मदनी खानदानः मजहब से सियासत तक

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  [email protected] | Date 27-01-2022
मदनी खानदानः मजहब से सियासत तक
मदनी खानदानः मजहब से सियासत तक

 

गौस सिवानी / नई दिल्ली

देवबंद का मदनी परिवार न केवल भारत और विदेशों में पहचाना जाता है, उच्च सम्मान का प्रतीक भी है.एक सदी से भी अधिक समय से, परिवार का धार्मिक और राजनीतिक महत्व रहा है. परिवार के संस्थापक स्वतंत्रता सेनानी मौलाना सैयद हुसैन अहमद मदनी एक इस्लामिक विद्वान के रूप में विश्व प्रसिद्ध हैं. पंडित जवाहरलाल नेहरू भी उनका सम्मान करते थे.

उनके पुत्र मौलाना सैयद असद मदनी (दिवंगत) धर्म, समाज और राजनीति के क्षेत्र में सक्रिय थे और तीन बार राज्यसभा के सदस्य रहे. मौलाना असद मदनी के बेटे मौलाना महमूद मदनी को भी एक बार राज्यसभा का सदस्य बनाया गया था.

मौलाना हुसैन अहमद मदनी के मंझले पुत्र मौलाना अरशद मदनी दारुल उलूम देवबंद के प्राचार्य और शिक्षक हैं. प्रसिद्ध सामाजिक-राजनीतिक संगठन जमीयत उलेमा-ए-हिंद को इस परिवार से अलग नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह इस परिवार की ताकत का स्रोत है. फिलहाल पारिवारिक विवाद के चलते यह दो गुटों में बंट गया है.

मौलाना सैयद हुसैन अहमद मदनी

मौलाना हुसैन अहमद मदनी का जन्म 1879 में उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के बांगर मऊ में हुआ था. प्राथमिक शिक्षा टांडा, फैजाबाद जिले में हुई, जहां माता-पिता प्रधानाध्यापक थे.

वह उच्च शिक्षा के लिए दारुल उलूम देवबंद गए. वह कुछ समय मदीना में रहे और पहले वहीं पढ़ाई की और फिर बच्चों को पढ़ाना शुरू किया. उनके छात्रों में दुनिया भर के विभिन्न राष्ट्रीयताओं के छात्र शामिल थे. वह धार्मिक अध्ययन के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान में भी पारंगत थे.

https://www.hindi.awazthevoice.in/upload/news/164330689526_Madani_family_from_religion_to_politics_1.jpg

जब मौलाना के शिक्षक मौलाना महमूद हसन देवबंदी को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर माल्टा जेल भेज दिया, तो मौलाना हुसैन अहमद मदनी उनकी सहमति से जेल गए. द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद रिहा हुए और भारत लौट आए. वह यहां देवबंद में रहे और दारुल उलूम में हदीस पढ़ाना शुरू किया. यहां 5 दिसंबर 1957 को उनका निधन हो गया.

इन्हें ‘मदनी’ क्यों कहा जाता है?

मदनी परिवार में मौलाना सैयद हुसैन अहमद को पहले ‘मदनी’ कहा जाता था. मदीना मुनव्वरा के संबंध में ऐसा इसलिए कहा गया, क्योंकि कुछ समय तक वह मदीना में रहे और वहीं अध्यापन करते रहे. मौलाना तब भी किशोर थे, जब उनके पिता मौलाना सैयद हबीबुल्लाह मदीना चले गए. सैयद हबीबुल्लाह के साथ उनके सभी बच्चे भी थे.

मदनी परिवार और सूफीवाद

मदनी परिवार का सूफी मत से पुराना नाता है. मौलाना सैयद हुसैन अहमद मदनी के पिता मौलाना सैयद हबीबुल्ला अपने समय के प्रसिद्ध सूफी संत मौलाना फजलुर रहमान गंज मुरादाबादी के करीब थे. मौलाना मदनी ने मौलाना राशिद अहमद गंगोही से खिलाफत हासिल की थी. वह चिश्तिया वंश के संरक्षक थे और यह वंश बाद के समय में भी इस परिवार में जारी रहा.

मौलाना हसीदान अहमद मदनी के बेटे मौलाना सैयद असद मदनी मरहूम भी पीर थे. उनके मुरीदों की श्रृंखला पूरे भारत में फैली हुई है. उनके बड़े अनुयायी हैं, खासकर बांग्लादेश, पश्चिम बंगाल और असम में.

स्वतंत्रता संग्राम के लिए गाइड

मौलाना सैयद हुसैन अहमद गृहयुद्ध के सक्रिय नेताओं में से एक थे. वह राष्ट्रवादी विद्वानों में से एक थे, जिन्होंने पाकिस्तान की विचारधारा को खारिज कर दिया और भारत के विभाजन का विरोध किया. उनके नेतृत्व में जमीयत उलेमा-ए-हिंद एक मजबूत पार्टी थी.

राजनीति और मौलाना हुसैन अहमद मदनी

मुजाहिद आजादी मौलाना सैयद हुसैन अहमद मदनी विज्ञान, लेखक और शिक्षा विशेषज्ञ थे. वह जामिया मिलिया इस्लामिया (नई दिल्ली) के संस्थापकों में से एक थे. उन्हें धार्मिक हलकों में सम्मान के साथ माना जाता था. वे राजनीतिक हलकों में भी लोकप्रिय थे और फकीरों द्वारा भी उनका सम्मान किया जाता था और वे देवबंद उनसे मिलने आते थे.

तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू उनके साथ मंच साझा किया करते थे. उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया था और उनकी सेवाओं की मान्यता में भारत सरकार द्वारा ‘भारत भूषण’ की उपाधि से सम्मानित किया गया था, लेकिन मौलाना ने इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया. भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया था. उनके सम्मान में बांग्लादेश के सिलहट में ‘मदनी स्क्वायर’ है. मौलाना ने पाकिस्तान की विचारधारा का कड़ा विरोध किया था और महात्मा गांधी, पंडित नेहरू और सरदार पटेल के स्वीकार करने के बाद भी भारत के विभाजन को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था. इस संबंध में अल्लामा इकबाल के साथ उनके गंभीर मतभेद थे.

मौलाना असद मदनी

मदनी परिवार के दूसरे सदस्य मौलाना असद मदनी (27 अप्रैल 1928 - 6 फरवरी 2006) थे, जिन्होंने परिवार की प्रतिष्ठा में चार चांद लगाए. वह एक इस्लामी विद्वान और राजनीतिज्ञ थे. वह जमीयत उलेमा-ए-हिंद के छठे महासचिव और सातवें अध्यक्ष बने. वह दारुल उलूम देवबंद के कार्यकारी निकाय के सदस्य थे. वह कांग्रेस की तीन टिकटों पर राज्यसभा के सदस्य बने और करीब 14 साल तक संसद में रहे.

https://www.hindi.awazthevoice.in/upload/news/164330712526_Madani_family_from_religion_to_politics_3.jpg

उनकी स्मृति में एक अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 23 और 24 अप्रैल 2007 को नई दिल्ली में आयोजित की गई थी. संगोष्ठी में ‘मदनी के संसदीय भाषण’ भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा दिए गए थे.

मौलाना असद मदनी बांग्लादेश में भी काफी लोकप्रिय थे. उन्होंने पहली बार 1933 में पूर्वी बंगाल का दौरा किया और 1973 से लगभग हर साल वहां रहे हैं. बांग्लादेश के 1971 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, मदनी ने पाकिस्तानी सेना और उसके सहयोगियों की क्रूर हिंसा का कड़ा विरोध किया और शरणार्थी शिविरों को सहायता वितरित की.

https://www.hindi.awazthevoice.in/upload/news/164330716326_Madani_family_from_religion_to_politics_4.jpg

मौलाना अरशद मदनी

अरशद मदनी (जन्म 1941) दिवंगत मौलाना हुसैन अहमद मदनी के मझले पुत्र थे और एक धार्मिक विद्वान और दारुल उलूम देवबंद के वर्तमान प्राचार्य हैं. वह मौलाना असद मदनी की मृत्यु के बाद जमीयत उलेमा-ए-हिंद के एक गुट के अध्यक्ष हैं. उनका मानना है कि अखंड भारत के लिए धर्मनिरपेक्षता ही एकमात्र रास्ता है.

मौलाना महमूद असद मदनी

मौलाना महमूद असद मदनी (जन्म 3 मार्च 1964) एक देवबंद-शिक्षित विद्वान, राजनीतिज्ञ और जमीयत उलेमा-ए-हिंद के एक समूह के अध्यक्ष हैं. वह 2006 से 2012 तक राज्यसभा में राष्ट्रीय लोक दल के सदस्य रहे.

https://www.hindi.awazthevoice.in/upload/news/164330721526_Madani_family_from_religion_to_politics_5.jpg

रॉयल इस्लामिक सेंटर फॉर स्ट्रेटेजिक स्टडीज द्वारा प्रकाशित दुनिया के 500 सबसे प्रभावशाली मुसलमानों की सूची में उन्हें 27वां स्थान दिया गया है.

मदनी परिवार की ताकत

जमीयत उलेमा-ए-हिंद नवंबर 1919 में अस्तित्व में आई. इसके अधिकांश संस्थापक देवबंदी विद्वान थे, लेकिन इसके दरवाजे सभी के लिए खुले थे और प्रमुख मुस्लिम हस्तियां इसमें शामिल हुईं. इस संगठन ने देश की मुक्ति में सक्रिय भूमिका निभाई और कांग्रेस के साथ घनिष्ठ संबंध बनाए रखा. एक समय ऐसा भी आया, जब इसकी बागडोर मौलाना सैयद हुसैन अहमद मदनी के हाथों में आ गई और धीरे-धीरे यह उनके परिवार का संगठन बन गया.

हुसैन अहमद मदनी 13 जुलाई 1940 से 5 दिसंबर 1957 तक इसके अध्यक्ष रहे. दो साल बाद, उनके बेटे मौलाना सैयद असद मदनी 11 अगस्त, 1973 को सदर बने और ताउम्र (6 फरवरी, 2006) तक जमीयत के अध्यक्ष बने रहे.

उनकी मृत्यु के बाद, जमीयत अब उनके छोटे भाई मौलाना सैयद अरशद मदनी और उनके बेटे मौलाना सैयद महमूद मदनी के बीच विभाजित है. यह संगठन इस परिवार की ताकत बन गया है, क्योंकि इसकी जड़ें बहुत मजबूत हैं और इसके सदस्यों और मुरीदों की संख्या बहुत बड़ी है.

जमीयत की ताकत के कारण मौलाना सैयद असद मदनी लंबे समय तक कांग्रेस के टिकट पर राज्यसभा के सदस्य रहे. बाद में मौलाना सैयद महमूद मदनी भी राज्यसभा सदस्य बने रहे. वर्तमान में मौलाना बदरुद्दीन अजमल की राजनीतिक पार्टी एआईयूडीएफ, जो असम में एक राजनीतिक ताकत के रूप में उभरी है, की महत्वपूर्ण भूमिका है. मौलाना बदरुद्दीन अजमल असम में जमीयत का चेहरा रहे हैं और उन्होंने जमीयत के दम पर अपनी राजनीतिक पार्टी बनाई है.

इसी तरह, पश्चिम बंगाल में जमीयत के महासचिव मौलाना सिद्दीकुल्ला चौधरी ने भी जमीयत के समर्थन से बंगाल में अपनी राजनीतिक ताकत बनाई और वर्तमान में पश्चिम बंगाल सरकार में मंत्री हैं. इन दोनों के अलावा और भी लोग हैं, जिन्होंने जमीयत के सहारे अपनी राजनीतिक पहचान बनाई है.