देश की राजधानी दिल्ली लंबे समय से वायु प्रदूषण की चपेट में है, लेकिन अब इसका असर सिर्फ लोगों की सेहत पर ही नहीं, बल्कि भारत की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पहचान पर भी पड़ रहा है. दिल्ली के सबसे प्रतिष्ठित स्मारकों में से एक, लालकिले की दीवारें आज प्रदूषण के कारण धीरे-धीरे बदरंग हो रही हैं. स्वतंत्रता दिवस के मौके पर जहाँ हर साल प्रधानमंत्री भारत का राष्ट्रीय ध्वज फहराते हैं, वही ऐतिहासिक लालकिला आज गंभीर क्षरण की स्थिति में पहुँच चुका है.
एक हालिया अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक अध्ययन ने इस संकट की गंभीरता को सामने लाते हुए यह चेतावनी दी है कि अगर तुरंत ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो आने वाले समय में यह ऐतिहासिक इमारत अपनी भव्यता और संरचनात्मक मजबूती दोनों खो सकती है.
. एकत्रित नमूनों के नमूनाकरण स्थल
यह अध्ययन भारत के प्रतिष्ठित संस्थानों — IIT रुड़की, IIT कानपुर, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) — और इटली के वेनिस स्थित का’ फॉस्कारी विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा किया गया. यह पहला ऐसा शोध है जिसने लालकिले पर वायु प्रदूषण के प्रभावों का इतना विस्तृत और वैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत किया है.
अध्ययन के निष्कर्षों को ‘हेरिटेज’ नामक अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिका में प्रकाशित किया गया है, जिससे स्मारक संरक्षण को लेकर एक नई बहस छिड़ गई है.शोध में यह पाया गया कि लालकिले की लाल बलुआ पत्थर की दीवारों पर एक मोटी काली परत जम गई है, जो सिर्फ धूल या मिट्टी नहीं, बल्कि प्रदूषकों और पत्थर के बीच रासायनिक प्रतिक्रियाओं का परिणाम है.
यह परत 0.05 मिमी से लेकर 0.5 मिमी तक मोटी पाई गई है और इसके भीतर जिप्सम, बेसानाइट, वेडेलाइट जैसे खनिजों के साथ-साथ सीसा और जस्ता जैसी भारी धातुएं भी मौजूद हैं. ये पदार्थ मुख्य रूप से वाहनों से निकलने वाले धुएँ, सीमेंट उद्योग और आसपास के लगातार निर्माण कार्यों से उत्पन्न हो रहे हैं.
लाल किला परिसर में दिखाई देने वाली क्षरण घटनाएं: प्लास्टर का फटना (ए, बी), उखड़ना (सी, डी), बढ़ती नमी और पेटिनास (ई, एफ), नमक का फूलना (एफ), और मकराना संगमरमर से सजे फर्श को सीमित क्षति (जी)।
वर्षा के दौरान ये रासायनिक अभिक्रियाएँ और अधिक सक्रिय हो जाती हैं, जिससे जिप्सम जैसी परतें पत्थर की सतह पर जम जाती हैं और उसे क्षतिग्रस्त करने लगती हैं.अध्ययन में यह भी सामने आया कि दिल्ली की हवा में मौजूद सूक्ष्म कण — विशेषकर पीएम 2.5 और पीएम 10 — लालकिले के क्षरण में सबसे बड़ा योगदान दे रहे हैं.
ये कण वातावरण में मौजूद रहते हुए दीवारों की सतहों, विशेष रूप से बारीक नक्काशी और सजावटी हिस्सों पर जमा हो जाते हैं, जिससे उनका मूल रंग-रूप फीका पड़ने लगता है. इन सतहों पर जमी हुई कालिख की यह परत धीरे-धीरे सिर्फ रंग को ही नहीं, बल्कि पत्थर की बनावट को भी नुकसान पहुँचा रही है.
इस कालेपन का असर सिर्फ सतह पर ही नहीं है, बल्कि यह किले की दीवारों की भीतरी संरचना तक पहुँच चुका है. शोधकर्ताओं ने पाया कि प्रदूषण और नमी की संयुक्त क्रिया के चलते दीवारों में फफोले उभरने लगे हैं, खासकर उन स्थानों पर जहाँ अधिक आर्द्रता है.
किले के मुख्य द्वारों और कुछ अन्य हिस्सों पर सफेद नमक के क्रिस्टल और जैविक परतें दिखाई दे रही हैं, जिनमें हरी-भूरी काई भी शामिल है. ये सब संकेत हैं कि प्रदूषण ने सिर्फ बाहरी सुंदरता नहीं छीनी है, बल्कि संरचनात्मक रूप से भी लालकिला कमजोर होता जा रहा है.
नमूना 1RS के क्रॉस-सेक्शन के लिए प्राप्त डेटा: (ए, बी) नमूना 1RS के क्रॉस-सेक्शन के माइक्रोग्राफ, 1.65X और 3.75X पर; (सी) 250X पर हाइलाइट किए गए लाल क्षेत्र की एसईएम छवि और (डी) एक्सआरडी पैटर्न।
2021 से 2023 तक लालकिले के आसपास के इलाकों से केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) द्वारा एकत्रित आंकड़े इस स्थिति की गंभीरता को और भी स्पष्ट करते हैं. इन वर्षों के आंकड़ों के विश्लेषण से पता चला कि पीएम 2.5 और पीएम 10 का स्तर लगातार राष्ट्रीय मानकों से ऊपर रहा है.
साथ ही, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड (NO₂) भी तय सीमा से अधिक पाई गई, जो पत्थरों के क्षरण को और तेज करती है. हालांकि सल्फर डाइऑक्साइड (SO₂) और अमोनिया (NH₃) का स्तर अपेक्षाकृत कम रहा, लेकिन शोधकर्ताओं का कहना है कि इन गैसों की कम मात्रा भी लंबी अवधि में पत्थर और धातु की सतहों को नुकसान पहुँचा सकती है.
लालकिला दिल्ली के सबसे व्यस्त इलाके चांदनी चौक के पास स्थित है, जहाँ चौबीसों घंटे ट्रैफिक और निर्माण कार्य चलते रहते हैं. ऐसे में यह स्मारक निरंतर प्रदूषण की चपेट में रहता है. इससे पहले ताजमहल पर भी वायु प्रदूषण के असर को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने चिंता जताई थी. वहाँ की सफेद संगमरमर की सतहें पीली और हरी-भूरी हो चुकी थीं. अब वही अदृश्य लेकिन गंभीर खतरा लालकिले के सामने भी खड़ा है.
इस समस्या से निपटने के लिए अध्ययन में कई महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए गए हैं. सबसे पहले, किले की दीवारों की समय-समय पर वैज्ञानिक विधियों से सफाई जरूरी है, ताकि जमा हो रही कालिख की परत को पत्थर की सतह को नुकसान पहुँचाए बिना हटाया जा सके। इसके साथ ही, शोधकर्ताओं ने रक्षात्मक सीलेंट या सुरक्षात्मक आवरण के उपयोग की भी सिफारिश की है, जो विशेष रूप से प्रदूषण से प्रभावित हिस्सों की रक्षा कर सकते हैं और आगे परतों के जमाव को रोक सकते हैं.
हालाँकि, विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि ये सभी उपाय तब तक अधूरे रहेंगे जब तक दिल्ली की समग्र वायु गुणवत्ता में सुधार नहीं किया जाता. जब तक प्रदूषण के मुख्य स्रोत — जैसे वाहन, निर्माण कार्य और औद्योगिक उत्सर्जन — को नियंत्रित नहीं किया जाएगा, तब तक संरक्षण के प्रयास केवल अस्थायी समाधान साबित होंगे. दीर्घकालिक सुरक्षा के लिए शहर स्तर पर व्यापक नीति और नियमन की जरूरत है.
लालकिला केवल एक स्थापत्य चमत्कार नहीं, बल्कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम और हमारी राष्ट्रीय चेतना का प्रतीक है। इसे सुरक्षित रखना केवल एक तकनीकी जिम्मेदारी नहीं, बल्कि एक नैतिक और राष्ट्रीय दायित्व भी है. जब हम स्वतंत्रता दिवस पर तिरंगा फहरते हुए इस किले को देखते हैं, तो यह हमारे इतिहास की गौरवगाथा की याद दिलाता है. अगर हम आज इसे प्रदूषण के कारण नष्ट होने दें, तो यह हमारी पीढ़ी की एक बड़ी विफलता होगी.
समय आ गया है कि हम चेतें — और न सिर्फ चेतें, बल्कि ठोस कदम उठाएँ. लालकिला एक स्मारक नहीं, हमारी अस्मिता है. इसे बचाना सिर्फ संरक्षण नहीं, अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य की रक्षा करना है.
तस्वीरें साभार: एमडीपीआई