उर्दू शायरी में रमजान, रोजे और ईद को सामाजिक सरोकार से जोड़ने की कोशिश

Story by  सलमान अब्दुल समद | Published by  [email protected] | Date 10-04-2022
उर्दू शायरी में रमजान, रोजे और ईद को सामाजिक सरोकार से जोड़ने की कोशिश
उर्दू शायरी में रमजान, रोजे और ईद को सामाजिक सरोकार से जोड़ने की कोशिश

 

samadसलमान अब्दुस समद
 
साहित्य समाज का आईना होता है. यही वजह है कि शायर या कवि ऐसा कोई मौका नहीं छोड़ते जिसके माध्यम से वह समाज तक न पहुंच सकें. इस क्रम में त्योहारों पर भी कई शायर और कवियों ने अपने हाथ आजमाए हैं.
 
ऐेसे में रमजान, रोजा और ईद भला कैसे छूट जाता. प्रेमचंद ने तो ईद पर एक कहानी भी लिख डाली थी. फिल्हाल यहां बात कवियों-शायरों की हो रही है. कई शायरों ने रमजान, रोजे और ईद पर शेरो-शायरी कर के इसके सामाजिक पहलू को उभारा है. दूसरी तरफ कतिपय शायर रोजे की इबादत को अल्लाह के प्रति प्रेम से जोड़ने की कोशिश की है. प्रेम तो प्रेम होता है. इस में ढोंग-दिखावे की कोई गुंजाइश नहीं. 

शायरों ने रोजा-रमजान पर लिखते समय इसके सामाजिक पहलुओं को खास तौर से ध्यान में रखा है. रोजे की भूख से गरीबों की भूख को जोड़ने की कोशिश की गई है. मजे की बात यह है गजलों के बादशाह मिर्जा गालिब भी इसमें पीछे नहीं हैं.
 
उनकी शायरी में भी रोजे-रमजान का जिक्र मिलता है. आम तौर लोग समझते हैं कि मियां गालिब की शेर-ओ-शायरी आशिक-माशूक तक सीमित  है, जब कि हकीकत यह है कि उन्होंने अपनी शायरी के माध्यम से समाज के गैर मुनासिब पहलुओं पर बार-बार चोट किए हैं. इस क्रम में मिर्जा गालिब और दूसरे शायरों द्वारा रमजान-रोजे पर कही बातों पर गौर फरमाएं.
 
सामान-ए-खोर-व- खवाब कहां से लाऊं  

आराम के असबाब कहां से लाऊं 

रोजा मेरा ईमान है गालिब लेकिन 

खस खाना व बर्फाब कहां से लाऊं 

(मिर्जा गालिब)

इन दो शेरों में मिर्जा गालिब कह रहे हैं कि वह रोजे में विश्वास रखते हैं. अर्थात मैं रोजे से इनकार नहीं करता.। लेकिन रोजे के लिए बहुत सी चीजों की आवश्यकता होती है, जो मेरे पास नहीं है. तो मैं रोजा कैसे कर सकता हूँ! मूल रूप से, उन्होंने इन शेर में कहा है कि जब रोजे की गर्मी उन्हें परेशान करगी है, तो उन्हें पंखा चाहिए, ठंडा पानी चाहिए,
 
मगर उनके पास कुछ नहीं है. यहां यह भी अस्पष्ट होता है कि गरीब कैसे उपवास रखे. क्योंकि पूरे दिन काम करने के बाद उनके पास रोजा रखने की ताकत नहीं रहती. उन केलिए अच्छी सुविधा भी नहीं है.या फिर इस शेर में गालिब ने रोजे में खाने-पीने का बहुत ध्यान रखने वालों पर व्यंग्य किया है , कि वह रोजे तो करते हैं लेकिन उनका मन खाने-पीने पर होता है.
 
तीसरा बिंदु यहां यह है कि कई रोजे रखने वाले अपने लिए बहुत सारी अच्छी चीजें इकट्ठी कर लेते हैं, लेकिन वह उन गरीबों पर ध्यान नहीं देते, जो सुविधाओं के अभाव में रोजा नहीं रख सकते. इसलिए यह कहना उचित होगा कि गालिब ने इन शेरों में एक बेहतर समाज का सपना देखा था ताकि रोजा रखने वाले लोग न केवल अपना ख्याल रखें बल्कि उन लोगों पर भी ध्यान दें जिनके पास जिंदगी गुजारने कि बुनयादी  सहूलतें भी नहीं हैं.
 
यह भी एक बात है अदावत कि 

रोजा रखा जो हम ने दावत कि 

(अमीर मीनाई)

‘‘अदावत‘‘ का अर्थ है शत्रुता. शायर कहता है कि मैं किसी प्रेमी (या समाज के किसी सदस्य) को निमंत्रण पर आमंत्रित करता हूं. यानी मैं उसके लिए अपने प्यार का इजहार कर रहा हूं. लेकिन महबूब रोजे के बहाने मेरे बुलावे पर नहीं आना चाहता या नहीं चाहती है. 
 
शायद कवि ने यहां प्रेम की पृष्ठभूमि में उपवास को देखने कि कोशिश कि है, कि यदि मेरा प्रिय मेरे पास आता है तो मैं उसके साथ अच्छा समय बिताऊं. मैं उससे मजे की बातें करूं, लेकिन उसने रोजे रखे हैं, इसलिए रोजे का सम्मान करते हुए उसका आनंद लेना उचित नहीं है. ऐसा लग रहा है कि उपवास के परदे में भी यहां महबूब की बेचैनी प्रकट हो रही है. अब मौलाना हसरत मोहनी का एक शेर देखेंः
 
सौम जाहिद को मुबारक रहे आबिद को सलावात

आसियों को तेरी रहमत पे भरोसा  

 ‘सौम‘ का अर्थ है उपवास, जाहिद और आबिद-तपस्या करने वाले या इबादत करने वाले, सलावत-नमाज,  आसी, पापी-गुनहगार को कहते हैं. कवि कह रहा है कि इबादत और रोजे अच्छे लोगों को मुबारक, मैं पापी हूं लेकिन फिर भी मुझे अल्लाह से उम्मीद है कि वह मुझे माफ कर देगा.
 
यानी जो लोग रोजा रखते हैं और अपने आप को श्रेष्ठ समझते हैं, वे अच्छा नहीं करते. क्योंकि मुझ पापी का भी अल्लाह है जो मेरे साथ जैसा चाहे कर सकता है. मुझे माफ कर सकता है ! यहाँ कुछ शेर पेश किए जा रहे हैंः
 
रोज -ए- भी रोजे के जैसी हालत है 

आमिर - ए - शहर से लेकिन सवाल थोड़ी है 

(नवाज असीमी )

बहुत दुख है इस शेर में. ईद का दिन खुशियों का दिन होता है, लेकिन इस दिन भी बहुत से गरीब खुशी मना नहीं पाते यानी जैसे रोजे के दौरान व्यक्ति कुछ नहीं खा पाता, इसी प्रकार बहुत से  गरीबों को ईद के दिन कुछ खास नसीब नहीं होता. हिना रिजवी ने गरीबों का एक और दर्द इस प्रकार पेश किया हैः
 
कहीं रोजे पे रोजे सिर्फ पानी पी कर खुलते हैं 

कहीं बस नाम पे रोजों के इफ्तारी कि बातें हैं

 
बिना तशरीह (स्पष्टीकरण) के कुछ और अशआर यहां पेश है. क्योंकि लेख इस से अधिक बातों को कवर नहीं किया जा सकता है.
 
-ए मुसहफी सद शुक्र हुआ वस्ल मयस्सर 

इफ्तार किया रोजह में उस लब के रत्ब से 

-जो पीते हैं, पीते नहीं वह भी रमजान में 

सुनता हो कोई बंद हुई मै (शराब) कि दुकान और 

(रियाज खैराबादी )
 
 
-करूंगा रोजे का इजहार किस तरह तुम पर 

नमाज का तो जबीन (मांग) पैर निशान सामने है  

(इदरीस आजाद)

 
उपरोक्त और इसी तरह की अन्य शरों से पता चलता है कि उर्दू कवियों ने कई अर्थों में शब्द ‘‘उपवास, रोजा‘‘ का इस्तेमाल किया है. कुछ शेर में उपवास का अर्थ प्रेम से जुड़ा हुआ नजर आता है तो कुछ में एक अच्छा इंसान बनने के बिंदु को प्रस्तुत किया गया है.
 
कुछ कवि ने व्यंग्यात्मक ढंग से समाज के अमीरों को, गरीबों का भी ख्याल रखने को कहा. क्योंकि रोजा दूसरों की भूख और परेशानियों की भी याद दिलाता है. इसी प्रकार कवियों ने कहा है कि रोजा रखने वाले स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरों को हीन न समझें. सच्ची बात यह है कि शायर ने रोजे के कई पहलुओं की ओर इशारा किया है जिसमें एक बेहतर समाज के निर्माण का फलसफा छिपा है.
 
( लेखक असम के एक विश्वविद्यालय में व्याख्याता हैं )