विशाल ठाकुर
भारत की पहली बोलती फिल्म ‘राजा हरीशचंद्र’ (1913) के आने के कई साल बाद चालीस के दशक के मध्य में जब दिलीप कुमार ने फिल्मों में कदम रखा था, तब तक भी सिनेमा उद्योग में बहुत कुछ बदला नहीं था.
ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के उस दौर में सिनेमा कोई ऐसी जगह नहीं थी, जहां ज्यादातर लोग उतावले मन से काम करना चाहते हों. महिलाओं को तो छोड़िए, तब घर में कोई पुरुष यह कह देता कि मुझे फिल्मों में काम मिल गया है, तो नाक-भौं सिकोड़ने वालों की लाइन लग जाती थी.
पहली बोलती फिल्म ‘आलमआरा’ (1931) को भी आये कुछ ही बरस हुए थे.हां, ये जरूर था कि टॉकीज कल्चर के भारत में आने से न केवल एक माहौल बनने लगा था, बल्कि इंडस्ट्री में नए लड़के-लड़कियों की मांग भी बढ़ने लगी थी.
लेकिन बॉम्बे टॉकीज के दफ्तर में कदम रखते समय तक भी युसुफ खान (दिलीप कुमार बनने से पहले) को इल्म नहीं था कि अगले कुछ पलों में उनके हाथों में एक मशहूर स्टूडियों की महत्वकांक्षी फिल्म होगी.
अभिनय या कहिए फिल्मक्राफ्ट का कोई अनुभव न सही, लेकिन नौजवान युसुफ खान को ये जरूर पता था कि किसी से बात कैसे की जाती है, अदब से कैसे पेश आते हैं.यह एक बड़ी वजह रही होगी कि डॉ. मसानी (अपने पुराने परिचित) के साथ जब पहली बार देविका रानी से मुखातिब हुए, तो ‘फस्र्ट एम्प्रेशन’ वाला फंडा काम कर चुका था.
हालांकि उस दिन वहां वो मेहमान-ए-खुसूसी के तौर पर तो गए भी न थे.लेकिन जब उनके सामने एक्टर बनने का प्रस्ताव आया तो बड़े सलीके से अपने बात रखते हुए उन्होंने कहा कि ‘मुझे इसका कोई अनुभव नही हैं.इस कला के बारे में नहीं जानता.’
हालांकि इसका मतलब यह कतई नहीं था कि हुनर के नाम पर युसुफ खान के पास कुछ नहीं था.वह एक पढ़े-लिखे नौजवान थे, जिसे अच्छे से हिन्दी-अंग्रेजी बोलनी आती थी और उर्दू-ए-अदब की उन्हें अच्छी जानकारी थी.पर क्या ये बातें उस दौर में किसी की खासियत बनने के लिए काफी रहतीं?
बाइस साल के युसुफ के मन में बेशक सवाल न कौंध रहे हों, लेकिन शायद देविका रानी को पता था कि एक चेहरे की तलाश कैसे की जाती है.दरअसल, युसुफ की अनुभव वाली बात के जवाब में उन्होंने फल बेचने वाली बात शामिल कर दी.
ये कहते हुए कि अगर उस काम के लिए मेहनत कर सकते हो तो बेशक, फिल्म कैसे बनती हैं, ये सीखने में परेशानी नहीं होगी। दरअसल, युसुफ का जन्म पेशावर, जो कि तब के ब्रिटिश इंडिया का ही हिस्सा था, में हुआ था.
उनके पिता जो कि एक पठान थे, का नाम मो. सरवर खान था और वह फलों के व्यापारी थे.पेशावर में उनके फलों के बाग हुआ करते थे। सन 1930में बम्बई आने के बाद वह अपने पिता के काम हाथ बंटाने लगे थे.
एक युवा जिसे एक्टिंग की एबीसीडी तक नहीं पता थी और जो किसी फिल्म स्टूडियो में गया ही पहली बार था, की हां का देविका रानी को अब भी इंतजार था.असल में उस दौर में जब दिलीप कुमार को इस फिल्म के लिए चुना जा रहा था, तब तक भी कलाकारों को अपना बाजार खुद ही तैयार करना पड़ता था.मसलन, एक पेशेवर की तरह अपने लिए वही सबकुछ करते थे.
हालांकि फिल्म ऑफर करते समय युसुफ खान (अब तक भी नाम नहीं बदला गया था) के सामने ये बात साफ हो चुकी थी कि बॉम्बे टॉकीज को अपनी फिल्म के लिए एक पढ़े-लिखे, खूबसूरत, अदबी नौजवान की तलाश की तलाश थी, जो उनके हां कह देने से पूरी हो सकती थी.
लेकिन रिवायती तौर पर यह बिलकुल अलग था. क्योंकि उस दौर में यही माना जाता था कि कलाकार का काम बस अपने निर्देशक के इशारे पर चलना होता है और फिल्म खत्म होने के बाद अपनी फीस लेकर दूसरी फिल्म के लिए जुट जाना है.लेकिन युसुफ संग कुछेक मुलाकातों बाद ही देविका रानी ने उन्हें नए स्क्रीननेम के साथ लॉन्च करने की बात कह दी थी.
यानी दिलीप कुमार के नए नाम से साथ न केवल एक सितारा परदे पर आ रहा था, बल्कि वो परिपाटी भी खत्म होने जा रही थी, जिसमें माना जाता था कि फिल्म चले या ना चले, हीरो की कोई जिम्मेदारी नहीं होगी.
बावजूद इसके दिलीप कुमार उन कुछ गिनेचुने अभिनेताओं में से थे जो इस सोच से कतई इत्तेफाक नहीं रखते थे.और यह एक बड़ी वजह हो सकती है कि अपने लगभग पांच दशक के लंबे फिल्म करियर में उन्होंने कोई 60के आस-पास फिल्मों में ही काम किया.
यानी जब उनकी अंतिम फिल्म ‘सौदागर’ (1991) आयी थी तो उनकी उम्र करीब 70के आस-पास रही होगी, जबकि फिल्मकार उन्हें उस दौर में भी कास्ट करने को आतुर रहते थे.फिल्में में काम बंद करने से पहले उन्होंने सबसे अधिक यानी तीन बार फिल्मकार सुभाष घई के साथ काम (विधाता, कर्मा और सौदागर में) किया.
वैसे, फिल्मों में अपने किरदार के दोहराव से बचना दिलीप साहब की खासियत मानी जाती रही.सन 1944में ‘ज्वार भाटा’ से उनकी लांचिंग हुई.शुरूआत में वह मिले-जुले कलेवर की फिल्में करते रहे और फिर सन 1947 में नूर जहान के साथ आयी ‘जुगनू’ जिसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा.और फिर रमेश सहगल की ‘शहीद’ (1948) की सफलता के बाद उन्हें महबूब खान का साथ मिला,
जिनकी फिल्म ‘अंदाज’ (1949) से नाम और शोहरत के साथ-साथ दौलत भी उनके कदम चूमने लगी.ये सब महज पांच सालों में होने लगा था। 50एवं 60के दशक में खूब काम करने के बाद उन्होंने सत्तर के दशक के मध्य में धीरे-धीरे फिल्मों से दूरी बना ली.
लेकिन 80के दशक में वह फिर से सक्रिय हुए.तब 20-25साल काम करने के बाद कमबैक का चलन नहीं था. हां, एक और बात थी कि दिलीप कुमार हमेशा मुख्य किरदार जिसे सिनेमाई भाषा में सेन्ट्रल कैरेक्टर कहते हैं, किया करते थे.
इसे लेकर कहा जाता है कि एक बार उन्हें हॉलीवुड की फिल्म ऑफर हुई थी, जिसमें काम करने से उन्होंने मना कर दिया था.मशहूर ब्रिटिश फिल्मकार डेविड लीन ने दिलीप साहब को ‘लारेंस ऑफ अरेबिया’ में काम करने का ऑफर दिया था.
बाद में पता चला कि यह मेन कैरेक्टर नहीं था, इसलिए उन्होंने फिल्म में काम करने से मना कर दिया था.जाहिर है दिलीप कुमार चुनिंदा काम को हमेशा तरजीह देते थे और उनका कहना था कि ऑडियंस के समक्ष अपने आप को जरूरत से ज्यादा मत खोले.