बिलक़ीस बानो से राजा सिंह तक, मुस्लिम समुदाय को धैर्य की आवश्यकता है

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] | Date 30-08-2022
बिलकिस बानो
बिलकिस बानो

 

wasayप्रो. अख़्तरुल वासे
 
15 अगस्त को जब पूरा देश प्रधानमंत्री की आवाज़ में आवाज़ मिलाते हुए भारत की ‎आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहा था और 76वें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री ‎श्री नरेन्द्र मोदी लाल किले की प्राचीर से राष्ट्र को संबोधित कर रहे थे और उसमें ‎महिलाओं के सम्मान,
 
उनके आत्मनिर्णय, राष्ट्रीय विकास में उनकी भागीदारी की बात कर ‎रहे थे उसी वक़्त उनके गृह राज्य गुजरात में उन्हीं की पार्टी की प्रदेश सरकार कुछ और ‎ही फ़ैसला किए बैठी थी और प्रधानमंत्री के लाल क़िले से दिए गए भाषण की गूंज अभी ‎‎ख़त्म भी नहीं हुई थी कि गुजरात सरकार ने महिलाओं पर प्रधानमंत्री के भाषण का एक ‎तरह से खंडन करते यह ऐलान कर दिया कि जो लोग साढ़े पांच माह की गर्भवती महिला ‎बिलक़ीस बानो के साथ सामूहिक दुष्कर्म के दोषी थे, जिन्होंने क़रीब एक दर्जन अन्य लोगों ‎के साथ बिलक़ीस बानो की साढ़े तीन साल की मासूम बच्ची को भी मौत के घाट उतार ‎दिया था और फिर गुजरात में जिन्हें गिरफ़्तार भी नहीं किया गया. 

आख़िरकार मुंबई में ‎सीबीआई की एक अदालत ने इस जघन्य अपराध और बर्बर कृत्य के लिए 11 लोगों को ‎आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई. इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपराधी हाईकोर्ट भी गए,
 
‎लेकिन बॉम्बे हाईकोर्ट ने भी सज़ा को बरक़रार रखा लेकिन अब उन्हें न केवल बाइज़्ज़त ‎रिहा किया गया बल्कि उन्हें तिलक लगाकर, माला पहनाकर और मिठाई खिलाकर उनका ‎स्वागत भी किया गया.‎
 
‎ख़ुदा का शुक्र है कि इस निर्णय से भारत की अंतरात्मा लगभग पूरी तरह से जाग ‎गई और भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया भर में मानवाधिकारों के लिए काम करने वाली ‎लगभग सभी महिला संगठनों ने इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ खुलकर सामने आई हैं. 
 
यहां तक ‎कि महाराष्ट्र के वर्तमान उपमुख्यमंत्री और भारतीय जनता पार्टी के क़द्दावर नेता देवेंद्र ‎फडणवीस और हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व केंद्रीय मंत्री शांता कुमार ने भी ‎दोषियों के स्वागत की निंदा की है. 
 
सुप्रीम कोर्ट में भी मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली ‎पीठ ने इस पर लगाई गई पी. आई. एल. पिटीशन्स को सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया ‎है और गुजरात सरकार सहित सभी पक्षों को नोटिस जारी कर दिए गए हैं. अब देखना यह ‎है कि सुप्रीम कोर्ट का क्या फ़ैसला आता है.
 
गुजरात सरकार ने 1992 के बाद सुप्रीम कोर्ट ‎और केंद्रीय गृह मंत्रालय के फ़ैसलों पर विचार ही नहीं किया और इस तरह उसने ‎प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की नहीं बल्कि केंद्रीय गृह मंत्री श्री अमित शाह की भी सरासर ‎अनदेखी और उनका अपमान किया है.
 
हमारा अब भी यही मानना है कि दोषियों को वापस ‎जेलों में डाल देना चाहिए और बिलक़ीस के साथ-साथ उत्पीड़न, बलात्कार और हत्या के ‎पीड़ितों को एक एक मुसलमान के रूप में नहीं बल्कि एक भारतीय की नज़र से देखा जाना ‎चाहिए.
 
इसके अलावा दोषियों की रिहाई से बिलक़ीस के गांव के मुसलमानों और विशेष ‎‎रूप से दोषियों के ख़िलाफ़ अदालत में पेश होने वाले गवाहों की सुरक्षा पर भी ध्यान दिया ‎जाना चाहिए.‎
 
अभी बिलक़ीस बानो के दर्द से उबर भी नहीं पाए थे कि धार्मिक सहिष्णुता के शहर ‎हैदराबाद के गोशामहल से बीजेपी के विधायक टी. राजा सिंह ने हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ‎के ख़िलाफ़ बद-ज़ुबानी का वीडियो बनाकर उन्हें सार्वजनिक किया.
 
उनके अपराध की ‎गंभीरता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भारतीय जनता पार्टी के केंद्रीय ‎नेतृत्व ने इस बात का संज्ञान लेते हुए उन्हें तुरंत निलंबित कर दिया और दस दिन के ‎भीतर जवाब देने के लिए नोटिस भी जारी किया कि क्यों न उन्हें हमेशा के लिए पार्टी से ‎बर्ख़ास्त कर दिया जाए? साथ ही फ़ेसबुक ने भी उनका अकाउंट ब्लॉक कर दिया.‎
 
नूपुर शर्मा और नवीन जिंदल के बाद राजा सिंह द्वारा पैग़ंबर मुहम्मद (सल्ल.) की ‎गुस्ताख़ी के हवाले से यह सवाल उठता है कि जब इस देश का संविधान और ख़ुद भाजपा ‎का केंद्रीय नेतृत्व और सरकार इसके ख़िलाफ़ है, तो फिर उसी की पार्टी के लोगों की ‎इतनी हिम्मत कैसे हो रही है कि वह जानबूझकर अपनी पार्टी की नीति के ख़िलाफ़ ऐसे ‎बयान दे रहे हैं?‎
 
हम यहां यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि पवित्र क़ुरान जिसे क़ुरआन-ए-करीम कहते ‎हैं, जो हर मुसलमान के ईमान के अनुसार मार्गदर्शन की अंतिम पुस्तक है और जिसे ‎अल्लाह तआला ने पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) के माध्यम से इंसानों के लिए भेजा है.
 
जिसमें ‎अल्लाह ने इस बारे में स्पष्ट रूप से कहा है कि ‘‘दूसरों के ख़ुदाओं को बुरा मत कहो’’ और ‎इसलिए किसी भी मुसलमान को यह हक़ नहीं है और न ही इस बात की इजाज़त कि वह ‎दूसरों के ख़ुदाओं या धर्मगुरूओं को बुरा कहे. 
 
हम सिर्फ़ यही चाहते हैं कि भारत में सदियों ‎पुरानी धार्मिक सहिष्णुता और सद्भावना को फिर से बहाल करने के लिए सरकार ऐसे ‎क़ानून बनाए जिससे कोई भी व्यक्ति किसी के भी खुदाओं, धर्मशास्त्रों और धर्मगुरुओं को ‎बुरा कहने की हिम्मत ही न कर पाए और अगर इसके बाद भी कोई ऐसा काम करता है तो ‎उसको ऐसी सख़्त सज़ा मिलनी चाहिए कि वह दूसरों के लिए एक सबक़ बन जाए. जो ‎सरकारें धर्मांतरण के ख़िलाफ़ सख़्त से सख़्त क़ानून बना सकती हैं,
 
उन्हें इस संबंध में भी ‎ज़रूरी क़ानून बनाना चाहिए और इससे ज़्यादा यह काम केंद्र सरकार का है कि वह हर ‎धर्म के धर्मगुरुओं और सिविल सोसायटी के प्रतिनिधियों को बुलाए और उनकी सलाह से ‎इस प्रकार का क़ानून बनाए.‎
 
हम अपने मुस्लिम भाइयों और बहनों से भी यह कहना चाहेंगे कि सभ्य लोकतांत्रिक ‎समाज में शांतिपूर्ण विरोध आपका मूल अधिकार है, लेकिन ग़ुस्से में हिंसा का रास्ता ‎अपनाना सही नहीं है और किसी को भी क़ानून अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए.
 
यदि आप ‎अपने विरोधियों को हराना चाहते हैं, उन्हें शर्मिंदा करना चाहते हैं, तो आपको लोकतांत्रिक ‎और संवैधानिक व्यवहार को ही अपनाना होगा.
 
‎(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया के प्रोफ़ेसर एमेरिटस (इस्लामिक स्टडीज़) हैं.)‎