो देखकर कई विदेशी पर्यटक अपने तौर पर यहां आते और मुझे साथ लेकर उन जगहों को देखने जाते. अखबारों से भी मांग आने लगी थी. ऐसे में स्लाइड बनाने लगा.

इसका लाभ यह हुआ कि कोटा दशहरा मेला, राजस्थान दिवस, पर्यटन दिवास आदि पर स्लाइड शो करने लगा. स्कूल कालेजों में भी शो किए. कोटा दशहरा में प्रतिदिन करीब पांच हजार से ज्यादा लोग मेले में आते हैं. राजमहल के भीतर की दशहरा यात्रा पहली बार उन्हें मेरे शो पर ही देखने को मिली.

1984 में विरासत पर काम करने के लिए सरकार की ओर से पुरस्कार मिला. यूनिसेफ ने एक प्रोजेक्ट दिया, जिसमें गांवों में आंगनबाड़ियों से लेकर बच्चों की शिक्षा के विभिन्न प्रकार के फोटो व स्लाइड शो बनाने थे. 1995 में इनटैक (इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर्र आअ एंड कल्चरल हैरिटेज) ‘हैरिटेज आफ हाड़ौती’ पर शो करने जा रहा था.

उसके लिए अधिकतर फोटो मेरे ही लिए गए. इसके लिए हुई जिलाधीशों की बैठक में जब बूंदी के कलेक्टर मधुकर गुप्ता ने मेरा कलेक्शन देखा, तो बूंदी महोत्सव की योजना बनाई. 1996 में वह महोत्सव हुआ, जन भागीदारी से.

उसमें 80 फुट के पंडाल में मेरे फोटो की प्रदर्शनी लगी और स्लाइड शो चले. वेबसाइट अलग से तैयार की गई. सोवेनियर में भी 34 में से 28 फोटो मेरे ही थे. कलेक्टर ऑफिस के गेट पर पांच फुट का बूंदी महल का फोटो लगाया गया, जो कई साल तक लगा रहा.

मेयर हो या एनजीओ अथवा अधिकारी किसी को भी अगर विदेश में हाड़ौती संस्कृति पर कुछ दिखाना होता है, तो वे मेरी स्लाइड्स लेकर जाते थे. अब तो पूरी वेबसाइट ही बन गई है. इंग्लैंड, जर्मनी व फ्रांस समेत भारत में 200 से भी ज्यादा स्लाइड शो हो चुके हैं. हाड़ौती के अलावा जयपुर व दिल्ली में 200 से ज्यादा प्रदर्शनियां लग चुकी हैं.’

क्षेत्रीय व राष्ट्रीय महत्व के इस काम के लिए कई जिला प्रशासन व कई स्थानीय व क्षेत्रीय सामाजिक संस्थाओं ने तो जैदी को सम्मनित किया ही, राजस्थान सरकार ने भी अपने सर्वोच्च सम्मान से पुरस्कृत किया है. आल इंडिया टूरिज्म व वाइल्ड लाइफ ने ब्लैकनेक स्ट्रोक नेस्टिंग के फोटो के लिए उन्हें विशेष रूप से सम्मानित किया. ऑल राजस्थान वन्यजीव व पर्यावरण फोटो प्रतियोगिता में राजस्थान के पहले दस छायाकारों में उन्होंने अपना स्थान बनाया.

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जैदी इतना सब कर सके, क्योंकि फोटोग्राफी उनके लिए कोई धंधा या शौहरत का जरिया नहीं, रुहानी जनून था. वे कहते हैं -‘इस जनून को पूरा करने के लिए मैंने अपन घर परिवार पर कम ध्यान दिया.’ विवाह करके कराची से कोटा आई पत्नी रजिया को भी बहुत जल्द समझ में आ गया कि उनका पहला प्यार वह नहीं, फोटोग्राफी है.’

रजिया कहती है- ‘शुरू-शुरू में मुझे बहुत अजीब लगता कि ये न सुबह देखते हैं न शाम. एकदम से कैमरा उठाते हैं और चल देते हैं और फिर घंटों कुछ पता नहीं. कभी-कभी तो सुबह के गए शाम को ही घर लौटते. बुरा लगता. पर फिर जिस तरह से इन्होंने मुझे समझाया या फिर मैंने इनके पास आने वाले बड़े-बड़े लोगों को देखा, मैं खुद भी इनके काम में रचती-बसती चली गई.

माडलिंग के लिए ये लड़कियों को मेरे सामने ही अपनी बाइक पर बिठाकर ले जाते. इनके दोस्त मुझ से मजाक करते, तो मैं भी हंस कर कह देती कि मैंने खुद ही तो भेजा है.’ बस इतना ही नहीं, जैदी दूसरों को खिलाने के भी बेहद शौकीन हैं. रोजा-ए-इफ्तार पर रोज ही  मेहमानों के लिए भी दस्तरखान सजता. हम सभी को इंतजार होता था कि रजिया भाभी के हाथ के खाने का, जो नॉन वेज ही नहीं है, वेज भी, ऐसे कराचिया स्टाइल में बनाती थीं कि सब अंगुलिया चाटते रह जाते.

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सोरसन का आखिरी गोदावन पक्षी

वाइल्ड लाइफ पर जब पूरा ध्यान देना शुरू किया, तो बांबे नैचुरल सोसायटी के मेंबर बन गए. वहां से पक्षियों की पहचान करने का हुनर सीखा. फिर कोटा में हाड़ौती नेचुरल सोसायटी की स्थापना करवाई. आज भी उसके उपाध्यक्ष हैं. कुछ साल पहले जब दरा सेंक्चुरी को मुकुंदरा हिल टाइगर रिजर्व में बदल दिया गया, तो उसकी टूरिज्म एडवाइजरी कमेटी में जैदी को भी रखा गया.

जैदी कहते हैं-‘काम को सीखने की ललक रहती थी. किसी भी पत्रिका में कोई अच्छा फोटो देखता, तो उसका अध्ययन करता. फिर अपने कैमरे से प्रयोग करके देखता. तब तक लगा रहता ,जब तक कि हूबहू इफे्क्ट न आ जाता.

फिर चाहे कितने ही नेगेटिव खराब क्यों न हो जाते. फोटो कभी मैंने फोर इनटू ट्वैलव से नीचे के नहीं लिए. किसी भी जगह पहले रेकी कर लेता हूं. आज मेरे पास तीस से भी ऊपर कैमरे हैं, जिनसे मैंने काम किया. भले ही मोबाइल के भीतर बहुत हाई रिजोल्यूशन के कैमरे अब मिल जाते हैं, पर इन कैमरों से फोटो लेने की बात ही कुछ अलग है.

जैदी ने अपना हुनर अपने तक ही नहीं रखा. राजस्थान पत्रिका के शिक्षा कार्यक्रम के तहत उन्होंने एक हजार से भी ज्यदा छात्रों को फोटोग्राफी की बारीकियां सिखाईं. आज कोटा में जितने भी प्रेस फोटोग्राफर हैं, उनमें से अधिकांश उनके शागिर्द हैं.

अपोजिट लाइट उनकी फोटोग्राफी की खास विशेषता है. उसकी बारीकियों को मैंने भी कभी उनसे सीखा था. उनके दो बेटों में से एक फोटोग्राफर है. उसका अपना स्टूडियो है. जैदी कहते हैं ‘वह विरासत फोटोग्राफी में नहीं आया. संयुक्त परिवार को चलाने के लिए पैसा जो चाहिए. हो सकता है शहर में से कोई निकल आए.’