डा. रख़्शंदा रूही मेहदी
‘वसुधैव कुटुम्बकम‘ महोपनिषद्, सहित कई ग्रन्थों में लिपिबद्ध है. यह वाक्य भारतीय संसद के प्रवेश कक्ष में भी अंकित है. ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का अर्थ है- पूरी पृथ्वी ही एक परिवार है. इस पृथ्वी पर रहने वाले सभी मनुष्य और जीव-जन्तु एक ही परिवार का हिस्सा हैं.
भारतीय समाज की प्रथम कड़ी है-परिवार. यहां की परिवार व्यवस्था समूचे संसार में उल्लेखनीय है, पर आज ये पारिवारिक ढांचा जर्जर होने की कगाार पर है. साहित्य समाज में व्याप्त इस अनैतिकता, अराजकता, निरंकुशता आदि अवांछनीय और असामाजिक तत्वों के दुष्प्रभाव को बड़े ही मर्मस्पर्शी रूप में सामने लाता है, इसीलिए कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है.
हम जिस परिवेश में जीते हैं, साहित्य में उसी का चित्रण होता है. वैदिक काल से ही भारतीय साहित्यकार समाज के प्रति अपने दायित्व को समझते हुए नैतिक, सामाजिक सीमाओं के भीतर जाकर उनका अन्वेषण करते रहे हैं. अपनी रचनाओं में सामाजिक जीवन का बेखौफ और बेलाग चित्रण करके समाज को जागरूक करने का कार्य करते रहे हैं.
पहली भारतीय मूक फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र‘ में समाज के लिए सत्यवाद एवं धर्मपरायणता का संदेश था.प्रेमचंद की ‘बूढ़ी काकी‘ कहानी में परिवार में वृ़द्ध सास के प्रति बहू रूपा का अपमानजनक व्यवहार और पोती द्वारा दादी के लिए मासूम प्रेम का भावात्मक चित्रण है.
कहानी के अंत में रूपा ने काकी को झूठे पत्तल चाटते देख अपने को धिक्कारा और काकी को पूरियां खाने को दीं. लेखक पाठक मन को झकझोरने के साथ घर के बुज़ु़र्गों का आदर करने के लिए प्रेरित करता है.
राजेश जोशी की कविता ‘संयुक्त परिवार’ नामक कविता में संयुक्त परिवार के समाप्त हो जाने की तकलीफ है:
टूटने के क्रम में टूट चुका है बहुत कुछ, बहुत कुछ
अब इस घर में रहते हैं ईन मीन तीन जन
निकलना हो कहीं तो सब निकलते हैं एक साथ
घर सूना छोड़ कर
यह छोटा सा एकल परिवार
कोई एक बाहर चला जाए तो दूसरों को
काटने को दौड़ता है घर
राजेंद्र यादव कृत उपन्यास ‘सारा आकाश‘ मध्यमवर्गी परिवार का यथार्थ दर्शन है. 10 सदस्यों का संयुक्त परिवार है. धीरज मात्र 99 रूपये कमाता है. ठाकुर साहब परिवार स्वामी हैं. वे सभी के हित का ध्यान रखते हैं.
‘मित्रो मरजानी’ कृष्णा सोबती की रचना एक विशेष सामाजिक परिवेश की उपज है. सभी पात्र किसी न किसी समस्या विशेष का प्रतिनिधित्व करते हैं. घर के मुखिया गुरुदास और धनवंती ‘संयुक्त परिवार’ को बनाए रखना चाहते हैं. लेकिन पुत्रों की मनमानी और सत्ता उनके हाथ हस्तांतरित होती देखकर वे चिंतित हैं.
यह वर्तमान समाज का चित्र है बाजारवादी प्रभाव के कारण एकल परिवार बढ़ रहे हैं. महानगरों में जीविका के लिए होने वाले पलायन से संयुक्त परिवार बिखराव की कगार पर हैं. कृष्णा सोबती लेखक की सोच के संदर्भ में लिखती हैं कि ‘‘दोस्तों हर लेखक अपने लिए लेखक है.
लेखक की लेखनी ही समाज को उस रूप में लोगों के सामने प्रकट करती है जैसा कि वह खुद अनुभव करता है. कोई भी अच्छी कलम मूल्यों के लिए लिखती है. मूल्यों के दावेदारों के लिए नहीं.’’ कृष्णा सोबती के इस वक्तव्य से इस बात को बल मिलता है कि लेखक परिस्थिति और परिवेश की उपज होता है. स्वतंत्रता के पश्चात पारीवारिक समस्याओं व पारीवारिक संबंधो में आने वाली दरार पर लेखक अपनी क़लम चलाने लगे.
ममता कालिया का विचार है - ‘‘हमारे समाज में पारिवारिक परिवेश की संरचना कुछ इस प्रकार की है कि उनमें नारी को अध्ययन अ©र शिक्षा आदि के लिए हत¨त्साहित त¨ किया जाता है, लेकिन उसके साथ ही नारी पर काम का दबाव भी अधिक पड़ता है, इसलिए उनकी शिक्षा अधूरी रह जाती है.‘‘
निर्मल वर्मा की कहानियों में पारिवारिक बिखराव से आहत कव्वे और काला पानी कहानी में मास्टर जी का अकेलापन उनके उदासी भरे संवादांे से छलकता है-
‘‘मकान बेचना क्या बहुत जरूरी है?’‘ उन्होंने आंखें खोल कर मुझे देखा.
‘‘नहीं, जरूरी नहीं है, लेकिन बड़े देहरादून में जमीन खरीदना चाहते हैं, उसके लिए पैसा कहां से आएगा?’‘
‘‘मकान बेच कर?‘’ उनके स्वर में हल्का-सा व्यंग्य उभर आया.
‘और कैसे?’
‘‘लेकिन उसे बाबू ने खरीदा था, उसमें अपनी सारी पेंशन के पैसे लगाए थे.’‘
‘‘हां, मुझे मालूम है, लेकिन बाबू अब नहीं हैं.’‘
‘‘जो आदमी नहीं रहता, क्या उसकी चीजें हमारी हो जाती हैं ?‘’
मैंने विस्मय से उन्हें देखा, मन में आया, कहूं, आप तो सब कुछ छोड़ कर चले गए थे.अब मकान रहता है या बिकता है, इसकी चिंता क्यों ?
सहसा वे चैकी के आगे झुक आए, एक अजीब मुस्कराहट में उनके होंठ खुल गए, ‘‘जानते हो, जब बाबू ने वह मकान खरीदा था, तुम एम.ए. का फाइनल कर रहे थे, उन दिनों उस इलाके में
बिजली नहीं आई थी. तुम ऊपर बरसाती में लालटेन जला कर पढ़ते थे.’‘
‘‘तुम्हारा विवाह नीचे के आंगन में हुआ था.’‘
बरसाती, छत, आंगन, पता नहीं, वे मुझसे यह सब क्यों पूछ रहे थे?
अचानक रोशनदान के खाली खोखल में कुछ चमका, जैसे कोई बनैला जानवर अपनी चमकीली आंख से भीतर झांक कर अंधेरे में गायब हो जाए. मैंने कुछ भयभीत-सा हो कर उन्हें देखा, ‘‘क्या है?’‘
‘‘कुछ नहीं, बिजली चमकी है.’‘
इस वार्तालाप में लेखक की संवेदना की व्यक्तिगत टीस और जागरूक वैचारिकता का सन्तुलन स्पष्ट झलकता है. निर्मल वर्मा के कथा-साहित्य में एकल परिवार ही दृष्टिगोचर होता है. उनकी कहानी ’माया दर्पण’ में भी एकल परिवार है, परन्तु वे साथ होते हुए भी एक-दूसरे के बीच अलगाव महसूस करते हैं. इस कहानी की नायिका तरन अपने परिवार के साथ रहती है.
आज के युग में शिक्षित वर्ग में एकल परिवारों में बढ़¨तरी हुई है. एकल परिवार में कामकाजी महिलाएं ह¨ती हैं. उनक¨ अनेक कठिन परिस्थितयों से जूझना पड़ता है, क्य¨ंकि उनक¨ घर और बच्चे भी संभालने और साथ ही अपनी नौकरी का कार्य भी करना ह¨ता है.
भीष्म साहनी की सबसे प्रसिद्ध कहानी ’चीफ की दावत’ पर नज़र डालें तो हम पाते हैं कि यह बड़े ही मार्मिक ढंग से मध्यवर्गीय परिवार के संघर्ष के साथ वृद्ध माता-पिता को बोझ समझने वाले परिवार से पहचान कराती है.
इस कहानी में बूढ़ी मां की सरलता और बेटे की धूर्तता का एक दुखद प्रसंग है. मां के त्याग और बेटे की उपेक्षा से लेखक ने एक मां का दर्द उकेरा है, जो अपने बेटे बहू के लिए बोझ है. उदय प्रकाश की कहानियों में ‘नेलकटर’ ‘छप्पन तोले का करधन’, ‘तिरिछ’ और ‘अपराध’- आदि में भारतीय समाज में माता, पिता, भाई, बहन, बुआ, चाचा, दादी और दादा के किरदार पारिवारिक संबंधों के धरातल पर खड़े हैं.
वहां उनको कहते सुना गया , ” मैं राम स्वारथ प्रसाद , एक्स स्कूल हेडमास्टर एंड विलेज हेड ऑफ़ ग्राम बकेली ! ” किन्तु वहां उन्हें पागल समझकर कॉलोनी के छोटे-बड़े लड़कों ने उनपर पत्थर बरसाकर रही- सही कसर निकाल दी . उनका सारा शरीर लहुलुहान हो गया.
घिसते- पिटते लगभग शाम छह बजे सिविल लाइंस की सड़क की पटरियों पर बनी मोचियों की दुकान में से गणेशवा मोची की दूकान के अंदर चले गए. गणेसवा मोची उनके बगल के गाव का रहनेवाला था.
उसने उन्हें पहचाना. कुछ ही देर में उनकी मृत्यु हो गई . इनकी कहानियों मेे परिवारों के संबंधों की गहराई और कचोट बड़ी ही तीव्रता से महसूस होती है.
नासिरा शर्मा का उपन्यास ‘पारिजात’ तलाश है. उस पारिजात की जिसको रोहन की पत्नी अपने साथ लेकर कहीं गुम हो गई. रोहन के अंदर का बाप अपनी औलाद के लिए दिन-रात तड़पता है.
वह हर पल उसके मिलने की आस लगाए रहता है. इस आशा में लंबे-लंबे ई-मेल और खत लिखता है कि उनको पढ़कर कभी तो उनके कलेजे का टुकड़ा उन तक पहुंचेगा. एक बाप के उद्गार-
“तुम मेरी आंखों में खिलते
पारिजात हो.
धीरे-धीरे पंखुड़ी खोलते
मेरे अंश के वंशज
तुम्ही हो मेरे प्यार के साक्षी
मेरी गंध, उसकी सुगंध
मेरा माथा, उसके होंठ,
दादा की नाक, दादी की आंखें
सबका कुछ-कुछ लेकर तुम.
इकलौते प्यार हो
पारिजात मेरे.“
जब हम बुजुर्ग सास-ससुर को पराया मानते हैं तो उनके प्रति हमारा व्यवहार पूर्णतः बदल जाता है. उनकी उपस्थिति बेमानी प्रतीत होने लगती है. ऐसा व्यवहार हमें देखने को मिलता है नासिरा जी के ‘काग़ज़ की नाव’ उपन्यास में. ज़ाकिर की पत्नी महलक़ा अपने ससुर से कहती है-
“अरे, कब से पुकार रही हूं, बुढ़ऊ सुन क्यों नहीं रहे हैं?“
“यह लीजिए मोबाइल. रात को
इनका फ़ोन आएगा. मेरी शिकायत न करिएगा, समझे.“
कहानी-संग्रह ‘फिर बसंत आया’ में उषा प्रियंवदा की सभी कथाओं में युगबोध स्पष्ट है. वर्तमान भारतीय समाज में पारिवारिक रिश्तों में बदलाव, खिंचाव , अलगाव, उदासी, नारी अस्मिता आदि विषयों की उनकी कहानियों में सशक्त अभिव्यक्ति है.
‘वापसी‘ कहानी में मुख्य पात्र गजाधर बाबू पैंतीस साल की नौकरी से रिटायर्ड होकर घर लौटते हैं, लेकिन परिवार के लोगों का उनके प्रति उदासीन बर्ताव उन्हें अकेला कर देता है. वे अपने परिवार से जुड़े रहना चाहते हैं, पर उनके परिजनों को उनकी उपस्थिति कांटे की तरह खटकती रहती है.
क़ुर्रतुलएन हैदर के नाॅविल व कहानियां बटवारे की त्रासदी से आहत परिवारों की टूटन वेदना से बोझिल हैं. ‘सीता हरण‘ नाॅवलट में सिंध पाकिस्तान से सीता मीरचंदानी के भारत आकर अपनी जड़ों से कटने के दर्द के साथ इरफान और जमील के यूपी से उजड़ कर पाकिस्तान चले जाने का दंश झेल रहे उजड़े परिवारों की दास्तान है.
आतमीय संबंधों के बिखराव की पीर शायरों ने अपने कलाम में अपने अनुभवों के आधार पर चित्रित की है-
दिल के रिश्ते अजीब रिश्ते हैं
सांस लेने से टूट जाते हैं
- मुस्तफ़ा ज़ैदी
एक रिश्ता भी मोहब्बत का अगर टूट गया
देखते देखते शीराज़ा बिखर जाता है
- नुशूर वाहिदी
नया इक रिश्ता पैदा क्यूं करें हम
बिछड़ना है तो झगड़ा क्यूं करें हम
- जौन एलिया
जाने किन रिश्तों ने मुझ को बांध रक्खा है कि मैं
मुद्दतों से आंधियों की ज़द में हूं बिखरा नहीं
-बशर नवाज़
अब जो रिश्तों में बंधा हूं तो खुला है मुझ पर
कब परिंद उड़ नहीं पाते हैं परों के होते
-जौन एलिया
वर्तमान युग में जीवन के मूल्यों एवं मान्यताओं का स्वरूप बदल गया है. आर्थिक, सामाजिक,नैतिक समस्याएं व्यक्तिगत रूप से परिवारों को प्रभावित कर रही हैं.
इन परिस्थितियों से हताश व्यक्ति के लिए सकारात्मक साहित्य पढ़ना या लिखना सार्थक जीवन के सत्य को प्रकट करने वाले विचारों और भावों की सुंदर अनुभूति व अभिव्यक्ति है.
आजकल संचार साधनों और सोशल मीडिया के माध्यम से साहित्यिक अभिवृत्तियां समाज के नवनिर्माण में अपना भरसक योगदान दे रही हैं.
लेखिका पेशे से शिक्षक और जानी-मानी साहित्यकार हैं.