इस लक्ष्मी-नारायण मंदिर में क्यों फजलुर रहमान की तस्वीर स्थापित है, जानें

Story by  मुकुंद मिश्रा | Published by  [email protected] | Date 09-04-2021
बरेली स्थित राष्ट्रीय एकता का प्रतीक लक्ष्मी-नारायण मंदिर
बरेली स्थित राष्ट्रीय एकता का प्रतीक लक्ष्मी-नारायण मंदिर

 

गौस सिवानी / नई दिल्ली

बरेली में राष्ट्रीय एकता का संदेश देता हुआ अनोखा मंदिर है, जिसमें मंदिर के भक्तों द्वारा एक मुसलमान की की तस्वीर स्थापित की गई है. कुछ लोगों के लिए राष्ट्रीय एकताएक विचारधारा हो सकती है, लेकिन फजलुर रहमान उर्फ चना मियां के लिए यह विश्वास का विषय था. यही कारण है कि उन्होंने अपनी जमीन पर मंदिर बनाने के लिए बहुत पैसा खर्च किया था. तब इसे लक्ष्मी नारायण मंदिर का नाम दिया गया है, लेकिन वास्तव में यह राष्ट्रीय एकता का मंदिर है. यह मंदिर उन लोगों के लिए भी एक तमाचा है, जो हिंदू-मुस्लिम एकता में विश्वास नहीं करते हैं और धर्म के नाम पर भुला दिए गए लोगों को विभाजित करके अपना हित साधने का प्रयास करते हैं.

बरेली में प्रसिद्ध लक्ष्मी नारायण मंदिर हिंदुओं की भक्ति का केंद्र है, तो मुसलमानों के लिए एकजुटता का प्रतीक है और देश के नागरिकों के लिए गंगा-जमुनी सभ्यता का सुंदर उदाहरण है. भारत मंदिरों से भरा है और इसके आयामों में कई मंदिर हैं, जो सनातन धर्म की संस्कृति को दर्शाते हैं. इन सभी में लक्ष्मी नारायण मंदिर का विशेष महत्व है.

अशोक का प्रतीक

इस मंदिर को एक विशेष भारतीय रंग देने के लिए अशोक के प्रतीक के रूप में अशोक का चेहरा इसके प्रवेश द्वार पर चित्रित किया गया है, जो आमतौर पर देश के किसी अन्य मंदिर में नहीं मिलेगा.

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बरेली के लक्ष्मी-नारायण मंदिर में ‘अशोक’ का प्रतीक चिन्ह


जमीन ही नहीं, धन भी दिया

इस मंदिर की खासियत यह है कि सभी मंदिर हिंदुओं द्वारा बनाए गए हैं, लेकिन इसे फजलुर रहमान उर्फ चना मियां द्वारा बनाया गया था. वह स्थान जहां मंदिर स्थित है, उस पर चना मियां का स्वामित्व था और उन्होंने इसे बनाने के लिए बाद में अपना खजाना खोल दिया. यह मंदिर बरेली के कटरामन राय बाजार में स्थित है.

बरेली के चाचा

फजलुर रहमान को इलाके में अंकल चना मियां के नाम से जाना जाता था. वह बरेली के एक महान सेठ थे. चना मियां ने न केवल इस लक्ष्मी नारायण मंदिर के लिए, बल्कि अन्य मंदिरों के लिए भी दान दिया. उन्होंने प्रसिद्ध हरि मंदिर में राधा कृष्ण की मूर्तियों की स्थापना के लिए दान दिया गया था, जबकि प्रसिद्ध शिव मंदिर धूपेश्वर नाथ में भक्तों के लिए नलकूप स्थापित करवाए थे.

स्थानीय लोगों के अनुसार, चना मियां ने अपना पूरा जीवन मंदिरों, गुरुद्वारों और स्कूलों और कॉलेजों के निर्माण में बिताया. उन्होंने कई कॉलेज-स्कूलों के निर्माण में सहयोग दिया. ऐसे कॉलेजों में बरेली शहर का इस्लामिया इंटर कॉलेज, बरेली कॉलेज का कॉमर्स ब्लॉक, गली मनिहार का गुरुद्वारा आदि शामिल हैं. उन्होंने मुरादाबाद जिले में एक स्कूल भी स्थापित किया.

कृष्ण जन्माष्टमी पर जन्मे थे चना मियां

चना मियां का जन्म 1889 में कृष्ण जन्माष्टमी के दिन बरेली में हुआ था. 7-8 साल की उम्र में उनके पिता की मृत्यु हो गई. कुछ साल बाद, मां की परछाई भी उनके सिर से उठ गई. ऐसी स्थिति में, चना मियां बचपन से ही जीवन को बेहतर बनाने के संघर्ष में जुट गए.

इसी दौरान उनकी मुलाकात सेठ गुलजारी लाल उर्फ दाता सेठ से हुई, जिनके पास चना मियां को नौकरी मिली. एक समय सेठ ने उन्हें कुछ पैसे दिए और उन्हें इस धन से कुछ व्यवसाय करने की सलाह दी. चना मियां ने उस धन से कुछ सामान खरीदा और उन्हें एक टोकरी में रखकर बेचना शुरू कर दिया. उनका व्यवसाय बढ़ता गया और फिर वह बरेली के सबसे अमीर लोगों में से एक बन गए. उन्होंने शहर की सबसे बड़ी इस्त्री कंपनी भी खरीदी.

पंजाबियों के लिए मंदिर बनवाया

देश की स्वतंत्रता और विभाजन के बाद जब पंजाबी समुदाय के कुछ सदस्य पाकिस्तान से आए और बरेली में बसे, तो उन्होंने अपने आवास के लिए जहां छोटे कमरे बनाए थे, लेकिन उनके पास पूजा के लिए कोई जगह नहीं थी. पंजाबी समाज के लोग खाली पड़ी जमीन पर मंदिर बनाना चाहते थे और यहां तक कि इस मुद्दे को अदालत में भी लेकर गए. उन्होंने मंदिर निर्माण के लिए बड़ी रकम भी दी.

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बरेली के दानवीर सेठ फजलुर रहमान उर्फ चना मियां, जिन्होंने लक्ष्मी-नारायण मंदिर के लिए न केवल जमीन दी, धन दिया, खुद लक्ष्मी-नारायण की प्रतिमाएं लेने जयपुर गए, बल्कि अपने सिर पर तसला उठाकर मिट्टी और पत्थर भी ढोए  


चना मियां ने खुद पसंद की लक्ष्मी-नारायण प्रतिमाएं

चना मियां के पोते शम्स-उर-रहमान और नजम-उर-रहमान ने कहा कि उनके दादा स्वयं मंदिर के लिए श्री लक्ष्मी नारायण की मूर्तियों को लेने के लिए जयपुर गए थे. उन्होंने महसूस किया कि कोई अन्य इस मंदिर के लिए बेहतर, अधिक सुंदर असली संगमरमर की मूर्ति की पहचान नहीं कर पाएगा. ऐसी स्थिति में वह स्वयं गए और जयपुर से मूर्तियों को लाए और उन्हें मंदिर में स्थापित करवाया.

राष्ट्रपति ने उद्घाटन किया

16 मई, 1960 को जब मंदिर का निर्माण हुआ था, तो चना मियां ने तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद को मंदिर के उद्घाटन के लिए बुलवाया था. उसके बाद सनातन धर्म पंजाबी फ्रंटियर सभा को पंजीकृत किया गया और इसके लिए 20,700 रुपये भी चना मियां ने दिए थे.

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बाबू राजेंद्र प्रसाद 


चना मियां की तस्वीर

मंदिर निर्माण के लिए स्वयं चना मियां ने कड़ी मेहनत की. जमीन और पैसा देने के अलावा, उन्होंने अपने सिर पर पत्थर और मिट्टी ढोई. इसलिए भक्तों ने उनकी तस्वीर भी मंदिर में स्थापित की हुई है. हिंदू मंदिर में एक मियां की तस्वीर केवल यहां देखी जा सकती है. चना मियां इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनका परिवार अभी भी मंदिर से जुड़ा हुआ है. उनके पोते अभी भी मंदिर के काम में हिस्सा लेने के लिए यहां आते-जाते हैं.

राज्यसभा का प्रस्ताव खारिज

गौरतलब है कि भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू चना मियां का योगदान सुनकर प्रसन्न हुए और उन्होंने बरेली की यात्रा के दौरान चना मियां को राज्यसभा में भेजने का प्रस्ताव दिया. चना मियां राजनीति से दूर ही रहना चाहते थे. इसलिए उन्होंने विनम्रतापूर्वक प्रस्ताव से इनकार कर दिया.