अरविंद कुमार
उर्दू के मशहूर नक्काद एवं नोवलिस्ट शम्सुर्रहमान फारुकी के कोरोना के कारण इंतकाल से उर्दू की दुनिया कुछ महीनों से उदास तो थी ही, अब शमीम हनफी जैसे नामचीन स्कॉलर नाटककार और नक्काद के इंतकाल से यह दुनिया थोड़ी और उदास और महरूम हो गई है.
उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर में 1938 में जन्मे हनफ़ी साहब का गुरुवार को शाम 5 बजे के करीब सिटी हॉस्पिटल में कोरोना के कारण निधन हो गया. वह 82 वर्ष के थे उनके परिवार में उनकी पत्नी के अलावा दो बेटियां हैं. हनफी साहब उर्दू के उन चंद अदीबों में से थे, जो हिंदी में भी बाकायदा लिखते थे और हिंदी अदब की दुनिया से ही भी उनका उतना ही रिश्ता था. प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह, ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कवि कुंवर नारायण, केदारनाथ सिंह और सुप्रसिद्ध कवि संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेयी जैसे लोग उनके अजीज दोस्तों में थे. उनके साथ उनकी कई शामें भी गुजरीं.
जामिया विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के अध्यक्ष रहे महेंद्र पाल शर्मा कहते हैं, "जब मैंने जामिया में नौकरी शुरू की थी तो नामवर जी ने मुझे उनके बारे में बताया था और कहा था कि आप हनफी साहब से जरूर मिले. उनके कहने पर मैं उनसे मिलता रहा, बल्कि धीरे-धीरे उनके परिवार से भी घुलमिल गया और उनसे काफी कुछ मुझे सीखने का मौका भी मिला. वह एक रोशनख्याल इंसान थे और पूछते रहते थे कि हिंदी में क्या कुछ लिखा जा रहा है.”
हिंदी के दिवंगत कवि केदारनाथ सिंह भी अपने मित्रों से हनफी साहब का जिक्र जरूर किया करते थे. हनफी साहब रजा फाउंडेशन के कार्यक्रमों में भी अशोक वाजपेयी के मेहमान हुआ करते थे.
जामिया विश्वविद्यालय के प्रो. वजाउद्दीन अल्वी बताते हैं, “शमीम साहब 1976 में जामिया में आए थे और मुझसे 20 सालेक पहले यानी करीब 2000 के आसपास वे डीन बने थे. इतना ही नहीं, शाहिद मेहंदी के कुलपति बनने से पहले वह कुछ दिन जामिया के कार्यवाहक कुलपति भी थे.”
जामिया आने से पहले वे अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय में अध्यापक थे. अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय से डी लिट उन्होंने किया था और इलाहाबाद विश्विद्यालय से उर्दू में एमए तथा पीएचडी की थी. उन्होंने 1965 में पहला नाटक ‘आखिरी खुश’लिखा था. ‘मिट्टी का बुलावा’और ‘बाजार में नींद’भी उनके चर्चित नाटक थे.
शमीम हनफी को आधुनिकता का बड़ा स्कॉलर माना जाता था और वह उर्दू अदब में जदीदियत के बारे में बहुत ही गंभीर ढंग से विचार करते थे. जदीदियत फलसीफियाना अहसास (फिलॉसफी ऑफ मॉडर्निज्म) और नई शायरी की रिवायत उनकी एक चर्चित किताब भी है.
उन्होंने गालिब और मंटो पर भी लिखा था. इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पढ़े-लिखे शमीम हनफी की दस किताबें साया हुई थी. उनकी हिंदी में भी दो किताबें छपी थीं.
जनवादी लेखक संघ ने उनके निधन पर शोक व्यक्त करते हुए कहा, "उर्दू की साहित्यिक आलोचना में हनफ़ी साहब का क़द बहुत ऊँचा रहा है. ‘जदीदियत की फलसफ़ियाना असास’, ‘नई शेरी रवायत’, ‘उर्दू कल्चर और तक़सीम की रवायत’, ‘मंटो हक़ीक़त से अफ़साने तक’, ‘ग़ालिब की तख्लीक़ी हिस्सियत’, ‘ग़ज़ल का नया मंज़रनामा’ आदि उनकी मशहूर किताबें हैं. वे अच्छे शायर और ड्रामानिगार भी थे. ‘आख़िरी पहर की दस्तक’ उनकी शायरी का मज्मूआ है. उनके लिखे नाटकों में ‘मिट्टी का बुलावा’, ‘बाज़ार में नींद’ और ‘मुझे घर याद आता है’ प्रमुख हैं. शमीम हनफ़ी साहब का निधन उर्दू-हिंदी की साझी दुनिया के लिए एक बहुत बड़ी क्षति है. हम एक बार फिर उनकी स्मृति को सादर नमन करते हैं."
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं)