अफगानिस्तान से अमेरिकी फौज लौटने के पहले तैयारी जरूरी

Story by  मुकुंद मिश्रा | Published by  [email protected] | Date 07-06-2021
अफगानिस्तान से अमेरिकी फौज लौटने के पहले तैयारी जरूरी
अफगानिस्तान से अमेरिकी फौज लौटने के पहले तैयारी जरूरी

 

मेहमान का पन्ना

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            जे. के. त्रिपाठी

पिछले साल फरवरी में दोहा में हस्ताक्षरित अमेरिका -तालिबान समझौते के तहत  हो रही अमेरिकी सैनिकों की अफगानिस्तान से वापसी का अंतिम चरण आगामी 11सितंबर तक पूरा हो जाएगा. 11सितंबर 2001के हमले के बाद सं. रा. अमेरिका की अगुआई में नाटो (उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन) के सदस्य देशों ने अफगानिस्तान पर आक्रमण कर दिया था जिसका नाम  ‘अफगानिस्तान में युद्ध‘ रखा गया.

इस अभियान का घोषित उद्देश्य अफगानिस्तान से तालिबान तथा अल कायदा जैसे आतंकवादी संगठनों का सफाया करना था, जिनकी संलिप्तता न्यूयॉर्क के हमलों में भी थी. नवंबर 2010के नाटो के लिस्बन सम्मलेन में यह तय किया गया था कि अफगानिस्तान की संवैधानिक सरकार को देश की सुरक्षा व्यवस्था सौंपने के बाद ये सेनाएं 2014 तक  अफगानिस्तान से वापस बुला ली जाएंगी, लेकिन यह ओसामा- बिन- लादेन के पाकिस्तान में मारे जाने के बावजूद नहीं संभव हो पाया, क्योंकि तालिबान का हिंसक प्रतिरोध बढ़ रहा था. अंततः पिछले वर्ष फरवरी में हुए समझौते द्वारा सेनाओं की वापसी के प्रस्ताव पर मुहर लगा दी गई. विश्व की आशंकाओं के बावजूद अमेरिका और सहयोगी देश वापसी के लिए कटिबद्ध हैं.

यहां यह प्रश्न स्वाभाविक है कि आखिर नाटो बीस साल बाद अफगानिस्तान छोड़ने पर क्यों आमादा है, जबकि इस अवधि में अफगानिस्तान की आतंरिक सुरक्षा के परिदृश्य में कोई महत्वपूर्ण बदलाव नहीं आया है. कोई उल्लेखनीय स्थायी सफलता नहीं प्राप्प्त हो सकी है. हालांकि  अफगानिस्तान में शहरी इलाकों में बिजली-पानी की आपूर्ति में सुधार हुआ है.

शिक्षा का स्तर सुधरा है. बालिकाओं में भी शिक्षा की प्रवृत्ति बढ़ी है, फिर भी यह परिवर्तन सिर्फ शहरों में है. ग्रामीण इलाकों में नहीं और यह स्थायी भी नहीं कहा जा सकता. तालिबान के बार- बार भरोसा दिलाने के बावजूद कि वह अब उतना कट्टर नहीं रहेगा, उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता.

अफगान सुरक्षा बलों, बाजारों, संस्थानों पर तालिबानी हमले जारी हैं. महिला अधिकारों और शिक्षा पर उसके रुख में कोई परिवर्तन नहीं दिखाई पड़ता. केवल एक ही दिशा में प्रगति दिखती है. वह है तालिबान द्वारा अमेरिकी सुरक्षा दलों पर आक्रमण न करना. संक्षेप में बीस वर्षों में नाटो का सैन्य बल अफगानिस्तान में वास्तविक स्थायी प्रगति लाने में अक्षम रहा. अभी भी अफगानिस्तान का शुमार दुनिया के सबसे गरीब देशों में होता है,

जहां अभी भी बेरोजगारी 25प्रतिशत और गरीबी की सीमारेखा से नीचे रहने वालों की संख्या 47प्रतिशत है. अगर अफगानिस्तान में बीस वर्षों की अमेरिकी सेना की मौजूदगी की कीमत की बात की जाए, तो अमेरिका और अफगानिस्तान -दोनों को ही भारी कीमत चुकानी पड़ी है.

जहां इस अवधि में 23,000  से अधिक नाटो सैनिक हताहत हुए, 66,000से अधिक अफगान सैनिक और 48,000से अधिक नागरिक मारे गए, लगभग 27,00,000लोग देश छोड़ने पर विवश हुए. आर्थिक दृष्टि से सं. रा. अमेरिका का लगभग 2,60,000  करोड़ डॉलर इन बीस वर्षों में लग गया.

अफगानिस्तान से हटने का दूसरा बड़ा कारण अमेरिका की गृह नीति भी है. दुर्भाग्यवश   द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका ने जहां- जहां लंबे संघर्ष में हाथ डाला, कुछ अपवादों को छोड़ कर उसे निकलना पड़ा- चाहे वह वियतनाम हो, सोमालिया हो, लेबनान हो या सीरिया. ऐसे में अमेरिकी जनता आवाज उठाने लगी है कि अमेरिकी सैनिक मरने की लिए विदेशी संघर्ष क्षेत्रों में न भेजे जाए.

एक बड़ा सवाल यह है कि सितंबर में अमेरिका के निकलने के बाद अफगानिस्तान की क्या हालत होगी ? इसके संकेत अभी से मिलने लगे हैं. अमेरिका की घोषणा के बाद से अभी तक अफगानिस्तान में हिंसा का खेल जारी है.

अंदरूनी सत्ता संघर्ष से कमजोर हुई अफगान सरकार देश में विद्रोही तालिबान और अल- काएदा समेत सक्रिय बीस से भी अधिक आतंकी संगठनों का बिना बाहरी सहायता के मुकाबला कर पाएगी, इसमें संदेह है. हालांकि अमेरिका ने कहा है कि वह पड़ोसी मित्र देशों से अफगान घटनाक्रम पर नजर रखेगा. तालिबान ने यह धमकी भी दी है किसी भी देश का अमेरिकी सेना या युद्धक विमानों को अफगानिस्तान में कार्यवाई के संदर्भ में सहायता देना शत्रुतापूर्ण  व्यवहार माना जाएगा.

 ऐसे में लगता है, अमेरिका के हटने से पैदा हुई रिक्ति तालिबान शीघ्र ही भरने का प्रयास करेगा, जो कई देशों की लिए खतरे की घंटी है. अमेरिका के इस कदम से किन देशों पर क्या असर पड़ेगा, इसकी विवेचना यहां आवश्यक हो जाती है. रणनीतिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण अफगानिस्तान को नाटो सदस्य भले ही भारी कीमत और घरेलू दबाव के कारण छोड़ रहे हों, वे अब भी अफगानिस्तान से पल्ला नहीं झाड़ सकते. अमेरिका के कुछ सैनिक पड़ोस के किसी देश में रह कर अफगानिस्तान के घटनाक्रम पर नजर बनाए रखेंगे.

 नाटो के दूरस्थ सदस्यों के अतिरिक्त अफगानिस्तान के सभी पड़ोसियों और एशिया की महाशक्तियों पर इस सेना वापसी का सीधा, दूरगामी और गहन प्रभाव पड़ेगा. पड़ोसी न होने के बावजूद रूस और तुर्की का हित यह सुनिश्चित करने में है कि अफगानिस्तान में शांति स्थायी हो.

अफगानिस्तान को ‘‘ साम्राज्यों की कब्रगाह‘‘ भी कहा जाता है, जहां कई साम्राज्यवादी देशों ने शासन करने का प्रयास किया किन्तु असफल हुए. रूस ने एक दशक से ऊपर अफगानिस्तान में कठपुतली कम्युनिस्ट सरकारों के माध्यम से शासन किया और सोवियत संघ भंग होने पर वहां से बाहर निकल आया.

बाद में पकिस्तान द्वारा उपजाए और पाले गए तालिबान ने 1995से छह वर्षों तक देश के एक बड़े भूभाग पर कट्टरपंथी शासन किया, 2001के अंत में अमेरिकी सेना द्वारा काफी क्षेत्र तालिबान से छीन लिया गया. सीमावर्ती न होने के बावजूद रूस की रूचि इस देश में बरकरार है, इसीलिए उसने हाल में शांति वार्ता का आयोजन किया.

तुर्की भी इस्लाम का खलीफा बनने के प्रयास में शांति वार्ता का आयोजन किया. ईरान भी अफगानिस्तान में शांति के पक्ष में है, क्योंकि कट्टरपंथी सुन्नी तालिबान गुट शिया ईरान का शत्रु है. क्षेत्र के अन्य बड़े देशों में चीन भी स्थायी शांति के पक्ष में है. तालिबान से सशंकित है, क्योंकि चीन के सिंगजिआंग प्रांत के उईगुर मुसलमानों के विद्रोह को तालिबान हर तरह से समर्थन देता रहा है.

अमेरिका के निकलने से जन्मे शून्य को भरने के लिए चीन अफगानिस्तान में पुनर्निर्माण की आड़ में मुख्य मंच पर आने की चेष्टा करेगा. उसकी नजर अफगानिस्तान में लगभग 1,00,000करोड़ डॉलर की खनिज सम्पदा के दोहन और संभावित तेल भंडार पर है.

हालांकि इन्ही बातों को ध्यान में रखते हुए चीन ने भी शांति वार्ता की मेजबानी का प्रस्ताव दिया है, किन्तु तालिबान और प्रतिबंधित हक्कानी समूह पर इस बात का भरोसा नहीं किया जा सकता कि वे अपने कट्टर इस्लामी मान्यताओं के चलते शिनजियांग के उइगरों को भड़काना बंद कर देंगे.

इससे जुड़ा प्रश्न पाकिस्तान का भी है. पाकिस्तान में प्रतिबंधित तहरीक-ए-तालिबान -ए-पाकिस्तान अफगान तालिबान के साथ मिल कर उइगुरों के सवाल पर चीन का विरोध करता रहा है, यहां तक कि चीन-पाक आर्थिक गलियारे की परियोजनाओं में कार्यरत कई चीनियों को उसने मार भी डाला है.

अब यदि पाकिस्तान तालिबान का समर्थन करता है तो चीन की नाराजगी मोल लेनी पड़ेगी. वैसे भी पाकिस्तानी सरकार उइगुर मामले पर कुछ कहने से बचती रही है. पाकिस्तान की एक और द्विविधा है-हालांकि पाकिस्तानी  विदेश मंत्री ने स्पष्ट कर दिया है कि पाकिस्तान की जमीन का उपयोग किसी राष्ट्र के द्वारा अफगानिस्तान के गृह युद्ध में नहीं करने दिया जाएगा, फिर भी अमेरिका और पाक के मध्य 2001में हस्ताक्षरित ‘‘अमेरिकी सेना को वायु एवं स्थल सहयोग देने के लिए आवश्यक ढांचा‘‘ अभी भी वैध है, जिसके तहत अमेरिका सहयोग मांग सकता है, लेकिन पाकिस्तान तालिबान की धमकी को लेकर असमंजस में है.

भारत की अपनी अलग द्विविधाएं है. सैद्धांतिक रूप से भारत ने सदैव आतंकवाद का विरोध किया है, खासतौर से जब तालिबान कश्मीर के मामले पर भारत का मुखर विरोधी है. हमने अफगानिस्तान में विभिन्न परियोजनाओं में लगभग 3 अरब डॉलर का निवेश किया है.

यदि अमेरिका के जाने के बाद तालिबान सत्ता पर काबिज होता है, तो भारत का सारा निवेश संकट में पड़ जाएगा. इस स्थिति में भारत के पास दो ही विकल्प हैं. पहला, हम तालिबान के साथ रिश्ते सुधारें ताकि हमारे संबंध और निवेश सुरक्षित रहें. लेकिन उस दिशा में हमारा आतंकवाद के प्रति सैद्धांतिक विरोध कमजोर पड़ जाएगा, फिर भी हम प्रभावोत्पादकता में तालिबान-पाक- चीन गठबंधन से, जो यदि बन पाता है, पीछे ही रहेंगे.

हमारे पास दूसरा विकल्प है ‘‘काबुल शांति प्रक्रिया‘‘ निर्बाध रूप से जारी रहना सुनिश्चित करके आतंकवाद का प्रभावी प्रतिरोध, मानवाधिकारों- विशेषकर महिलाधिकारों -की सुरक्षा और लाकतांत्रिक मूल्यों का सम्मान हो सके.

हमारे हितों और निवेश को सुरक्षा देने वाला वातावरण तैयार करने के लिए हमें शंघाई सहयोग संगठन, रूस -भारत -चीन त्रिगुट, हार्ट ऑफ एशिया कांफ्रेंस जैसे क्षेत्रीय मंचों में इन लक्ष्यों पर जोर देना होगा. तीसरा विकल्प है ईरान के साथ मिल कर एक ऐसे सहयोग का ढांचा खड़ा करना जो  काफी हद तक  पाकिस्तान और प्रकारान्तर में तालिबान एवं कुछ हद तक चीन की विस्तारवादी आकांक्षाओं पर लगाम लगा सकें. लेकिन यह तभी होगा यदि ईरान से अमेरिकी प्रतिबंध हट जाएं ताकि हम फिर से ईरान से व्यापारिक संबंध बढ़ा सकें.

लगता है कि नया अमेरिकी प्रशासन भविष्य में प्रतिबंधों को हटाने पर विचार कर सकता है. यदि ऐसा हुआ तो अंतिम दो विकल्पों को साथ लेकर चलने से हमारी विदेश नीति और आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई को अधिक सफलता की उम्मीद है. किन्तु यह सब अभी भविष्य के गर्भ में है. अगस्त तक ही यह अंदाजा लगाया जा सकेगा कि किस दिशा में और किन उपकरणों के साथ हमें अपनी अफगानिस्तान नीति आगे बढ़ानी है, लेकिन तैयारी तो पहले से की ही जा सकती है.

(लेखक  पूर्व राजदूत हैं )