इसराइल-फिलीस्तीनः इतिहास को परे रख भविष्य को देखने से आएगी स्थायी शांति

Story by  मुकुंद मिश्रा | Published by  [email protected] | Date 28-05-2021
इज्राएल-फिलीस्तीन में ताजा हिंसा से मामला फिर पेचीदा हो गया है
इज्राएल-फिलीस्तीन में ताजा हिंसा से मामला फिर पेचीदा हो गया है

 

मेहमान का पन्ना । इसराइल-फिलीस्तीन संघर्ष

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              जेके त्रिपाठी

इसराइल और फिलीस्तीन के मध्य चला संघर्ष का ताज़ा दौर अंततः 11दिनों बाद 250से अधिक लोगों की आहुति लेकर युद्धविराम पर समाप्त हुआ. हालांकि, यह कहना मुश्किल है कि यह शांति कितने दिन चलेगी और यह स्थायी समाधान की दिशा में एक पुख्ता कदम है या आने वाले बड़े तूफ़ान से पहले की शांति.

हालांकि, कुछ विश्लेषक इसे धर्म या आस्था की लड़ाई मानते हैं, किन्तु यह उससे अधिक अस्तित्व और अस्मिता की लड़ाई है. इसके मूल में इसराइल के भौगोलिक क्षेत्र में सदियों से कई धर्मों के लोगों के बसने, उजड़ने और फिर बसने की कहानी है. प्रश्नगत संघर्ष को जानने से पूर्व संक्षेप में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि जानना आवश्यक हो जाता है.

वर्तमान इसराइल का भूभाग कई सभ्यताओं और धर्मों की भूमि रहा है. हिब्रू बाइबल ‘द बुक ऑफ़ जेनेसिस’के अनुसार,अब्राहम (इस्लाम में इब्राहिम) के बेटे इस्साक (ईसाइयों के आइजैक, जिनका नाम इज्राएल भी था) के बारह पौत्रों ने बारह कबीलों की स्थापना की, जिन्हें उनके दादा के नाम पर इस्राएली कबीले कहा गया.

कालांतर में इन्हीं कबीलों के वंशज डेविड (इस्लाम के 17वें पैगम्बर दाऊद) ने येरुशलम  (पूर्वकाल के सलोम शहर) पर कब्ज़ा किया और वहां उसके बेटे सोलोमन (इस्लाम में सुलेमान) ने एक भव्य मंदिर बनवाया. इस मंदिर के परवर्ती आक्रांताओं द्वारा तोड़े जाने पर सम्राट हेरोद ने 516ई.पू. में दूसरा मंदिर बनवाया.

पहली शताब्दी में यहाँ काबिज़ रोमन साम्राज्य के विरुद्ध असफल विद्रोह के बाद अधिकतर यहूदियों को भगा दिया गया या मार डाला गया. जिससे शेष बचे यहूदी अपने ही इलाके में अल्पसंख्यक बन गए. उनका मंदिर भी तोड़ दिया गया. 335ई. में यहां चर्च बनवाया गया. येरुशलम ईसाईयों के लिए भी एक पवित्र स्थल है क्योंकि यहीं पर ईसा मसीह को सूली पर लटकाया गया था और कहते हैं कि यहीं वह पुनर्जीवित हुए थे.

येरुशलम मुसलामानों के लिए भी एक पवित्र स्थल है क्योंकि हदीस के अनुसार 621ई. में हज़रत मुहम्मद ने यहां की यात्रा की और यहीं से वह स्वर्ग जाकर अल्लाह से ज्ञान प्राप्त करके लौटे थे.इसीलिए इस जगह को,जो दूसरे मंदिर के भग्नावशेष के ठीक बगल में थी, हर्म-ए-शरीफ कहते हैं. यहाँ 637ई. में अल-अक्सा मस्जिद का निर्माण मुस्लिम शासकों ने कराया.

इस्लाम में यह स्थान काबा और मक्का के बाद तीसरा सबसे पवित्र स्थान माना जाता है.

इस प्रकार येरुशलम तीन धर्मों का बड़ा केंद्र बन गया. तब से बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक अधिकतर यहूदी दूसरे देशों में ही भटकते-बसते रहे. हिटलर द्वारा व्यापक यहूदी नरसंहार के कारण यूरोप में बसे यहूदी भी भागकर इसराइलल और अमेरिकी महाद्वीप में पहुंचे.

1947में वर्तमान क्षेत्र को संयुक्त राष्ट्र संघ ने दो भागों-फिलीस्तीन और इसराइल में बाँटने का प्रस्ताव रखा, जिसके तहत भूमध्य सागर और जॉर्डन नदी के बीच के हिस्से का 57 फीसदइज्राएल को और 43 फीसदअरब फिलीस्तीनियों को मिलना था तथा येरुशलम को दोनों देशों के अंतरराष्ट्रीय राजधानी बनना था.

इज्राएल ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया जबकि अरब फिलिस्तीनियों ने उन्हें कम क्षेत्र दिए जाने के कारण नामंज़ूर कर दिया.

ब्रिटिश शासकों द्वारा मई 1948में बिना इस समस्या का स्थायी समाधान किए ही इस क्षेत्र को मुक्त कर दिया. इस्राइल ने स्वतंत्र राष्ट्र  की घोषणा की और अरब देशों ने विरोध में इज्राएल पर हमला कर दिया, जिसमे उनकी हार हुई.

इसराइल ने अब 77 फीसदज़मीन पर कब्ज़ा कर लिया और लगभग आधे अरब इस क्षेत्र से भाग गए या भगा दिए गए. 1967में 6पड़ोसी देशों ने मिलकर फिलीस्तीन के समर्थन में इसराइल पर फिर हमला किया और फिर हारे. एक अनुमान के अनुसार, इस बार लगभग पांच लाख फिलिस्तीनी मुसलमान विस्थापित हुए. अब इसराइल ने जॉर्डन नदी के पश्चिमी तट पर, जो जॉर्डन के अधिकार में था, भी कब्ज़ा कर लिया और संयुक्त राष्ट्र के समय-समय पर जारी किए गए संकल्पों के खिलाफ जाकर फिलिस्तीनी बस्तियों में इस्राएलियों को बसाना शुरू कर दिया.

1993में हुए ओस्लो समझौते का भी दोनों देशों में विरोध हुआ. एक-दूसरे के अधिकार को मानने के बावजूद दोनों पक्षों में दक्षिणपंथियों ने समझौते के पालन में अड़ंगे लगाए. क्षेत्र के इतिहास के इस सिंहावलोकन से यह स्पष्ट हो जाता है कि असल मुद्दा दोनों पक्षों के अस्तित्व (क्योंकि दोनों ही अलग अलग कालखंडों में वहां से निष्कासित किए गए थे) और हठधर्मी का है.

इसराइल में बेंजामिन नेतन्याहू की धुर दक्षिणपंथी सरकार और ग़ाज़ा में फ़तेह के कमज़ोर प्रशासन से बढे हुए हमास और फिलिस्तीनी इस्लामिक जिहाद ने दुश्मनी बढ़ाने में योगदान दिया. हाल की घटनाओं में दोनों ही पक्षों ने अपरिपक़्वता का परिचय दिया है. इस्राइल द्वारा येरुशलम के ठीक बाहर हर्म-अल- ज़र्राह की फिलिस्तीनी आबादी को हटाकर यहूदियों को बसाने की योजना,रमजान में अल-अक्सा में मुस्लिमों के प्रवेश पर अवरोध तथा मस्जिद में नमाज़ को इकठ्ठा हुए लोगो पर गोलीबारी, जहां इज्राएल की ग़लतियां हैं. वहीं, इज्राएलियों पर पत्थरबाज़ी और गाज़ा पट्टी से हमास द्वारा एकाएक 200से अधिक राकेट इज्राएल पर दागना, दूसरे पक्ष को उत्तेजित करने वाली हरकतें हैं.

इज्राएल के पास भले ही संख्याबल नहीं है, किन्तु उसके पास धनबल, सैन्य उपकरण, सेना के लिए उच्च वैज्ञानिक एवं कृषि तकनीक के साथ-साथ अमेरिका और महत्वपूर्ण पश्चिमी देशों का समर्थन है. यह सब मिलकर सभी पड़ोसी मुस्लिम देशों पर भारी पड़ता है. ऐसे में, ईरान से तस्करी कर लाए गए हथियारों के बूते इज्राएल से दुश्मनी लेना हमास के लिए आत्मघातक भी है.

युद्धविराम के बाद दोनों ही पक्ष अपनी पीठ ठोंक रहे हैं. हालांकि, यह माना जाता है कि यदि संघर्ष और चलता तो हमास का सफाया तय थाक्योंकि सिर्फ ज़बानी बयानबाज़ी के अलावा किसी भी मुस्लिम देश ने फिलीस्तीन के पक्ष में न तो कोई ठोस कदम उठाया, न ही एकजुटता दिखाई.

यह भी विचारणीय है कि विश्व में कौन देश किसका पक्ष ले रहा है. अमेरिका घोषित रूप से इज्राएल के पक्ष में खड़ा है. वहां की राजनीति और अर्थव्यवस्था पर यहूदियों का इतना प्रभाव है कि चाहे जो भी दल वहां सत्ता में रहे,इज्राएल के समर्थन की नीति नहीं बदलती.

पिछली शताब्दी के अंत में प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार, अमेरिका द्वारा समस्त विश्व को दी जाने वाली आर्थिक सहायता का पांचवां हिस्सा सिर्फ इज्राएल को गया, जिसकी आबादी विश्व की आबादी का 0 .1फीसद भी नहीं है. जहाँ ट्रम्प ने 2017में सुरक्षा परिषद के प्रचंड विरोध के बावजूद येरुशलम को इज्राएल की नई राजधानी के रूप में मान्यता दे दी,वहीं जो बाइडेन ने भी अपने पहले बयान में इज्राएल पर राकेट हमलों की ही निंदा की.

हालांकि, अमेरिका इस संघर्ष में न तो कूदा और न ही उसने युद्ध विराम में सक्रिय भूमिका निभाई, जो ट्रम्प की अपेक्षा बाइडेन की सतर्क नीति दर्शाता है. चीन और रूस ने अमेरिका से ही पहल करने की मांग की.

अरब देशों और अन्य मुस्लिम देशों में इस मुद्दे पर एकता का अभाव दिखा. मिस्र और जॉर्डन ने क्रमशः 1992और 1995में इज्राएल से राजनयिक सम्बन्ध स्थापित कर सम्बन्ध सुधार की दिशा में कदम बढ़ा दिए थे. संभवतः इसी कारण मिस्र की मध्यस्थता से ही युद्धविराम संभव हो सका. संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, सूडान तथा मोरक्को ने भी पिछले साल इज्राएल से रिश्ते कायम कर लिए थे. यद्यपि सऊदी अरब ने अभी तक इज्राएल से औपचारिक सम्बन्ध नहीं बनाए हैं,फिर भी अमेरिका से दोस्ती के नाते कभी भी सम्बन्ध बना सकता है.

वैसे परदे के पीछे से तो दोनों देशों के महत्वपूर्ण नेता/अधिकारी एक-दूसरे के देशों में जाते ही रहे हैं. प्रमुख मुस्लिम देशों में सिर्फ ईरान ही फिलीस्तीन के साथ दृढ़ता से खड़ा रहा,बाकी देशों ने बस बयान जारी करके खानापूरी कर ली. यूरोप के देश भी विभाजित ही रहे.

भारत का रुख इस मामले में बड़ा ही संयत और स्पष्ट रहा. वर्तमान भारतीय शासन ने तीन साल पहले नेतन्याहू की भारत यात्रा के समय ही स्पष्ट कर दिया था कि भारत के इज्राएल के साथ सम्बन्ध भारत-फिलीस्तीन संबंधों से असम्बद्ध (डी-हाइफ़नेटेड) हैं. अर्थात, एक से सम्बन्ध का प्रभाव दूसरे पर नहीं पड़ता.

भारत और इसराइल के सम्बन्ध कृषि, सैन्य सुरक्षा और तकनीक में सहयोग पर आधारित हैं, जबकि फिलीस्तीन के साथ स्वतंत्रता और सहअस्तित्व के नैतिक सिद्धांत पर. दोनों पक्ष भारत की इस नीति को समझते हैं.यह इसी से पता चलता है कि जनवरी, 2018की नेतन्याहू की भारत यात्रा के एक ही माह बाद फिलीस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने भारत की सफल यात्रा की.

वर्तमान तनाव पर सुरक्षा परिषद् में बोलते हुए संयुक्त राष्ट्र में भारतीय स्थायी प्रतिनिधि ने जहाँ हर्म-अल शेख़ से फिलिस्तीनियों के संभावित निष्कासन पर चिंता व्यक्त की,वहीं गाज़ा से इज्राएल पर हुए राकेट हमलों की भी निंदा की. दोनों पक्षों में तुरंत वार्ता प्रारम्भ होने की आवश्यकता पर ज़ोर देते हुए तिरुमूर्ति ने फिलीस्तीन की न्यायसंगत मांगों और दो राष्ट्र के सिद्धांतों पर भारत की प्रतिबद्धता को दोहराया. इस प्रकार भारत का रुख बहुत ही स्पष्ट, संयत,नपा-तुला और घोषित नीति के अनुसार ही रहा.

इस संघर्ष का तात्कालिक परिणाम तो यह हुआ है कि इस्लामी एकता खंडित हुई है.फिलीस्तीन की सत्ताधारी (भले ही नाममात्र को) पार्टी फ़तेह और कमज़ोर हुई, मिस्र शांति-स्थापक और सफल मध्यस्थ के  रूप में उभरा तथा इस्लामी नेतृत्व की दौड़ के प्रतियोगियों में परिवर्तन की सम्भावना बढ़ी.

यह भी विचारणीय है कि इसराइल-फिलीस्तीन सम्बन्ध भविष्य में किस दिशा में जा सकते हैं. अभी सिर्फ युद्धविराम हुआ है,विश्व को आगे दोनों पक्षों में तनाव-शैथिल्य की दिशा में काम करने के लिए बहुत परिश्रम करना होगा, क्योंकि सदियों से जड़ हुआ अविश्वास, ज़िद और इससे उपजी शत्रुता इतनी आसानी से नहीं जाने वाली!

सबसे पहले तो दोनों देशों के बीच धीरे-धीरे परस्पर विश्वास का माहौल पैदा करना होगा, जिसकी शुरुआत साहित्य, कला, संस्कृति आदि सामान्य घटकों से की जा सकती है. लगता है अरब देश भी दशकों से चली आ रही लड़ाई से ऊब चुके हैं. इसराइल में भी युद्धोन्माद का विरोध हो रहा है और इसे नेतन्याहू द्वारा अपनी अल्पमत की कार्यवाहक सरकार के लिए आगामी चुनाव में वोट जुटाने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है.

उधर, शक्तिशाली हमास और औपचारिक रूप से सत्ताधारी फ़तेह पार्टी में सम्बन्ध अच्छे न होने से वहां भी अस्थिरता है और 2007 से संसदीय चुनाव न होने से रोष भी. ऐसे में शायद मध्यस्थों की पहली ज़िम्मेदारी होगी इज्राएल को सहमत करना कि वह फिलिस्तीनी क्षेत्रों में नई यहूदी बस्तियां न बसाए और कम से कम 15 सितम्बर, 2020 की स्थिति तक वापस जाए, जब उसने सं. अरब अमीरात के साथ समझौते की समय अमेरिका से वादा किया था कि भविष्य फिलिस्तीनी क्षेत्रों में यहूदियों की नई आबादियां नहीं बसाई जाएंगी.

फिलीस्तीन में भी नए और निष्पक्ष चुनाव कराने पर जोर दिया जाए ताकि नई सरकार बिना किसी अंदरूनी दबाव के शांति स्थापना के पक्ष में फैसला ले सके. यदि यह सब नहीं हो पाया तो निश्चित ही संघर्ष रुक-रुककर होता रहेगा, जो एक नासूर की तरह स्थायी शांति को उत्तरोत्तर दुर्लभ कर देगा.

कई विश्लेषकों का तो मानना है कि यदि मध्यपूर्व में स्थायी शांति नहीं स्थापित हो पाई तो तीसरा विश्व युद्ध छिड़ सकता है. हालांकि यह आकलन कुछ अतिरंजित है. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद कई ऐसे मौके आए जब तृतीय विश्वयुद्ध छिड़ सकता था. मिसाल के तौर पर, कोरिया संघर्ष,क्यूबा तनाव,वियतनाम युद्ध, अतीत के मध्य-पूर्व संघर्ष,भारत-चीन तथा भारत-पाक युद्ध, नागॉर्नो काराबाख संघर्ष आदि.किन्तु हर बार देशों ने समय पर सद्बुद्धि और विवेक का परिचय देकर आपदा टाल दी.

हालांकि, शांति स्थापना के लिए उपरोक्त प्रयास कहने में सरल पर व्यावहारिक रूप से कठिन होंगे, फिर भी प्रयास तो किया ही जा सकता है.

((लेखक यूरोपीय देशों, लैटीन अमेरिका, ओमान आदि कई देशों के राजदूत रहे हैं )