झारखंडः अंतरराष्ट्रीय स्तर की जेवलिन थ्रो खिलाड़ी कर्ज, गरीबी और बीमारी से जूझ रही, दवा के भी पैसे नहीं, मदद की दरकार

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] | Date 28-06-2022
खिलाड़ी मारिया को है मदद की दरकार
खिलाड़ी मारिया को है मदद की दरकार

 

आवाज- द वॉयस/ एजेंसी

अंतर्राष्ट्रीय भालाफेंक खिलाड़ी रांची की मारिया गोरोती खलखो आज भारी आर्थिक कर्ज और फेफड़ों की बीमारी से जूझ रही हैं. उन्होंने शादी भी नहीं की है, क्योंकि अपना पूरा जीवन खेल को समर्पित कर दिया.

1970 के दशक में उन्होंने एक दर्जन राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भाग लेकर कई स्वर्ण और रजत पदक जीते. उच्चतम स्तर पर प्रतिस्पर्धा करने के बाद उन्होंने अपने जीवन के लगभग 30 वर्ष अन्य एथलीटों को भालाफेंक के प्रशिक्षण में बिताए.

आज वह फेफड़ों की बीमारी के कारण सांस के लिए हांफ रही हैं और हमेशा बिस्तर पर रहती हैं. उन्हें चलने के लिए भी सहारे की जरूरत पड़ती है. अफसोस की बात है कि अपने जमाने की एक प्रतिष्ठित एथलीट के पास आज अपने लिए दवा और खाना खरीदने के लिए भी पैसे नहीं हैं.

मारिया फिलहाल रांची के नामकुम इलाके में अपनी बहन के घर रहती हैं. उनकी बहन की आर्थिक स्थिति भी ठीक नहीं है. पिछले कुछ महीनों में उनका स्वास्थ्य इस तरह से खराब हो गया है कि खेल के मैदान में कभी मजबूत ताकत दिखाने वाले हाथ अब एक गिलास पानी तक उठा नहीं पाते हैं.

फरवरी में जब मारिया की गरीबी की खबरें प्रकाशित हुई तो झारखंड खेल विभाग ने उन्हें तत्काल 25,000 रुपये की सहायता दी थी. लेकिन यह नाकाफी साबित हुआ है. इससे पहले विभाग ने मारिया की बीमारी से लड़ने में मदद के लिए खिलाड़ी कल्याण कोष से एक लाख रुपये की आर्थिक मदद की थी, लेकिन महंगी दवाओं और इलाज के कारण यह राशि जल्द ही समाप्त हो गई.

64 वर्षीय पूर्व एथलीट को वृद्धावस्था पेंशन भी नहीं मिलती है. डॉक्टरों ने मारिया को दूध पीने, अंडे खाने और पौष्टिक भोजन करने की सलाह दी है, लेकिन जब वह एक दिन में दो वक्त का भोजन नहीं कर सकती, तो पौष्टिक भोजन कैसे खरीदेंगी?

उनकी दवाओं पर ही हर महीने 4,000 रुपये से ज्यादा खर्च हो जाता है. फेफड़ों की बीमारी की शुरुआत के बाद से मारिया पर 1 लाख रुपये से ज्यादा का कर्ज है. मारिया बचपन से ही एथलीट बनना चाहती थीं. 1974 में, जब वह कक्षा 8 की छात्रा थीं, तब उन्होंने राष्ट्रीय स्तर की भाला प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीता था. उन्होंने अखिल भारतीय ग्रामीण शिखर सम्मेलन में भालाफेंक में स्वर्ण पदक भी जीता.

1975 में, उन्होंने मणिपुर में आयोजित राष्ट्रीय स्कूल प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीता. 1975-76 में जब जालंधर में इंटरनेशनल जेवलिन मीट का आयोजन किया गया तो मारिया ने फिर से गोल्ड मेडल जीता. 1976-77 में भी, उन्होंने कई राष्ट्रीय और क्षेत्रीय प्रतियोगिताओं में अपनी योग्यता साबित की.

1980 के दशक में, उन्होंने कोचिंग की ओर रुख किया. 1988 से 2018 तक, उन्होंने झारखंड के लातेहार जिले के महुआदनार में सरकारी प्रशिक्षण केंद्र में 8,000 से 10,000 रुपये प्रति माह के वेतन पर एक कोच के रूप में कार्य किया.

नौकरी संविदा पर थीं, इसलिए सेवानिवृत्ति के बाद भी मारिया के पास लगभग कोई पैसा नहीं बचा था. मारिया से भालाफेंकने की तकनीक सीखने वाली यशिका कुजूर, एम्ब्रेसिया कुजूर, प्रतिमा खलखो, रीमा लाकड़ा जैसे कई एथलीट देश-विदेश में कई प्रतियोगिताओं में मेडल जीत चुकी हैं.

झारखंड ग्रैपलिंग एसोसिएशन के प्रमुख प्रवीण सिंह का कहना है कि राज्य सरकार द्वारा पूर्व खिलाड़ियों की मदद के लिए कई घोषणाएं करने के बावजूद उनकी मदद के लिए कोई ठोस योजना नहीं बन पाई. सिंह ने आगे कहा कि जब मीडिया ऐसे खिलाड़ियों की दुर्दशा का मुद्दा उठाता है, तभी उन्हें आवश्यक मदद मिल पाती है