कुर्बानी, समाज और इस्लाम!

Story by  सलमान अब्दुल समद | Published by  [email protected] • 2 Years ago
इबादत
इबादत

 

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सलमान अब्दुस समद

हिन्दी शब्दकोशों के अनुसार कुर्बानी का अर्थ ‘त्याग’ है. इस्लाम में ‘त्याग’ एक महत्वपूर्ण इबादत (पूजा) है, जो इस्लामी कैलेंडर के आखिरी महीने ‘जिल्हिज्जाह’ में बकरीद के पवित्र अवसर पर की जाती है. यदि हम कुर्बानी को व्यापक अर्थों में देखें, तो ज्ञात होगा कि इस्लाम अपने अनुयायियों को न केवल पशु बलि की कुर्बानी करने का निर्देश देता है, बल्कि सभी बुराईयों को त्यागने, अर्थात त्याग करने का भी निर्देश देता है.

कुर्बानी हजरत इब्राहिम (अलैहिस्सलाम) की याद है. मुसलमानों का मानना है कि अल्लाह ने दुनिया में एक लाख चौबीस हजार पैगंबर और दूत भेजे हैं. हजरत इब्राहिम अलैहिस्सलाम इन्हीं पैगम्बरों में से एक हैं, जिन्हें इस्लाम धर्म में काफी अहम माना जाता है.

इतिहास की किताबों में मिलता है कि सबसे पहले हजरत आदम (अलैहिस्सलाम) के बेटों हाबिल और काबिल ने कुर्बानी दी. एक बेटे ने कुछ अनाज रखा और दूसरे ने खुदा के रास्ते में बकरी की तरह एक जानवर भेंट किया. इस प्रकार, बलि की परंपरा बहुत पुरानी है.

इस्लाम ने दुनिया के लिए हजरत इब्राहिम (अलैहिस्सलाम) के ‘कुर्बानी’ को स्वीकार किया. इस्लामी इतिहास (कुरान और हदीस) से पता चलता है कि ईश्वर ने पैगंबर हजरत इब्राहिम को बुढ़ापे में एक बेटे इस्माईल (अलैहिस्सलाम) से नवाजा और जब इस्माईल चलने में सक्षम हो गए, तो खुदा ने हजरत इब्राहिम से कहा कि वह इस्माईल को खुदा के रास्ते में कुरबना कर दें. अल्लाह (खुदा) का निर्देश मिलते ही पिता-पुत्र इसके लिए राजी हो गए. जब हजरत इब्राहिम ने बेटे के गले पर छुरी डाल दी, तो खुदा ने बेटे को बचा लिया और उसकी जगह स्वर्ग से एक फरिश्ते के जरिए मेढ़ा भेजा. इब्राहिम ने मेढ़ा की कुर्बानी की. अल्लाह को उन दोनों का काम बहुत पसंद आया और उसने इस्लाम धर्म के अनुयायियों के लिए इसे आवश्यक घोषित कर दिया. कुरान में हजरत इब्राहिम और इस्माईल की कहानी विस्तार से वर्णित है. और हदीस की कई किताबों में भी इसका उल्लेख हैः

हजरत जैद बिन अरकम ने बताया कि पैगंबर के साथियों ने पूछाः अल्लाह के रसूल! यह कुर्बानी क्या है? मोहम्मद स. ने कहाः यह तुम्हारे बाप इब्राहिम का रास्ता (अर्थात उसकी सुन्नत) है. साथियों ने पूछाः इसमें हमारे लिए क्या इनाम है? पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहाः (जानवर) के हर बाल के बदले एक नेकी है. (मिश्कत शरीफ)

कुर्बानी हजरत इब्राहिम की याद है. मुसलमान अल्लाह के आदेश का पालन करते हैं और कुर्बानी करते हैं. और कुर्बानी के मौके पर खास नमाज भी अदा करते हैं, जिसे ईदुल अजहा कहते हैं. कुर्बानी बलिदान के माध्यम से खुदा मानव को ‘त्याग’ सिखाता है और उसे एक अच्छा इंसान बनाना चाहता है. ऊपर की पंक्तियों में कुर्बानी पर हुई चर्चा से कई अहम बातें सामने आती हैं.

कुर्बानी पर सवाल और जवाब

बहुत से लोग ‘कुर्बानी’ पर आपत्ति करते हैं, लेकिन सोचने वाली बात यह है कि ‘कुर्बानी’ गैर-मुसलमानों में भी एक अच्छा काम (प्रतिक्रिया) माना जाता है. इसलिए केवल इस्लाम की कुर्बानी पर आपत्ति करना समझ में नहीं आता.

यहां हम इस बिंदु पर सोच सकते हैं कि दुनिया की अधिकांश आबादी मांस खाती है. एक सर्वे रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया में बहुत कम ऐसे देश हैं, जहां मांस खाने वालों का प्रतिशत दस प्रतिशत से भी कम है. नहीं तो, हर देश में ऐसे लोग हैं, जो मांस खाते हैं. अगर हम अपने देश की बात करे,ं तो पता चलेगा कि 60 प्रतिशत से 80 प्रतिशत आबादी मांस खाती है. इसका मतलब है कि न केवल ‘कुर्बानी’ या बकरीद के त्योहार पर, बल्कि अन्य दिनों में भी जानवरों को जिबह किया जाता है, ताकि देश की 80 प्रतिशत आबादी को मांस मिल सके. यहां यह बताना जरूरी है कि दुनिया में रहने वाले जीवों के दांत दो तरह के होते हैं. एक, फ्लैट, फ्लैट का अर्थ है चौड़ा गैर-नुकीला. दूसरे, तेज और नुकीला. अगर हम इन दांतों पर गौर करें, तो पता चलेगा कि अल्लाह ने नुकीले दांत सिर्फ मांस खाने वालों को ही दिए हैं.

कुर्बानी के आर्थिक और सामाजिक पहलू

मुसलमान कुर्बानी देते हैं, क्योंकि उन्हें अल्लाह का आदेश मिला है. इस्लाम को मानने वालों का मानना है कि ईश्वर ऐसे किसी काम का निर्देश नहीं कर सकता, जिससे इंसान को कोई नुकसान हो. यही वजह है कि लाखों सवाल खड़े होने के बावजूद, मुसलमान कुर्बानी देते हैं, क्योंकि उन्हें अल्लाह की आज्ञा का पालन करना होता है.

कुर्बानी को जब हम सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से देखते हैं, तो कुर्बानी में मिलने वाले सवाब (पुण्य) के अलावा कई अहम तथ्य सामने आते हैं. कुर्बानी का सामाजिक बिंदु यह है कि अल्लाह ने कुर्बानी करने वालों को निर्देश दिया कि वे कुर्बानी के मांस के तीन भाग डालें. एक हिस्सा अपन परिवार के सदस्यों के लिए, दूसरा हिस्सा समाज के गरीबों के लिए और तीसरा हिस्सा अपने रिश्तेदारों के लिए. उपरोक्त पंक्तियों में हमने यह भी तथ्य प्रस्तुत किया है कि हमारे देश की लगभग 60-80 प्रतिशत जनसंख्या मांस खाती है. वहीं यह भी एक सच्चाई है कि देश में बहुत से लोग मुश्किलों के बाद ही दो वक्त की रोटी खा पाते हैं. ऐसे में साफ है कि जो लोग मुश्किल से दो वक्त के लिए रोटी नहीं खा पाते हैं, वो मीट कैसे खा सकते हैं, यह कुर्बानी का सामाजिक पहलू है कि कुर्बानी के मौके पर कई गरीब लोगों को मीट मिल जाता हैं. क्योंकि इस्लाम ने कुर्बानी के मांस को तीन हिस्सों में बांटा है, एक हिस्सा गरीबों का है. यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि इस्लाम ने गैर-मुस्लिम या मुस्लिम गरीबों के बीच कोई रेखा नहीं खींची. इसलिए कुर्बानी का मांस किसी भी गरीब को दिया जा सकता है, चाहे मुस्लिम हो या गैर-मुस्लिम. इस संबंध में दारुल उलूम देबंद का एक फतवा भी मौजूद हैः यदि आप मानते हैं कि कोई गैर-मुस्लिम कुर्बानी का मांस खाएगा, उसे अपवित्र या बर्बाद नहीं करेगा, तो आप उसे कुर्बानी का मांस चढ़ा सकते हैं. (100-101-2/9439)

गरीबों को मांस देना जहां एक धार्मिक निर्देश है, वहीं यह सामाजिक हित का भी मामला है. इसके अलावा इस्लाम ने कुर्बानी के मांस को रिश्तेदारों में बांटने का आदेश दिया है, अगर आप गंभीरता से सोचते हैं, तो यह भी एक सामाजिक मामला है.

अगर आप सरसरी निगाह से देखेंगे, तो आपको पता चलेगा कि दुनिया में चमड़े के बैग, बेल्ट, चप्पल-जूते, पर्स आदि बहुत पसंद किए जाते हैं. जाहिर सी बात है कि कुर्बानी के चमड़े से भी महंगी चीजें भी बनाई जाती हैं, ऐसे में ‘चमड़ा उद्योग’ को भी फायदा होता है. यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि कुर्बानी करने वाले का कुर्बानी के चमड़े पर कोई अधिकार नहीं होता है. इस्लाम ने कुर्बानी की खाल को गरीबों का अधिकार घोषित किया है. उपरोक्त सभी बातों का ध्यान रखने पर ही कुर्बानी पूर्ण होगी. इसलिए हम कह सकते हैं कि ‘कुर्बानी’ एक सुंदर कृत्य है, क्योंकि इससे ‘गरीबों की मदद’ हो जाती है और ‘रिश्तेदारों को उपहार’ भी मिल जाता है, इसका मतलब यह हुआ कि ‘कुर्बानी’ केवल एक कृत्य नहीं, बल्कि एक सामाजिक त्योहार भी है.

(लेखक इस्लाम धर्म के जानकार हैं और वर्तमान में इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ थेओलोजी, पलवल के निदेशक हैं.)