कई चांद थे सरे आसमां

Story by  मुकुंद मिश्रा | Published by  [email protected] | Date 23-05-2021
कोरोना काल ने छीन लिए कई साहित्यकार-रंगकर्मी
कोरोना काल ने छीन लिए कई साहित्यकार-रंगकर्मी

 

कवर स्टोरी । स्मृतिशेष      

अरविंद कुमार

कोरोना के कारण देश को आर्थिक नुक्सान तो हुआ ही है  भारतीय समाज की साझी संस्कृति को भी बहुत नुक्सान हुआ है. यह कोरोना काल इस बात के लिए भी याद रहेगा कि उसने हमारी खूबसूरत दुनिया तो उजाड़ दिया, जिसे उर्दू और हिंदी के फनकार और अदीबों ने बड़े शौक से बनाया था. उन लोगों ने अपनी कलम और फन से इस समाज में शांति और मोहब्बत तथा भाईचारे का संदेश फैलाया था,  दोनों कौमों की तहजीब और तमद्दुन को संवारा था.

हिंदी के प्रसिद्ध उपन्यासकार गिरिराज किशोर से लेकर राहत इंदौरी और मंगलेश डबराल तथा शम्सुर्रहमान फारुकी से लेकर हाल ही में हम से विदा लेने वाली तरन्नुम रियाज तक इन लोगों में शामिल हैं.

हिंदी की दुनिया में माधुरी के पूर्व संपादक अरविंद कुमार, रमेश उपाध्याय, कवि विजेंद्र, चित्रकार-कथाकार प्रभु जोशी, उपन्यासकार मंजूर एहतेशाम जैसे लोग अलविदा कह गए जो उर्दू से बेहद मोहब्बत करते थे और साझा विरासत में यकीन करते थे तथा फिरकापरस्ती का विरोध करते थे.

उर्दू की दुनिया में पिछले साल सबसे बड़ा हादसा शम्सुर्रहमान फारुकी जैसे मशहूर नोवलिस्ट और नक्काद का इंतकाल था जो हमसे कोरोना काल में विदा हो गए. इनके निधन का दुख उर्दू साहित्य से अधिक हिंदीवालों को हुआ क्योंकि उनका मशहूर उपन्यास "कितने चांद थे सरे आसमां" हिंदी की दुनिया में भी उतना ही सराहा गया जितना उर्दू की दुनिया में. फारुकी साहब को इलाहाबाद की जमीन पर सुपुर्द-ए-खाक किया गया. उनका जाना इस मुल्क की गंगा-जमुनी संस्कृति का जाना था. गालिब, मीर से लेकर फिराक तक उनका अध्ययन बहुत गहरा था. 

राहत इंदौरी तो भारत के मुशायरों में ही नहीं बल्कि दुनिया भर के मुल्कों में अपनी शायरी से लोगों का दिल जीत लिया था. वे इंकलाब और जुल्म के विरोध के शायर थे.उन्होंने हुक्मरानों को जबरदस्त ललकारा था और मुल्क की गंदी सियासत को बेपर्दा किया था.

गत वर्ष दिसंबर में ही दिल्ली घराने के शास्त्रीय गायक इकबाल मोहम्मद हुसैन नहीं रहे. उनकी इस मौत ने न केवल दिल्लीवासियों को  बल्कि मुल्क के कला प्रेमियों को गहरे सदमे में डाल दिया.पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार से लेकर अमजद अली खां और दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने खान साहब के इंतकाल पर गहरा शोक व्यक्त किया और कला की दुनिया में इसे अपूरणीय क्षति बताया.

66 वर्षीय खानसाहब दादरा,ठुमरी,भजन के लिए ही नहीं बल्कि ग़ज़ल गायकी के लिए भी जानेजाते थे और उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर न केवल अपनी पहचान बनाई,बल्कि दिल्ली घराने के संगीत को भी प्रचारित प्रसारित किया और उसे बुलंदियों पर पहुंचाया.

उन्हें ज्ञान आचार्य की भी उपाधि दी गई थी. उन्होंने 4साल की उम्र से ही संगीत की दुनिया में कदम रखा था. उनके दादा उस्ताद चांद खान भी बड़े गायक माने जाते थे.खान साहब की अनुपस्थिति में कला की दुनिया को नाशाद तो किया ही, लेकिन उर्दू के स्कॉलर ड्रामानिगार नक्काद शमीम हनफी,उर्दू के अफसानानिगार मुशर्रफ आलम जॉकी, जाने-माने शायर जहीर कुरैशी, शायरा तरन्नुम रियाज और चर्चित रंगकर्मी अजहर आलम के नहीं रहने से यह दुनिया और थोड़ी उदास हो गई और एक खालीपन भी आ गया.

उर्दू के मशहूर नक्काद एवं नोवलिस्ट शम्सुर्रहमान फारुकी के कोरोना के कारण इंतकाल से उर्दू की दुनिया कुछ महीनों से उदास तो थी ही अब शमीम हनफी जैसे नामचीन स्कॉलर, नाटककार और नक्काद के  इंतकाल से यह शून्य थोड़ा और गहरा हो गया.

उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर में 1938में जन्मे हनफ़ी साहब 82वर्ष के थे. उनके परिवार में उनकी पत्नी के अलावा दो बेटियां हैं. हनफी साहब उर्दू के उन चंद अदीबों में से थे जो हिंदी में भी बाकायदा लिखते थे और हिंदी अदब की दुनिया से ही भी उनका उतना ही रिश्ता था. प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह, ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कवि कुंवर नारायण, केदारनाथ सिंह और सुप्रसिद्ध कवि-संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेयी जैसे लोग उनके अजीज दोस्तों में थे.

जामिया विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के अध्यक्ष रहे महेंद्र पाल शर्मा कहते हैं, "जब मैंने जामिया में नौकरी शुरू की थी तो नामवर जी ने मुझे उनके बारे में बताया था और कहा था कि आप हनफी साहब से जरूर मिले. उनके कहने पर मैं उनसे मिलता रहा बल्कि धीरे-धीरे उनके परिवार से भी घुलमिल गया और उनसे काफी कुछ मुझे सीखने का मौका भी मिला. वह एक रोशनख्याल इंसान थे और पूछते रहते थे कि हिंदी में क्या कुछ लिखा जा रहा है.”

हिंदी के दिवंगत कवि केदारनाथ सिंह भीअपने मित्रों से हनफी साहब का  जिक्र जरूर किया करते थे. हनफी साहब रजा फाउंडेशन के कार्यक्रमों में भी अशोक वाजपेयी के मेहमान हुआ करते थे.

जामिया विश्वविद्यालय के प्रो. वजाउद्दीन अल्वी बताते हैं कि शमीम साहब 1976में जामिया में आए थे और 2000के आसपास वे डीन  बने थे. इतना ही नहीं शाहिद मेहंदी के कुलपति बनने से पहले वह कुछ दिन जामिया के कार्यवाहक कुलपति भी थे.

जामिया आने से पहले वे अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय में अध्यापक थे. अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय से डीलिट उन्होंने किया था और इलाहाबाद विश्विद्यालय से उर्दू में एमए तथा पीएचडी की थी.

उन्होंने 1965में पहला नाटक ‘आखिरी खुश’लिखा था.‘मिट्टी का बुलावा’और ‘बाजार में नींद’भी उनके चर्चित नाटक थे.

शमीम हनफी को आधुनिकता का बड़ा स्कॉलर माना जाता था और वह उर्दू अदब में जदीदियत के बारे में बहुत ही गंभीर ढंग से विचार करते थे. जदीदियत फलसीफियाना अहसास (फिलॉसफी ऑफ मॉडर्निज्म) और नई शायरी की रिवायत उनकी एक चर्चित किताब भी है.

उन्होंने गालिब और मंटो पर भी लिखा था.इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पढ़े-लिखे शमीम हनफी की दस किताबें साया हुई थी. उनकी हिंदी में भी दो किताबें छपी थीं.

जनवादी लेखक संघ ने उनके निधन पर शोक व्यक्त करते हुए कहा, "उर्दू की साहित्यिक आलोचना में हनफ़ी साहब का क़द बहुत ऊंचा रहा है. ‘जदीदियत की फलसफ़ियाना असास’, ‘नई शेरी रवायत’, ‘उर्दू कल्चर और तक़सीम की रवायत’, ‘मंटो हक़ीक़त से अफ़साने तक’, ‘ग़ालिब की तख्लीक़ी हिस्सियत’, ‘ग़ज़ल का नया मंज़रनामा’ आदि उनकी मशहूर किताबें हैं. वे अच्छे शायर और ड्रामानिगार भी थे. ‘आख़िरी पहर की दस्तक’ उनकी शायरी का मज्मूआ है. उनके लिखे नाटकों में ‘मिट्टी का बुलावा’, ‘बाज़ार में नींद’ और ‘मुझे घर याद आता है’ प्रमुख हैं.

शमीम हनफ़ी साहब का निधन उर्दू-हिंदी की साझी दुनिया के लिए एक बहुत बड़ी क्षति है. हम एक बार फिर उनकी स्मृति को सादर नमन करते हैं."

ऐसा ही बड़ा नुक्सानउर्दू की मशहूर अफसानानिगार और शायरा  तरन्नुम रियाज के जाने से हुआ. वह 62वर्ष की थी. उनके परिवार में उनके दो बेटे हैं.

तरन्नुम रियाज के पति रियाज पंजाबी का पिछले माह कोरोना के कारण इंतकाल हो गया था. वह कश्मीर विश्वविद्यालय के कुलपति थे.कश्मीर में जन्मी रियाज ऑल इंडिया रेडियो की जानीमानी एंकर थीं और दूरदर्शन में भी प्रोग्राम देती थीं.

उन्होंने शायरी के अलावा अफसाने और नोवेल भी लिखे तथा अपने लेखन से अपनी मुकम्मल पहचान राष्ट्रीय स्तर पर बनाई थी. उन्होंने कश्मीर विश्वविद्यालय से उर्दू में एमफिल और पीएचडी की थी.उन्हें 2006में दिल्ली उर्दू अकादेमी तथा यूपी उर्दू अकादेमी का भी अवॉर्ड मिला था. उन्होंने साहित्य अकादेमी के लिए बीसवीं सदी में ख्वातीन  उर्दू अदब पर एक किताब संपादित की थी. वह एक कुशल अनुवादक तथा निबंधकार भी थीं.

वह संस्कृति मंत्रालय की सीनियर फेलो भी थी .

उनकी चर्चित किताबों में ‘भादो के चांद तले’,‘अजनबी जजीरो में’,‘मेरे रखते सफर’और ‘पुरानी किताबों की खुशबू’,‘यह तंग जमीन’,‘अबाबीलें लौट आएंगी’और ‘मूर्ति’ शामिल है.

 24नवंबर,1963को बिहार के आरा में जन्मे मुशर्रफ आलम जौकी  हिंदी और उर्दू में समान रूप से लिखते थे और दोनों जुबान में उनकी अपनी पहचान भी थी.वह बहुत लिक्खाड किस्म के लेखक थे और इतनी कम उम्र में उन्होंने करीब 30पुस्तकें लिख दी थी. उन्होंने साहित्य की हर विधा में कलम चलाई थी, चाहे वह अफसाना हो या नावेल या नाटक या धारावाहिक लेखन. वह हर फन के उस्ताद थे और नए-नए विषयों पर भी लिखा करते थे. इसके अलावा भारतीय राजनीति पर भी उनकी गहरी पकड़ थी और उन्होंने ‘गुड बाय राजनीति’नामक एक नाटक भी लिखा था जिसमें वर्तमान राजनीति के पतन पर रौशनी डाली गई थी. इसके अलावा ‘इमाम बुखारी का नैपकिन’नामक एक कहानी संग्रह भी साया हुआ था. ‘मुसलमान’शीर्षक से उनका एक नावेल भी आया था. उनकी किताब ‘पोकेमोन की दुनिया’से भी पता चलता है कि वह टेक्नोलॉजी से समाज में हो रहे बदलाव को भी साहित्य मेंदर्ज करना जानते थे.

सबसे दुखद यह है उनके इंतकाल के 2दिन बाद ही उनकी पत्नी तब्बसुम फातिमा का भी इंतकाल हो गया. उनकी भी उर्दू अदब में अपनी पहचान थी. खुद उन्होंने परवीन शाकिर, सारा शगुफ्ता पर किताबों के अलावा ‘उर्दू की शाहकार कहानियां’,‘सरहद पार की कहानियां’,‘पाकिस्तान की शायरी’नामक किताबों का भी संपादन और अनुवाद किया था.

जौकी दंपति के इंतकाल के बाद कोलकाता के जाने-माने रंगकर्मी अजहर आलम भी हमसे विदा हो गए. हिंदी उर्दू रंगमंच के जाने-माने निर्देशक और अभिनेता एसएम अजहर का कोरोना के कारण कोलकाता के अस्पताल में निधन हो गया.

50 वर्षीय अजहर के परिवार में उनकी रंगकर्मी पत्नी उमा झुनझुनवाला के अलावा एक पुत्र और पुत्रीहैं.

कोलकाता के मौलाना आजाद कॉलेज में उर्दू के प्रोफ़ेसर अजहर आलम को कुछ समय पहले ही दिल्ली में प्रतिष्ठित नटरंग सम्मान से सम्मानित किया गया था. उन्होंने अपने कैरियर में करीब 50नाटकों में काम किया था और उर्दू में सात नाटकों का रूपांतर और लेखन भी किया था.

उन्होंने ‘उर्दू थियेटर परंपरा’विषय पर पीएचडीकी थी तथा 1960के बाद उर्दू नाटकों के अनुवाद विषय पर पोस्ट डॉक्टोरल भी किया था.उनके चर्चित नाटकों में ‘चेहरे’और ‘रूहें’ हैं,जिसका मंचन देश के विभिन्न शहरों में हुआ था.उन्होंने देश के विभिन्न शहरों में होने वाले प्रमुख नाट्य महोत्सवों में भी लिया था.

उन्होंने लिटिल थेप्सियन नामक एक नाट्य कंपनी बनाई थी जिसके वे निदेशक थे और अपनी पत्नी उमा झुनझुनवाला के साथ मिलकर कोलकाता में हिंदी रंगमंच को नई पहचान दी थी. उषा गांगुली के बाद कोलकाता में अगर किसी ने हिंदी में रंगमंच की बागडोर संभाली थी तो वह अजहर आलम ही थे. उनकी रंगकर्मी पत्नी उमा झुनझुनवाला भी इस मुहिम में शामिल थी.

अजहर लिटिल थेस्पियन के माध्यम से कोलकाता एवं देश के दूसरे भागों में रंगमंच का मंचन  करते थे तथा थियेटर फेस्टिवल भी आयोजित करते थे. अजहर आलम कोलकाता के मौलाना आजाद कॉलेज में उर्दू के प्रोफ़ेसर भी थे और उन्होंने उर्दू रंगमंच पर पीएचडी भी की थी तथा उर्दू के नाटकों के अनुवाद विषय पर पोस्ट डॉक्टरेट भी किया था. वह गंभीर विनम्र और मिलनसार किस्म के नाट्य निर्देशक थे जिन्हें साहित्य में भी गहरी रुचि थी और विभिन्न कलाओं में भी दिलचस्पी थी.

उन्होंने अपनी जो टीम तैयार की थी उसने कई महत्वपूर्ण नाटकों का मंचन किया और इस तरह कोलकाता में हिंदी रंगमंच का एक विशाल दर्शक वर्ग भी तैयार किया था. ऐसे समय में जब रंगमंच करना बहुत दुष्कर कार्य हो, अजहर का प्रयास समाज को बेहतर बनाने और आपसी  भाईचारे तथा मोहब्बत की दास्तान सुनाने की एक कोशिश था.

हिंदी कथा साहित्य में नफीस और जहीन लेखकों की एक लंबी परंपरा रही है. मंजूर ऐहतेशाम उसी रवायत के एक शानदार लेखक थे. जो लोग मंजूर भाई से मिले हैं, उनकी खूबसूरत गरिमामयी पर्सनेलिटी और बेपनाह इंसानियत से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते.