मेहमान का पन्नाः उर्दू और सरकारी संस्थाएं

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] | Date 16-01-2022
प्रतीकात्मक तस्वीर
प्रतीकात्मक तस्वीर

 

wasayप्रो. अख़्तरुल वासे

सन् 1947 के बाद उर्दू ना जाने कितने उतार चढ़ाव से गुज़री और उर्दू वालों की मेहनत के परिणामस्वरूप एक गुजराल कमेटी बनी, जिसके फलस्वरूप पहले तरक़्क़ी उर्दू बोर्ड बना जो अब क़ौमी कौंसिल बराए फ़रोग़-ए-उर्दू ज़बान (राष्ट्रीय उर्दू भाषा विकास परिषद) के नाम से सरगर्म-ए-अमल (सक्रिय) है. मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी की स्थापना संभव हुई. उत्तर प्रदेश में एच. एन. बहुगुणा और उस वक़्त के गवर्नर मीर अकबर अली ख़ान के प्रयासों से देश की पहली उर्दू एकेडमी वजूद (अस्तित्व) में आई,

फिर देखते ही देखते लगभग बारह उर्दू एकेडमियां वजूद (अस्तित्व) में आ गईं. यह भी दिलचस्प (रोचक) बात है कि उत्तराखण्ड में उर्दू एकेडमी स्थापित करने के लिए उस वक़्त के मुख्यमंत्री श्री विजय बहुगुणा ने एक कमेटी बनाई जिसका चेयरमैन लेखक को बनाया गया और उसने जो रिपोर्ट मुख्यमंत्री को दी उसी के आधार पर उत्तराखण्ड उर्दू एकेडमी बनी, उस वक़्त भी अगर श्री एच. एन. बहुगुणा के बेटे मुख्यमंत्री थे तो जनबा अज़ीज़ कुरैशी साहब प्रदेश के गवर्नर.

इसी तरह केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री श्री कपिल सिब्बल ने उर्दू भाषा के विकास से संबंधित एक कमेटी बनाई जिसका चेयरमैन भी लेखक ही को बनाया गया था और हमने अपनी रिपोर्ट दिसम्बर 2013 में उस वक़्त के मानव संसाधन विकास मंत्री श्री पल्लम राजू को पेश कर दी थी. उसमें हमने जो विशेष बात कही थी वह इस प्रकार थीः-

-स्कूलों में प्रवेश के लिए तीन भाग होने चाहिए

1- एक यह कि बच्चे की मातृभाषा क्या है?

2-माता-पिता बच्चे को किस भाषा के माध्यम से शिक्षा दिलाना चाहते हैं?

3-तीसरी भाषा के रूप में वह किस भाषा को लेना चाहते हैं? उदाहरण के तौर पर अगर वह उर्दू को लेना चाहते हैं तो फिर स्कूलों के पास बिना कारण उर्दू पढ़ने वालों की संख्या में किसी कमी का बहाना नहीं रहेगा।

इसी प्रकार उर्दू में बाक़ायदा प्रशिक्षित और डिग्रीधारी शिक्षकों का एक राष्ट्रीय रजिस्टर तैयार किया जाए ताकि उर्दू शिक्षकों की कमी का जो रोना रोया जाता है वह सिलसिला हमेशा के लिए बन्द हो जाए. इसके अतिरिक्त जितनी संस्थाएं उर्दू के नाम पर स्थापित की गई हैं उनमें जो लोग नौकरी कर रहे हैं या नौकरी प्राप्त करना चाहते हैं उनमें उर्दू लिखने-पढ़ने की क़ाबिलियत होनी चाहिए.

इसके अतिरिक्त जामिआ उर्दू अलीगढ़ (जो एक एतिहासिक महत्व की संस्था है और जिसने उर्दू में डिस्टैंस लर्निंग का प्रोग्राम उस वक़्त शुरू किया था जब इसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी.) को एक डीम्ड टू बी यूनिवर्सिटी (Deemed to be University)का दर्जा दे दिया जाए. इसी तरह अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू (हिन्द) जिसकी स्थापना हुए सौ साल से ज़्यादा समय गुज़र चुका है, के जनरल सेक्रेट्री को एक पद के तौर पर राष्ट्रीय उर्दू भाषा विकास परिषद (क़ौमी कौंसिल बराए फ़रोग़-ए-उर्दू ज़बान) की एग्जीक्यूटिव कमेटी का मेम्बर अनिवार्य रूप से मनोनीत किया जाए.

इधर दूरदर्शन पर पिछले लगभग एक दशक से प्रतिदिन दस न्यूज़ बुलेटिन उर्दू में प्रसारित होते थे, उनमें तीन आधा-आधा घण्टे के और शेष पांच-पांच मिनट के होते थे. इन न्यूज़ बुलेटिनों को केवल भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया के बहुत से देशों में बड़े शौक़ से एवं बड़ी संख्या में देखा जाता था. मार्च 2020 में कोरोना महामारी के दौर में दूरदर्शन न्यूज़ ने जब अपने प्रसारण को सीमित किया तो उर्दू न्यूज़ बुलेटिन भी रोक दिए गए और सिर्फ़ आधा-आधा घण्टे के दो बुलेटिन प्रसारित होते रहे.

अब जबकि दूरदर्शन न्यूज के दूसरी भाषाओं के बुलेटिन और उस पर दूसरे प्रसारण को पुरानी हालत में बहाल हुए एक लम्बा वक़्त बीत चुका है लेकिन उर्दू ख़बरों का प्रसारण अभी भी वैसे ही सीमित है .

जबकि उर्दू न्यूज के देश भर में फैले हुए दर्शक विभिन्न माध्यमों से बार-बार अपना अनुरोध दूरदर्शन के ज़िम्मेदारों तक पहुंचाते रहे हैं कि प्रतिदिन पहले की तरह फिर से दस उर्दू न्यूज बुलेटिन कर दिए जाएं और ऐसा केवल दूरदर्शन में ही हो रहा हो, सही नहीं बल्कि आकाशवाणी के उर्दू प्रसारण भी कोरोना के वक़्त सीमित कर दिए गए थे.

लेकिन दूसरे प्रसारण के साथ उनका प्रसारण शुरू नहीं किया गया. अगर दूरदर्शन और आकाशवाणी में उर्दू के प्रोग्राम और अन्य प्रोग्राम बहाल हो जाएं तो उसका सबसे ज़्यादा फ़ायदा सरकार ही को होगा.

एक तो उनकी बहाली उर्दू बोलने वालों के बीच एक सकारात्मक संदेश बन कर पहुंचेगी, दूसरे सरकार के जनकल्याण के कामों और पालीसियों को उर्दू बोलने और समझने वाली बड़ी आबादी तक उनके द्वारा पहुंचाया जा सकेगा.

उर्दू के साथ इस दुखदायी मनोवृत्ति का मामला तो दूरदर्शन और आकाशवाणी ने अभी कुछ दिनों पहले की बात है लेकिन भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने ना जाने कब से उर्दू ज़बान में कहानी, वार्तालाप और गीतों से सजी फ़िल्मों को उर्दू की जगह हिन्दी का सर्टिफ़िकेट देती आई है, और इसमें सारा दोष सेंसर बोर्ड का नहीं है बल्कि उन फ़िल्म निर्माताओं का भी है जो अपनी विदेशी बाज़ार में ख़पत और सफलता के लिए उर्दू के स्थान पर हिन्दी का सर्टिफ़िकेट मांगते हैं. फिर भी अब जब बोलती फ़िल्मों को 90 साल से ज़्यादा का समय बीता जा रहा है, जिस प्रकार सेंसर बोर्ड फ़िल्म में बातचीत, संवाद की अदायगी, गीतों के बोल पर नज़र रखता है उसी तरह उसे यह भी देखना चाहिए कि फ़िल्मों को भाषाओं के आधार पर जो सर्टिफ़िकेट दिया जाए वह फ़िल्म की भाषा से पूरी तरह मिलता-जुलता हो.

इस बारे में ज़्यादती कहें या धांधली, सबसे भद्दा उदाहरण उमराव-जान फ़िल्म की है, जो कि मिर्ज़ा हादी रुस्वा के मशहूर उर्दू नावेल की कहानी पर बनाई गई लेकिन कैसी हास्यास्पद बात है कि उसे सर्टिफ़िकेट हिंदी का मिला. फ़िल्म सेंसर बोर्ड प्रोडयूसर्स की इस बेताबी और बेचैनी का नाजायज़ फ़ायदा उठाता है कि वह बिना किसी झगड़े में पड़े अपनी फ़िल्म को जल्दी से जल्दी दर्शकों तक पहुंचाना और बिजनेस करना चाहता है ताकि फ़िल्म में लगाया हुआ पैसा जल्दी से जल्दी वापस आ सके. यहीं पर कुछ ना कुछ ऐसे व्यावहारिक क़दम उठाने चाहिए कि उर्दू ज़बान के साथ यह नाइंसाफ़ी ना हो सके.

(लेखक जामिआ मिल्लिया इस्लामिया में प्रोफ़ेसर एमरिटस (इस्लामिक स्टडीज़) हैं।)