विदेश नीतिः सिद्धांतवादी रुख अपनना आंख मूंदकर फॉलोअर बनने से कहीं बेहतर

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] | Date 16-04-2022
प्रधानमंत्री मोदी, विदेश मंत्री एस. जयशंकर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल
प्रधानमंत्री मोदी, विदेश मंत्री एस. जयशंकर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल

 

आतिर खान/ प्रधान संपादक की कलम से

जब इतिहास में सही पक्ष में रहने की कला की बात आती है, तो भारत को किसी उपदेश की जरूरत नहीं है. पचहत्तर साल पहले, अपने राष्ट्र ने एक नरम दृष्टिकोण के साथ शुरुआत की, लेकिन आज यह अत्यधिक संवेदनशील अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर सैद्धांतिक और दृढ़ रुख अपना रहा है.

हाल ही में, प्रधानमंत्री मोदी ने एक संग्रहालय का उद्घाटन किया, जो भारत के पूर्व प्रधानमंत्रियों की उपलब्धियों को प्रदर्शित करता है. संग्रहालय तीन मूर्ति में स्थित है, जो पंडित जवाहरलाल नेहरू से जुड़ा रहा है, और गुटनिरपेक्ष आंदोलन और पंचशील जैसे उनके राजनयिक विरासतों की याद दिलाता है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केवल उन सिद्धांतों को मजबूत किया है, जिनपर नेहरू जी ने दृढ़ता से टिके रहने की राह चुनी थी, खासकर गुटनिरपेक्षता का सिद्धांत. जबसे भारत को आजादी मिली है, वह हमेशा एक द्विध्रुवीय दुनिया में गुटनिरपेक्षता के पक्ष में रहा है. ताकि यह विकासशील, गरीब, लोकतांत्रिक देशों के हितों की रक्षा के लिए पहुंच सके, जहां गरीबी उन्मूलन जैसे मुद्दे प्राथमिकता रहे हैं न कि किसी और देश के हितों की लड़ाई लड़ने के लिए उसका साया बनना.

भारत ने बेशक, गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाई है लेकिन वैश्विक मामलों में वह कभी भी निष्क्रिय दर्शक नहीं बना रहा है. रूस-यूक्रेन युद्ध के मुद्दे पर पीएम मोदी, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के नेता के रूप में, युद्धरत देशों में एक-दूसरे के साथ शांति से रहने की अपील करते रहे हैं.

भारत उन कुछेक देशों में से एक है जो ऐसी किसी भी हिंसा के खिलाफ है. ऐतिहासिक रूप से भारतीय नेताओं ने बातचीत और कूटनीति के माध्यम से ऐसे सभी मुद्दों के शांतिपूर्ण समाधान पर जोर दिया है. भारत जैसे देश के लिए यह महत्वपूर्ण है कि इस तरह के संघर्ष व्यापार और आर्थिक संतुलन को बिगाड़ न सकें. भारत को भुखमरी, गरीबी, बेरोजगारी और विकास जैसे अपने मुद्दों से लड़ने की जरूरत है.

देश की नस्लीयता, धर्म और अर्थव्यवस्था की अपनी आंतरिक समस्याएं हैं, जिन्हें समय के साथ हल करने की जरूरत है, भारत को एक स्टैंड लेने की जरूरत है जो अल्पकालिक लाभ की बजाए सैद्धांतिकता पर आधारित हो.

भारत को पड़ोसी देश पाकिस्तान, चीन और अफगानिस्तान से सबसे कठिन सुरक्षा गड़बड़ियों का सामना करना पड़ता है, हालांकि हाल के दिनों में इसने अपनी सुरक्षा चुनौतियों को पारिभाषित करने और उनसे निपटने की क्षमता और कौशल में बढ़ोतरी हासिल कर ली है. लेकिन वर्तमान रूस-यूक्रेन परिदृश्य का उपयोग भारत को गुटनिरपेक्षता के अपने सैद्धांतिक रुख से विचलित करने के लिए एक उदाहरण के रूप में नहीं किया जा सकता है.

आइए हम इस संकट के नजरिए से भारत द्वारा की गई कार्रवाइयों का विश्लेषण करते हैं.

भारत ने संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों में रूस के खिलाफ मतदान से परहेज किया लेकिन साथ ही उसने युद्धग्रस्त यूक्रेन को भोजन और दवा सहित मानवीय सहायता प्रदान की. ऐसा तब हुआ जब इस पर रूस की तरफ प्रतिक्रिया का अंदेशा था. यह देखते हुए कि भारत का लगभग सत्तर प्रतिशत सैन्य हार्डवेयर रूसी मूल का है और रूस के साथ राजनयिक, सैन्य और ऊर्जा संबंधी संबंधों की लंबी विरासत है, भारत से यूक्रेन को इस तरह की मदद महत्वपूर्ण बनी हुई है.

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि रूस ने संयुक्त राष्ट्र में अपनी वीटो शक्तियों का उपयोग करके कम से कम छह बार कश्मीर मुद्दे पर भारत का समर्थन किया है. चीनी सुरक्षा संबंधी मामलों की दृष्टि से भी रूस का समर्थन महत्वपूर्ण है. इन सभी तथ्यों के बावजूद भारत ने तटस्थ रुख अपनाने में संकोच नहीं किया.

इस संकट के दौरान भारत के सामने एक बड़ा मुद्दा रूस पर नाटो देशों द्वारा लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों और प्रतिबंधों से निपटना है. इसमें तेल और गैस खरीदने पर प्रतिबंध भी शामिल है. एक करीबी सहयोगी के रूप में अमेरिका और अन्य सदस्य देशों ने भारत से इन प्रतिबंधों का शब्दशः पालन करने की अपेक्षा की थी. इन परिस्थितियों में भारत यह सवाल करने के लिए मजबूर है कि वैध ऊर्जा के लेनदेन का राजनीतिकरण क्यों किया जाना चाहिए?

विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने स्पष्ट रूप से कहा कि नाटो सदस्यों द्वारा की गई खरीद की तुलना में रूसी तेल और गैस की भारतीय खरीद केवल मामूली है. किसी को यह सवाल करना चाहिए कि भारत में गरीबों को तेल की ऊंची कीमतों के जरिए महाशक्तियों की रणनीतिक महत्वाकांक्षाओं की कीमत भला क्यों चुकानी चाहिए.

भारत सरकार ने भारतीय उपभोक्ताओं के लिए ऊर्जा सुरक्षा की दिशा में काम करने के लिए सही कदम उठाए हैं, न कि आंख मूंदकर उस स्टैंड का पालन किया जहां भारत एक पार्टी नहीं है. यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि हाल के दिनों में अपने सीमित संसाधनों और बढ़ती आबादी के बावजूद, भारत संकट में दुनिया को मानवीय सहायता देने में हमेशा उदार रहा है, चाहे श्रीलंका हो, नेपाल हो या अफगानिस्तान.

भारत ने ऐसे समय में टीकों की आपूर्ति करके दुनिया को सर्वोत्तम संभव चिकित्सा सहायता दी, जब पश्चिमी शक्तियां कोविड -19 महामारी के दौरान उनकी जमाखोरी में व्यस्त थीं.

सवाल यह है कि भारत, जो हमेशा मानवीय कारणों और अहिंसा के लिए खड़ा रहा है, को एक ऐसे रास्ते पर चलने के लिए मजबूर किया जा रहा है जो उसकी ऊर्जा सुरक्षा को खतरे में डाल देगा और सीमित आपूर्ति बाजार में कच्चे तेल की कीमतों को ऐसे स्तर तक बढ़ा देगा, जिससे भारत के विकास को स्थायी रूप से चोट पहुंच सकती है.

भारतीय प्रधानमंत्रियों ने हमेशा यह समझा है कि भू-राजनीतिक परिवर्तन अपरिहार्य हैं. कॉपरनिकस की बदौलत हम सभी जानते हैं कि हम ब्रह्मांड का केंद्र नहीं हैं और हम एक घूमने वाली दुनिया में रह रहे हैं, जो कम्युनिफोबिया से इस्लामोफोबिया की ओर बढ़ गया है और अब यह रूसोफोबिया की ओर बढ़ रहा है.

ऐसे गतिशील परिदृश्य में यदि भारत अपने मूल सिद्धांतों के आधार पर दृढ़ रुख नहीं अपनाता है, तो यह इस देश की सार्वभौमिक विदेश नीति के साथ समझौता करना हो जाएगा. इस बात का डर है कि यह किसी महाशक्ति के साथ गठबंधन कर सकता है और फिर हमारे साथ भी वही होगा जो पाकिस्तान के साथ जो हुआ है.

पाकिस्तान के मामले में उनकी विदेश नीति सबसे पहले साम्यवाद से लड़ने की थी क्योंकि अमेरिका साम्यवाद के खिलाफ लड़ रहा था. फिर इस्लामिक कट्टरपंथियों से लड़ने के लिए क्योंकि अमेरिका अल कायदा से लड़ रहा था. यह दुनिया को देखना है कि वह आज कहां खड़ा है.

पूर्वी यूरोप में विकसित हो रही स्थिति और इसके लंबे इतिहास का भी गहन विश्लेषण करने की आवश्यकता है. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान- रूस, पोलैंड और जर्मनी कई बार दुश्मनों के दोस्त बन गए थे और फिर कई बार दोस्तों के दुश्मन बन गए थे. और यह सब बगैर किसी सिद्धांत के महज सुविधा पर आधारित था.

यह भी याद रखना चाहिए कि नाटो का गठन अनिवार्य रूप से रूसी प्रभाव को रोकने के लिए किया गया था, खासकर यूरोप में. अब 1991 में यूएसएसआर के विघटन के बाद, नाटो अप्रासंगिक हो जाना चाहिए था, लेकिन पिछले तीस वर्षों में यह न केवल बरकरार रहा है, बल्कि अधिकांश राष्ट्रों या तत्कालीन सोवियत ब्लॉक के सदस्यों के रूप में भी जुड़ गया है।

रूस की सीमाओं पर नाटो सैन्य हथियारों की तैनाती से उस क्षेत्र में ऐतिहासिक संतुलन को खतरा है। इस तरह की हरकतें उत्तेजक प्रकृति की होती हैं और यूक्रेन जैसे देशों को इस तरह के संगठन में शामिल करने का कोई भी प्रस्ताव रूस के साथ टकराव का एक रेडीमेड नुस्खा है.

यह याद रखना होगा कि फिनलैंड जैसे देश की रूस के साथ एक बड़ी सीमा होने के बावजूद पिछले सत्तर वर्षों में कोई समस्या नहीं हुई, जबकि इससे पहले वह रूस के साथ कई युद्ध लड़ चुका है. फ़िनलैंड ने नाटो का सदस्य बनकर नहीं बल्कि रूस के साथ घनिष्ठ और संप्रभु संबंध विकसित करके उनकी सुरक्षा सुनिश्चित की.

अफगानिस्तान, सीरिया, इराक, यमन और लीबिया में अमेरिका और उसके नाटो सहयोगियों द्वारा युद्धों को कौन भूल सकता है? इनमें से कई युद्ध एक ही देश के एजेंडे के आधार पर लड़े गए. इन युद्धों को सही ठहराने के लिए झूठी बुद्धि और प्रचार का इस्तेमाल किया गया, जिनका एकमात्र उद्देश्य लोकतंत्र को बचाना या आम लोगों की मदद करना नहीं था.

इसलिए, भारत जैसे संप्रभु देश के लिए यह महत्वपूर्ण है कि इस तरह की किसी भी उत्तेजना को बारीकी से निबटा जाए और हमें किसी गठबंधन में शामिल होने के जाल में न फंसने से पहले अपना मूल्यांकन करना चाहिए, वरना ऐतिहासिक भूल करने का खतरा है.

शीत युद्ध कम्युनिफोबिया पर लड़ा गया था और देशों को कम्युनिस्ट विरोधी ब्लॉक में शामिल होने के लिए लगातार दबाव बनाया जाता रहा. फिर इस्लामोफोबिया का युग आया जहां यह माना गया कि इस्लामी कट्टरवाद सभी बुराइयों की जड़ है और भारत जैसे देशों को अपनी समस्याओं से निबटने के लिए इस्लामोफोबिया के मार्ग का अनुसरण करना चाहिए.

अब नया पैंतरा रूसोफोबिया है जहां भारत को लगातार यह उपदेश दिया जा रहा है कि वे रूस विरोधी रुख अपनाकर इस समय इतिहास के सही पक्ष को चुनें. कुछ विदेशी राजनयिक तो भारत को इस रुख को स्वीकार करने के लिए परोक्ष रूप से धमकी देने के स्तर तक उतर गए. इसमें भारत-चीन सीमा संघर्ष का खतरा भी शामिल है, जो भविष्य में और बढ़ सकता है.

पीएम मोदी और उनकी सक्षम टीम ने देश की रक्षा के लिए सभी मोर्चों पर आवश्यक क्षमता को तेजी से बढ़ाया है, और वे रक्षा निर्माण में आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए एक रोडमैप भी तैयार कर रहे हैं. भारतीयों ने हमेशा साहस दिखाया है जब उन्हें अपने राष्ट्रीय कर्तव्यों में शामिल होने का आह्वान किया गया है.

90 के दशक में भारत इस्लामी कट्टरवाद से उत्पन्न होने वाली सुरक्षा चुनौतियों के कारण अमेरिका का सहयोगी बन गया. जब आतंकवादी ने इच्छा से भारत पर हमला किया तो गंभीर चुनौतियां सामने आईं. उस समय भारत को उग्रवाद पर अंकुश लगाने की आवश्यकता थी, विशेष रूप से जो विदेशी इस्लामी उग्रवादियों के रूप में भारत को निर्यात किया जाता था. हालांकि, वह नीति उग्रवाद और अतिवाद के खिलाफ थी. भारत का कभी भी इस्लामोफोबिक रुख नहीं था और उसने कभी भी इराक, सीरिया, यमन या लीबिया पर पश्चिम के साथ गठबंधन नहीं किया, वास्तव में उसने हमेशा सशस्त्र संघर्षों की निंदा की, चाहे वह किसी भी कारण से हो.

हाल ही में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने एक संबोधन में कहा था कि भारत अहिंसा का पालन करेगा लेकिन उसके पास एक छड़ी भी होगी. वे शायद यह कहना चाहते थे कि एक देश जो सामरिक मुद्दों के लिए दूसरों पर निर्भर है, उसका सही शासन नहीं हो सकता है. और रुख स्पष्ट करने की क्षमता सामरिक शक्ति से आती है, एक मजबूत सुरक्षा तंत्र, जो अब भारत के लिए उपलब्ध है.

सैन्य उपकरणओं और कच्चे तेल के लिए विश्व शक्तियों पर भारत की निर्भरता को हमेशा अपनी विदेश नीति तय करने के लिए उसके कवच में एक कमजोरी माना गया है. हालांकि, इन सभी समयों में, भारतीय कूटनीति हमेशा गुटनिरपेक्षता, अहिंसा और विकासशील लोकतांत्रिक दुनिया के कारण पर आधारित थी.

1.3 अरब लोगों के देश को यदि उसे प्रासंगिक बने रहना है और अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में अपने सैद्धांतिक रुख पर कायम रहना है तो अपनी सामरिक और ऊर्जा सुरक्षा की रक्षा करनी होगी.

बेशक, सभी युद्धों की निंदा की जानी चाहिए लेकिन साथ ही युद्ध के लिए उकसावे की भी निंदा की जानी चाहिए. मानव जीवन की गुणवत्ता और भलाई हमारे लिए सर्वोच्च प्राथमिकता है और एक देश के रूप में, हम ऐसे युद्धों की मानवीय लागत को समझते हैं.

अधिक युद्ध के लिए गोला-बारूद उपलब्ध कराकर युद्धों को समाप्त नहीं किया जा सकता है. अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति को आर्थिक प्रतिबंधों के माध्यम से अपमानित करने के बजाय बातचीत के साथ संघर्षों के समाधान की दिशा में होना चाहिए. एक मजबूत भारतीय विदेश नीति इस बार एक कठिन परीक्षा से गुज़र रही है; हालांकि, एक अधिक आश्वस्त भारत इस चुनौती को पूरे रंग के साथ पार करने के लिए निश्चित है.