टूटी और जीर्ण-शीर्ण दिल्ली की जामा मस्जिद के रख-रखाव का प्रश्न?‎

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  [email protected] | Date 19-12-2021
दिल्ली की जामा मस्जिद
दिल्ली की जामा मस्जिद

 

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प्रो. अख्तरुल वासे‎

‎17वीं शताब्दी में मुगल बादशाह शाहजहां द्वारा बनवायी गयी दिल्ली की ‎‎ऐतिहासिक जामा मस्जिद आजादी के बाद लाल किले की प्राचीर से आजाद भारत के हर ‎प्रधानमंत्री संबोधन का साक्षी रही है. जिसे भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण अधिनियम से बाहर ‎रखते हुए पिछले 75 वर्षों में हर जमाने में विशेष निर्णयों के तहत इसके रख-रखाव और ‎मरम्मत संबंधी आवश्यकताओं के लिए केंद्र सरकार द्वारा उपेक्षित नहीं किया गया था, ‎लेकिन यह एक अजीब संयोग है कि केंद्र सरकार के रवैये में अचानक अप्रत्याशित बदलाव ‎आया है, जिसका सबूत इस बात से जाहिर होता है कि राज्यसभा में सांसद पी.वी. ‎अब्दुल वहाब द्वारा 8 दिसंबर, 2021 को पूछे गए सवाल के जवाब में केंद्रीय राज्यमंत्री सुश्री ‎मीनाक्षी लेखी ने कहा कि चूंकि जामा मस्जिद पुरातत्व अधिनियम एक्ट-1958 के अंतर्गत ‎नहीं आती है. इसलिए सरकार इसमें आवश्यक मरम्मत का काम नहीं करेगी. जबकि अभी ‎तक पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर डॉ. मनमोहन सिंह और श्री नरेंद्र मोदी तक की ‎सरकारों ने ऐसा कोई फैसला नहीं लिया था. 5 जनवरी 2021 को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ‎‎(एएसआई) के पुराने किला सब-सर्कल के आरटीआई द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार ‎सरकार ने जामा मस्जिद में रख-रखाव और मरम्मत के काम पर पिछले पांच सालों में जो ‎कुछ खर्च किया गया, उसका विवरण इस प्रकार हैः वर्ष 2017-18 में 13,20,598.00 रूपये, वर्ष ‎‎2018-19 में 13,89,794.00 रूपये और साल 2019-20 व 2020-21 में 13,48,476.00 रूपये.‎

अब कौन किससे पूछे कि अगर जामा मस्जिद पुरातत्व विभाग के तहत संरक्षित ‎भवनों में शामिल नहीं होने की कारण सुश्री मीनाक्षी लेखी के अनुसार सरकारी खर्चे पर ‎रख-रखाव और आवश्यक मरम्मत की श्रेणी में नहीं आती, तो फिर 1956 से 2021 तक ‎किस श्रेणी के तहत सरकार जामा मस्जिद के रख-रखाव और मरम्मत पर पैसा खर्च करती ‎रही? यदि हम थोड़ा पीछे जाएं, तो वर्तमान शाही इमाम सैयद अहमद बुखारी के दादा ‎स्वर्गीय सैयद हमीद बुखारी, जो उस वक्त शाही इमाम थे. वे एक प्रतिनिधिमंडल के साथ ‎तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू से मिले थे और उनसे अनुरोध किया था कि ‎‎यह इबादतगाह जिसमें हजारों नमाजियों (उपासकों) के अतिरिक्त भारत सरकार के विदेशी ‎विशिष्ट अतिथियों तथा असंख्य देशी-विदेशी पर्यटक जियारत (दर्शन) करने आते हैं, वह ‎बहुत ही जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है. इसकी हालत को देखते हुए जरूरी है कि भारत ‎सरकार इसकी मरम्मत की जिम्मेदारी ले ले और यदि सरकार का इसकी मरम्मत की ‎जिम्मेदारी नहीं लेगी, तो हम जनता के दान से खुद इसकी मरम्मत करा लेंगे. इस पर ‎प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इस इबादतगाह की मरम्मत के काम को विशेष ‎श्रेणी में कराने के आदेश जारी किए और उन्होंने कहा कि यह इबादतगाह देश की सम्पत्ति ‎है. अगर जनता के दान से इसकी मरम्मत की जाती है, तो दुनिया में हमारे देश की ‎बदनामी होगी.

यह भी अजीब संयोग है कि 10 अगस्त 2004 को वर्तमान शाही इमाम ‎जनाब सैयद अहमद बुखारी ने इस संबंध में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को ‎‎एक पत्र लिखा था कि ‘मुझे यह कहते हुए खेद है कि पुरातत्व विभाग ने पिछले कुछ ‎सालों में मरम्मत का काम पूरी तरह से बंद कर दिया है, और मुझे ए.एस.आई. द्वारा लिखित ‎में सूचित किया गया है कि पुरातत्व विभाग किसी ऐतिहासिक इमारत के संरक्षण और ‎मरम्मत का काम तभी कर सकता है, जब इमारत को संरक्षित स्मारक घोषित किया गया ‎हो.’ जिसके जवाब में, डॉ मनमोहन सिंह साहब ने 20 अक्तूबर 2004 को शाही इमाम को ‎उनके पत्र के जवाब में लिखा कि ‘‘मैंने संस्कृति मंत्रालय और पुरातत्व विभाग को तय ‎समय-सीमा के अंदर सम्पूर्ण मरम्मत करने का निर्देश दिया है, और यह भी निश्चित किया ‎है कि संस्कृति मंत्रालय जामा मस्जिद को 1958 के पुरातत्व अधिनियम के तहत संरक्षित ‎भवन घोषित ना करे.’

दिल्ली की जामा मस्जिद केवल एक मस्जिद ही नहीं, बल्कि पूरे एशिया में न केवल ‎‎ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण है, अपितु भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र और धार्मिक सहिष्णुता ‎का एक जीता-जागता प्रमाण भी है. यहां यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि 1956 के बाद ‎पिछले कुछ वर्षों तक जामा मस्जिद में आवश्यक कर्मचारियों के साथ पुरातत्व विभाग का ‎‎एक कार्यालय उपस्थित था.

आज यह ऐतिहासिक इमारत खतरनाक हालत में है और शाही इमाम सैयद अहमद ‎बुखारी ने 6 जून 2021 को एक पत्र में प्रधानमंत्री को इसकी जानकारी दी थी, लेकिन पता ‎नहीं आज तक उस पर आवश्यक जरूरी कार्रवाई क्यों नहीं हुई? शाही इमाम ने इस पत्र में ‎बड़ी स्पष्टता के साथ लिखा था कि इस टूटी-फूटी और जर्जर हालत के कारण कभी भी ‎कोई बड़ा हादसा हो सकता है. शाही इमाम ने एक बयान में यह भी कहा कि अगर ‎सरकार इस संबंध में आर्थिक रूप से अक्षम है, तो आगा खान फाउंडेशन को मस्जिद के ‎अंदर आवश्यक मरम्मत करने की अनुमति दे दी जाए.

इसके अलावा पूर्व केंद्रीय मंत्री शशि थरूर ने भी केंद्रीय संस्कृति मंत्री और ‎महानिदेशक ए. एस. आई. को इस संबंध में एक पत्र लिखा है. उनके अलावा अमरोहा से ‎सांसद और एक बहुत ही सक्रिय युवा राजनेता कुंवर दानिश अली ने भी संसद में सरकार ‎का ध्यान इस ओर आकर्षित किया है.

हम आशा करते हैं कि केंद्र सरकार इस संबंध में आवश्यक कदम उठाएगी, इसकी  ‎अपेक्षा की जानी चाहिए और यदि सरकार इसके लिए तैयार नहीं है तो उसको मुसलमानों ‎से दो टूक शब्दों में यह साफ कह देना चाहिए कि वह अपने साधनों और संसाधनों का ‎उपयोग करते हुए इस ऐतिहासिक मस्जिद को संरक्षित करने और बचाए रखने के लिए जो ‎प्रयास कर सकते हैं, स्वयं करें. लेकिन हमें आशा है कि ऐसा वक्त नहीं आएगा, क्योंकि यह ‎विषय केवल मुसलमानों की एक इबादतगाह का नहीं नहीं है, बल्कि भारत की ऐतिहासिक ‎विरासत को संरक्षण एवं सरकार की उदारता का भी है, क्योंकि अगर मुसलमान जनता के ‎चंदे से खुद इसकी मरम्मत के लिए आगे आऐंगे तो जवाहरलाल नेहरू के अनुसार ‘इससे ‎दुनिया में हमारे देश की बदनामी होगी.’

हम केंद्र सरकार और विशेष रूप से हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, जिन्होंने ‎‎‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’ की बात कही थी, उनसे यह पूरी अपेक्षा ‎रखते हैं कि इस मामले में बिना देर किए उचित और सकारात्मक कदम उठाएंगे.

लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया के प्रोफेसर एमेरिटस (इस्लामिक स्टडीज) ‎हैं.