प्रो. अख्तरुल वासे
17वीं शताब्दी में मुगल बादशाह शाहजहां द्वारा बनवायी गयी दिल्ली की ऐतिहासिक जामा मस्जिद आजादी के बाद लाल किले की प्राचीर से आजाद भारत के हर प्रधानमंत्री संबोधन का साक्षी रही है. जिसे भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण अधिनियम से बाहर रखते हुए पिछले 75 वर्षों में हर जमाने में विशेष निर्णयों के तहत इसके रख-रखाव और मरम्मत संबंधी आवश्यकताओं के लिए केंद्र सरकार द्वारा उपेक्षित नहीं किया गया था, लेकिन यह एक अजीब संयोग है कि केंद्र सरकार के रवैये में अचानक अप्रत्याशित बदलाव आया है, जिसका सबूत इस बात से जाहिर होता है कि राज्यसभा में सांसद पी.वी. अब्दुल वहाब द्वारा 8 दिसंबर, 2021 को पूछे गए सवाल के जवाब में केंद्रीय राज्यमंत्री सुश्री मीनाक्षी लेखी ने कहा कि चूंकि जामा मस्जिद पुरातत्व अधिनियम एक्ट-1958 के अंतर्गत नहीं आती है. इसलिए सरकार इसमें आवश्यक मरम्मत का काम नहीं करेगी. जबकि अभी तक पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर डॉ. मनमोहन सिंह और श्री नरेंद्र मोदी तक की सरकारों ने ऐसा कोई फैसला नहीं लिया था. 5 जनवरी 2021 को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के पुराने किला सब-सर्कल के आरटीआई द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार सरकार ने जामा मस्जिद में रख-रखाव और मरम्मत के काम पर पिछले पांच सालों में जो कुछ खर्च किया गया, उसका विवरण इस प्रकार हैः वर्ष 2017-18 में 13,20,598.00 रूपये, वर्ष 2018-19 में 13,89,794.00 रूपये और साल 2019-20 व 2020-21 में 13,48,476.00 रूपये.
अब कौन किससे पूछे कि अगर जामा मस्जिद पुरातत्व विभाग के तहत संरक्षित भवनों में शामिल नहीं होने की कारण सुश्री मीनाक्षी लेखी के अनुसार सरकारी खर्चे पर रख-रखाव और आवश्यक मरम्मत की श्रेणी में नहीं आती, तो फिर 1956 से 2021 तक किस श्रेणी के तहत सरकार जामा मस्जिद के रख-रखाव और मरम्मत पर पैसा खर्च करती रही? यदि हम थोड़ा पीछे जाएं, तो वर्तमान शाही इमाम सैयद अहमद बुखारी के दादा स्वर्गीय सैयद हमीद बुखारी, जो उस वक्त शाही इमाम थे. वे एक प्रतिनिधिमंडल के साथ तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू से मिले थे और उनसे अनुरोध किया था कि यह इबादतगाह जिसमें हजारों नमाजियों (उपासकों) के अतिरिक्त भारत सरकार के विदेशी विशिष्ट अतिथियों तथा असंख्य देशी-विदेशी पर्यटक जियारत (दर्शन) करने आते हैं, वह बहुत ही जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है. इसकी हालत को देखते हुए जरूरी है कि भारत सरकार इसकी मरम्मत की जिम्मेदारी ले ले और यदि सरकार का इसकी मरम्मत की जिम्मेदारी नहीं लेगी, तो हम जनता के दान से खुद इसकी मरम्मत करा लेंगे. इस पर प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इस इबादतगाह की मरम्मत के काम को विशेष श्रेणी में कराने के आदेश जारी किए और उन्होंने कहा कि यह इबादतगाह देश की सम्पत्ति है. अगर जनता के दान से इसकी मरम्मत की जाती है, तो दुनिया में हमारे देश की बदनामी होगी.
यह भी अजीब संयोग है कि 10 अगस्त 2004 को वर्तमान शाही इमाम जनाब सैयद अहमद बुखारी ने इस संबंध में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को एक पत्र लिखा था कि ‘मुझे यह कहते हुए खेद है कि पुरातत्व विभाग ने पिछले कुछ सालों में मरम्मत का काम पूरी तरह से बंद कर दिया है, और मुझे ए.एस.आई. द्वारा लिखित में सूचित किया गया है कि पुरातत्व विभाग किसी ऐतिहासिक इमारत के संरक्षण और मरम्मत का काम तभी कर सकता है, जब इमारत को संरक्षित स्मारक घोषित किया गया हो.’ जिसके जवाब में, डॉ मनमोहन सिंह साहब ने 20 अक्तूबर 2004 को शाही इमाम को उनके पत्र के जवाब में लिखा कि ‘‘मैंने संस्कृति मंत्रालय और पुरातत्व विभाग को तय समय-सीमा के अंदर सम्पूर्ण मरम्मत करने का निर्देश दिया है, और यह भी निश्चित किया है कि संस्कृति मंत्रालय जामा मस्जिद को 1958 के पुरातत्व अधिनियम के तहत संरक्षित भवन घोषित ना करे.’
दिल्ली की जामा मस्जिद केवल एक मस्जिद ही नहीं, बल्कि पूरे एशिया में न केवल ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण है, अपितु भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र और धार्मिक सहिष्णुता का एक जीता-जागता प्रमाण भी है. यहां यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि 1956 के बाद पिछले कुछ वर्षों तक जामा मस्जिद में आवश्यक कर्मचारियों के साथ पुरातत्व विभाग का एक कार्यालय उपस्थित था.
आज यह ऐतिहासिक इमारत खतरनाक हालत में है और शाही इमाम सैयद अहमद बुखारी ने 6 जून 2021 को एक पत्र में प्रधानमंत्री को इसकी जानकारी दी थी, लेकिन पता नहीं आज तक उस पर आवश्यक जरूरी कार्रवाई क्यों नहीं हुई? शाही इमाम ने इस पत्र में बड़ी स्पष्टता के साथ लिखा था कि इस टूटी-फूटी और जर्जर हालत के कारण कभी भी कोई बड़ा हादसा हो सकता है. शाही इमाम ने एक बयान में यह भी कहा कि अगर सरकार इस संबंध में आर्थिक रूप से अक्षम है, तो आगा खान फाउंडेशन को मस्जिद के अंदर आवश्यक मरम्मत करने की अनुमति दे दी जाए.
इसके अलावा पूर्व केंद्रीय मंत्री शशि थरूर ने भी केंद्रीय संस्कृति मंत्री और महानिदेशक ए. एस. आई. को इस संबंध में एक पत्र लिखा है. उनके अलावा अमरोहा से सांसद और एक बहुत ही सक्रिय युवा राजनेता कुंवर दानिश अली ने भी संसद में सरकार का ध्यान इस ओर आकर्षित किया है.
हम आशा करते हैं कि केंद्र सरकार इस संबंध में आवश्यक कदम उठाएगी, इसकी अपेक्षा की जानी चाहिए और यदि सरकार इसके लिए तैयार नहीं है तो उसको मुसलमानों से दो टूक शब्दों में यह साफ कह देना चाहिए कि वह अपने साधनों और संसाधनों का उपयोग करते हुए इस ऐतिहासिक मस्जिद को संरक्षित करने और बचाए रखने के लिए जो प्रयास कर सकते हैं, स्वयं करें. लेकिन हमें आशा है कि ऐसा वक्त नहीं आएगा, क्योंकि यह विषय केवल मुसलमानों की एक इबादतगाह का नहीं नहीं है, बल्कि भारत की ऐतिहासिक विरासत को संरक्षण एवं सरकार की उदारता का भी है, क्योंकि अगर मुसलमान जनता के चंदे से खुद इसकी मरम्मत के लिए आगे आऐंगे तो जवाहरलाल नेहरू के अनुसार ‘इससे दुनिया में हमारे देश की बदनामी होगी.’
हम केंद्र सरकार और विशेष रूप से हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, जिन्होंने ‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’ की बात कही थी, उनसे यह पूरी अपेक्षा रखते हैं कि इस मामले में बिना देर किए उचित और सकारात्मक कदम उठाएंगे.
लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया के प्रोफेसर एमेरिटस (इस्लामिक स्टडीज) हैं.