अनीता
भारत विविधताओं का देश है। यहाँ एक ही विषय या व्यक्तित्व को अलग-अलग दृष्टिकोणों से देखा जाता है. यही कारण है कि जहाँ उत्तर भारत में दशहरे के दिन रावण दहन करके बुराई पर अच्छाई की विजय का उत्सव मनाया जाता है, वहीं दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में रावण की पूजा की जाती है. यह परंपरा पहली बार सुनने पर आश्चर्यजनक लग सकती है, लेकिन इसके पीछे गहरी ऐतिहासिक, धार्मिक और सांस्कृतिक जड़ें जुड़ी हुई हैं.
इस लेख में हम विस्तार से जानेंगे कि दक्षिण भारत में रावण की पूजा क्यों की जाती है, इसके पीछे पौराणिक कथाएँ, क्षेत्रीय मान्यताएँ, ऐतिहासिक कारण और समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण क्या हैं.
रामायण का सबसे बड़ा खलनायक रावण माना जाता है. उत्तर भारत में उसे राक्षसों का राजा, अहंकार और अधर्म का प्रतीक बताकर उसकी निंदा की जाती है. लेकिन यही रावण दक्षिण भारत की कुछ परंपराओं में विद्वान, शिवभक्त, वीर योद्धा और महापंडित के रूप में पूजनीय है.
रावण को वेदों और शास्त्रों का ज्ञाता माना गया है. वह संस्कृत का महान पंडित था और उसने कई रचनाएँ कीं।कहा जाता है कि उसने रुद्र वीणा का आविष्कार किया. रावण भगवान शिव का महान भक्त था और उसने शिव तांडव स्तोत्र जैसे अमर स्तोत्रों की रचना की. दस दिशाओं का विजेता होने के कारण उसे दक्षिण में वीरता का प्रतीक भी माना जाता है.
रावण पूजा के प्रमुख क्षेत्र
तमिल संस्कृति में रावण को एक महान विद्वान और शिवभक्त के रूप में देखा जाता है. कई मंदिरों में रावण से जुड़ी कथाएँ सुनाई जाती हैं. कुछ स्थानों पर दशहरे के दौरान राम की बजाय रावण को आदर देने की परंपरा भी मिलती है.
कर्नाटक के कुछ इलाकों में दशहरे के समय रावण की मूर्तियाँ बनाई जाती हैं और उसकी पूजा की जाती है.स्थानीय मान्यता है कि रावण एक महान ज्योतिषी और आयुर्वेदाचार्य भी था.
आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के कुछ गाँवों में रावण को एक कुल-देवता की तरह पूजने की परंपरा है. रावण को वीरता और ज्ञान का प्रतीक मानकर उसकी आराधना की जाती है. द्रविड़ परंपराओं में रावण को ष्अपना नायकष् मानने की प्रवृत्ति दिखाई देती है. रावण की लंका दक्षिण की समुद्री संस्कृति और व्यापारिक महाशक्ति का प्रतीक थी। तमिल साहित्य में भी रावण को पूरी तरह नकारात्मक नहीं माना गया.
रावण और मंदिर
दक्षिण भारत शिवभक्ति की भूमि है. तमिलनाडु का चिदंबरम, आंध्र का श्रीशैलम और कर्नाटक का गोकर्ण जैसे शिव मंदिर रावण की कथाओं से जुड़े हुए हैं. चिदंबरम कथा में कहा जाता है कि रावण ने यहाँ भगवान नटराज को प्रसन्न करने के लिए अपना सिर काटकर बलिदान देने की कोशिश की थी.
गोकर्ण स्थान भी रावण से जुड़ा हुआ है, जहाँ उसने भगवान शिव से आत्मलिंग प्राप्त किया था. इस कारण दक्षिण भारत के शिव भक्त रावण को शिव के सबसे प्रिय भक्तों में गिनते हैं और उसकी पूजा करते हैं.
लोककथाएँ और रावण
दक्षिण भारत की लोककथाओं में रावण को कई बार विद्वान राजा के रूप में दर्शाया गया है. ग्रामीण परंपराओं में उसे एक ऐसे राजा के रूप में याद किया जाता है जिसने अपनी प्रजा की रक्षा की. कुछ कथाओं में तो यहाँ तक कहा गया है कि सीता का हरण उसकी इच्छा से नहीं, बल्कि नियति के कारण हुआ.
रावण पूजा का एक समाजशास्त्रीय पहलू भी है. कुछ जातियाँ और समुदाय रावण को अपना पूर्वज और कुलदेवता मानते हैं.
साहित्य और कला में रावण
दक्षिण भारत के कई काव्यों, नाटकों और लोकनाट्य परंपराओं में रावण को नकारात्मक के बजाय जटिल चरित्र के रूप में प्रस्तुत किया गया है. कथकली (केरल) में रावण को एक शक्तिशाली और वीर चरित्र के रूप में दिखाया जाता है. तमिल कविताओं में रावण को महान शिवभक्त बताया गया है.
यह विरोधाभास भारत की सांस्कृतिक विविधता का प्रमाण है. आधुनिक दौर में भी यह परंपरा दक्षिण भारत की सांस्कृतिक विविधता और वैचारिक स्वतंत्रता को दिखाती है. दक्षिण भारत में रावण की पूजा केवल धार्मिक मान्यता नहीं बल्कि सांस्कृतिक पहचान, ऐतिहासिक स्मृति और सामाजिक दृष्टिकोण का हिस्सा है.
जहाँ एक ओर वह रामायण में बुराई का प्रतीक है, वहीं दूसरी ओर दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में वह विद्वता, भक्ति और वीरता का प्रतीक है. यह विरोधाभास भारत की ताकत है, क्योंकि यहाँ एक ही चरित्र को कई दृष्टिकोणों से देखा जाता है. यही विविधता भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी पहचान है.