प्रो. अख्तरुल वासे
भारत में समाजिक समस्याओं का एक बड़ा भाग महिलाओं से संबंधित है. मुस्लिम समाज की महिलाएं भी कई क्षेत्रों में पिछड़ेपन और भ्रम की स्थिति से जूझ रही हैं. जब मुस्लिम समाज की समग्र समस्याओं का एक बड़ा भाग महिलाओं से संबंधित है, तो यह देखना बाकी है कि मुसलमानों ने एक योजना के तहत इन समस्याओं को हल करने के लिए सामूहिक रूप से क्या कुछ किया है ? और इस संबंध में, विशेष रूप से महिलाओं के संबंध में, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने क्या कदम उठाए हैं? और अभी भी और क्या कदम उठाने की आवश्यकता है ?
हमारे बाप-दादाओं ने बड़ी सत्यनिष्ठा और सत्यवादिता के साथ 1972 में मुंबई में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की स्थापना की और देश के विभिन्न विचारधाराओं और क्षेत्रों को प्रतिनिधित्व देकर इसे एक एकीकृत निकाय बनाने का प्रयास किया था.
यह बात तो सभी कहते हैं, और यह सच भी है कि इस्लाम ने महिलाओं को अधिकार दिये हैं, उन्हें सम्मान और प्रतिष्ठा के उच्च पद पर स्थान दिया है, उन्हें पूर्ण व्यक्तित्व प्रदान किया है, और उन्हें सामाजिक जीवन में पुरुषों के समान बनाया है, लेकिन व्यवहारिक रूप में क्या हमारे देश में मुस्लिम महिलाओं के पास यह सब कुछ प्राप्त हैं? इसे विस्तार से देखने की आवश्यकता है.
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड में मुस्लिम महिलाओं का प्रतिनिधित्व नगण्य रहा है और आज भी प्रतिनिधित्व उस अनुपात में नहीं है, जितना होना चाहिए था. जब महिलाओं के मुद्दों को केवल महिलाएं ही बेहतर समझ सकती हैं, तो उन्हें यह अवसर क्यों नहीं दिया जाना चाहिए ?
महिलाओं से बातचीत और संवाद बहुत आवश्यक है. इसके बिना, गलत धारणाओं का उदय होता है और पुरुषों की श्रेष्ठता की धारणा मजबूत होने लगती है. ऑल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष हजरत मौलाना काजी मुजाहिद-उल-इस्लाम कासमी ने इस आवश्यकता को महसूस करते हुए पहली बार मुस्लिम विद्वानों और मुस्लिम महिलाओं के बीच सीधा संवाद शुरू किया था और वह कार्यक्रम बहुत सफल और फलदायी रहा था.
ऐसे समय में जब मुस्लिम महिलाएं बोर्ड के अभिजात वर्ग तथा पुरूष सदस्यों की चिंताओं और संघर्षों से अवगत हैं, उन पुरुषों को भी पता है कि महिलाओं की वास्तविक समस्याएं क्या हैं? उन्हें किस प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है ?
इन समस्याओं के समाधान के लिए कितनी चिंता स्वयं महिलाओं में पायी जाती है, एवं वे अपने धर्म और अपनी शरीअत से कितना प्यार करती हैं? दुर्भाग्यवश, बाद में यह क्रम ज्यादा समय तक नहीं चला, तथा समस्याएं फिर गंभीर होती चली गईं.
यदि कोई महिला शुक्रवार के उपदेश में महर की राशि के शरई (इस्लामी कानून) मुद्दे पर हजरत उमर फारूक रजि. को टोक सकती है और उमर फारूक जैसे महान सहाबी (पैगम्बर मुहम्मद के साथी) शरियअत और कानूनी मुद्दों पर कानून बनाने से पहले महिलाओं की राय ले सकते हैं, तो आज मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसी प्रतिष्ठित संस्था के मंच पर उनका प्रतिनिधित्व और उनके साथ संवाद क्यों नहीं किया जा सकता है?
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने निकाह को आसान बनाने का अभियान शुरू किया है. यह सच है कि शादी की आसानी और कम खर्च समाज की समस्याओं को कम कर देगी, लेकिन क्या केवल उपदेश और सलाह ही समस्या का समाधान हो सकते हैं ?
क्या कारण था कि उमर फारूक जैसे खलीफा ने, एक महिला को पुरुष प्रधान वाणिज्यिक बाजार का अधीक्षक नियुक्त किया था? क्या इससे यह बात समझ में नहीं आती कि इस पद पर एक महिला की नियुक्ति, जहां उसके स्वयं के लिए वित्तीय आत्मनिर्भरता का एक स्रोत थी, बाजार में व्यवसाय करने वाली अन्य महिलाओं के लिए प्रोत्साहन का माहौल प्रदान करती थी ?
आज हमारे समाज में बहुत सी ऐसी महिलाएं हैं जो आर्थिक रूप से संघर्ष कर रही हैं, और उनका जीवन शरीयत की आसानियों से वंचित हो गया है. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को इस पर ध्यान देना होगा.
इसी से जुड़ा मामला जमीन और संपत्ति में महिलाओं के हिस्से का है. महिलाओं को सामान्यतया विरासत में हिस्सा नहीं दिया जाता है. कुछ क्षेत्रों में उन्हें कृषि भूमि के अपने हिस्से से कानूनी रूप से वंचित कर दिया गया है. इस समस्या ने भी उनके आर्थिक संकट को बढ़ा दिया है.
यदि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड अपनी मजबूत महिला सदस्यों के माध्यम से इस तरह के मुद्दों को हल करने के लिए कदम उठाता है, तो परिणाम निश्चित रूप से अलग और उत्साहजनक होंगे.
आज महिलाएं शिक्षा के क्षेत्र में भी काफी पीछे हैं. आर्थिक तंगी के कारण मुस्लिम परिवार शिक्षा के क्षेत्र में निरंतर पिछड़ रहे हैं. हजरत मुहम्मद सल्ल. ने महिलाओं की शिक्षा पर समान ध्यान दिया था.
हजरत आयशा, हजरत हफ्सा, हजरत उम्मे सलमा जैसी महिलाओं का शैक्षिक स्तर पुरुषों से बेहतर था, और उन्होंने पुरुषों और महिलाओं दोनों को शिक्षा प्रदान की. जब मां शिक्षित होती है तो उसकी गोद में पली-बढ़ी पीढ़ी शिक्षा में आगे बढ़ती है.
आज लड़कों के शैक्षिक पिछड़ेपन का एक कारण महिलाओं की शिक्षा का अभाव है. क्या शिक्षा के बिना सामाजिक कुरीतियां समाप्त हो सकती हैं? विवाह और तलाक की समस्याओं एवं अन्य सामाजिक बुराइयों पर अंकुश लगाने के लिए महिलाओं को शिक्षित करना नितांत आवश्यक है. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को इस पर विशेष रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है.
अच्छी खबर यह है कि मुस्लिम समाज में शिक्षित और बुद्धिमान महिलाओं की कमी नहीं है. कई मुद्दों पर, उनकी पुरुषों से अलग राय होनी चाहिए, लेकिन उसका इस्लाम और उसके शरीयत के प्रति उतना ही लगाव है, जितना कि पुरुष कर सकते हैं.
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को ऐसी मुस्लिम महिलाओं से संपर्क करना चाहिए और उनसे लाभ उठाना चाहिए. विचारों की भिन्नता और मतभेद इस्लाम के लोकतांत्रिक चरित्र की अभिव्यक्ति हैं, और इसके कई उत्कृष्ट उदाहरण पैगंबर के युग के साथ-साथ खलीफाओं के युग में भी देखे जा सकते हैं.
यदि बोर्ड का ऐसी महिलाओं के साथ मजबूत संपर्क है, तो यह न केवल इन महिलाओं की शरीअत की समझ को मजबूत करेगा, बल्कि उन्हें अन्य मुस्लिम महिलाओं के साथ-साथ देश की अन्य धर्मों की महिलाओं के बीच इस्लाम का बेहतर प्रतिनिधित्व करने में सक्षम बनाएगा. लेकिन यह तभी संभव होगा, जब ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड अपने दिमाग को खुला रखने और मतभेदों को स्वीकार करने के लिए तैयार हो.
स्वयं को सीमित करके समाज के आधे-अधूरे हिस्से से दूर जाना कोई बुद्धिमानी नहीं है. सभी को साथ लेकर और हर मतभेद एवं विचार तथा राय से फायदा उठाकर ही कौम को सफलता की मंजिल तक ले जाना बेहतर है. अब जबकि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड अपने अस्तित्व की आधी सदी पूरी करने वाला है, क्या मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड स्वर्ण जयंती के अवसर पर महिलाओं के प्रति कुछ उदार और व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाएगा?
(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया के प्रोफेसर एमेरिटस (इस्लामिक स्टडीज) हैं).