साकिब सलीम
दलपत सिंह को हाइफ़ा का नायक क्यों कहा जाता है? यह सवाल सिर्फ़ एक ऐतिहासिक तथ्य नहीं, बल्कि एक ऐसे अदम्य साहस की गाथा है जिसने आधुनिक सैन्य इतिहास की दिशा बदल दी.23 सितंबर 1918 का वह दिन, जब हाइफ़ा (वर्तमान इज़राइल) में एक घुड़सवार सेना के नेतृत्व में लड़ी गई और जीती गई आखिरी बड़ी लड़ाई दर्ज की गई.इस अविश्वसनीय हमले का नेतृत्व जोधपुर लांसर्स के मेजर ठाकुर दलपत सिंह ने तुर्की सेना के ख़िलाफ़ किया था.
इज़राइल में आज भी उन्हें इस असाधारण वीरता के लिए "हाइफ़ा के नायक" के रूप में याद किया जाता है.इज़राइली मानते हैं कि प्रथम विश्व युद्ध के दौरान फ़िलिस्तीन पर कब्ज़ा करने में भारतीयों के योगदान से ही उनके राष्ट्र के निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ.
यह युद्ध ब्रिटिश सेना की एक बड़ी रणनीतिक भूल के बाद अचानक सामने आया.22सितंबर 1918को, जनरल हेनरी चौवेल को यह खुफिया जानकारी मिली कि तुर्की सेनाएँ बिना किसी युद्ध के हाइफ़ा को खाली कर रही हैं.
अपनी 15वीं (इंपीरियल सर्विस) कैवलरी ब्रिगेड के साथ, उन्होंने ख़ुद को शहर का सैन्य गवर्नर घोषित करने के लिए एक रोल्स रॉयस कार में सवार होकर हाइफ़ा की ओर कूच किया.उन्हें किसी भी तरह के विरोध की उम्मीद नहीं थी.
लेकिन, उनकी उम्मीद के विपरीत, शहर से तीन मील पहले ही तुर्कों ने भारी हमला कर दिया.आधिकारिक रिकॉर्ड के अनुसार, तुर्की की बैटरियों ने इतना सटीक निशाना साधा कि "लगभग पहली ही गोलाबारी जनरल की गाड़ी से टकराई, जिससे वह खाई में गिर गई और झंडा चकनाचूर हो गया."
जनरल चौवेल को अपने कर्मचारियों के साथ खाई में छिपना पड़ा, जहाँ वे तब तक फंसे रहे जब तक कि उन्हें सुरक्षित बाहर नहीं निकाला गया.यह एक शर्मनाक स्थिति थीऔर इस अप्रत्याशित हमले ने ब्रिटिश रणनीति को पूरी तरह से विफल कर दिया.
ऐसी आपात स्थिति में, सारी ज़िम्मेदारी 15वीं कैवलरी की भारतीय बटालियन पर आ गई.इस बटालियन से हैदराबाद लांसर्स को पहले ही केरकुर भेज दिया गया था.ऐसे में, जोधपुर लांसर्स और मैसूर लांसर्स पर यह मुश्किल मिशन आ पड़ा.
भारतीय घुड़सवार सैनिकों को सुबह 3बजे अफ़ुले से हाइफ़ा और एकर पर कब्ज़ा करने के लिए आगे बढ़ने का आदेश दिया गया.दोपहर 2बजे, दलपत सिंह को अपनी जोधपुर लांसर्स के साथ पूर्व से तुर्की सेना की चौकी पर हमला करने का आदेश मिला, जबकि मैसूर लांसर्स दूसरी तरफ से हमले का नेतृत्व करने लगे.
यह एक ऐसा हमला था जिसका आधुनिक सैन्य इतिहास में कोई उदाहरण नहीं था.जोधपुर और मैसूर लांसर्स के सैनिकों ने अपने घोड़ों पर सवार होकर तुर्की की तोपों और मशीनगनों पर हमला बोल दिया.
मार्क्विस ऑफ़ एंगलसी ने अपनी पुस्तक "हिस्ट्री ऑफ़ द ब्रिटिश कैवलरी" में इस हमले को "पूरे अभियान में लड़ी गई अपने पैमाने की सबसे सफल घुड़सवार कार्रवाई" बताया.उन्होंने लिखा कि यह युद्ध केवल दो रेजिमेंटों द्वारा लगभग 1,000अच्छी तरह से सशस्त्र सैनिकों के ख़िलाफ़ जीता गया था, जो एक प्राकृतिक रूप से दुर्जेय रक्षात्मक स्थिति में थे.
सर एडमंड एलेनबी ने 31 अक्टूबर 1918 के अपने एक प्रेषण में इस असाधारण जीत का श्रेय भारतीय सैनिकों के अदम्य साहस को दिया.उन्होंने लिखा, "जब मैसूर लांसर्स माउंट कार्मेल की चट्टानी ढलानों को साफ़ कर रहे थे, जोधपुर लांसर्स ने घाटी में धावा बोला.दुश्मन की मशीनगनों को चकनाचूर करते हुए शहर में सरपट दौड़ पड़े."
एलेनबी ने विशेष रूप से उल्लेख किया कि आक्रमण का नेतृत्व करते समय मेजर ठाकुर दलपत सिंह, एम.सी., वीरतापूर्वक शहीद हुए.आक्रमण का नेतृत्व करते समय उनकी रीढ़ की हड्डी में गोलियाँ लगीं.
कुछ घंटों बाद ऑपरेशन टेबल पर उनकी मृत्यु हो गई.उस समय उनकी आयु मात्र 25 वर्ष थी.उनके बलिदान ने यह सुनिश्चित किया कि फ़िलिस्तीन पर तुर्कों से कब्ज़ा हो जाए, जिसके परिणामस्वरूप लगभग 27 वर्ष बाद इज़राइल राज्य का निर्माण हुआ.
मेजर दलपत ने हाइफा के युद्ध में शहादत प्राप्त की, जिसने इजरायल की भूमि पर 400 वर्षों से चले आ रहे तुर्की शासन को समाप्त कर दिया।
लेफ्टिनेंट जनरल प्रताप सिंह ने दलपत के पिता दौलत सिंह को लिखे पत्र में कहा, "मुझे आपको यह बताते हुए खुशी हो रही है कि जोधपुर लांसर्स ने फिलिस्तीन अभियान में अपनी भूमिका उल्लेखनीय रूप से निभाई... ठाकुर हरि सिंह के पुत्र मेजर ठाकुर दलपत सिंह भीषण युद्ध में शामिल थे और इस यादगार आक्रमण में अपनी घुड़सवार सेना के साथ वीरतापूर्वक शहीद हुए."
दलपत सिंह का बलिदान सिर्फ़ एक सैनिक की शहादत नहीं था, बल्कि वह साहस, नेतृत्व और कर्तव्यनिष्ठा का एक ऐसा प्रतीक बन गया, जिसे आज भी याद किया जाता है.हाइफ़ा का उनका नाम और उनका शौर्य भारत और इज़राइल के बीच एक स्थायी भावनात्मक बंधन बन गया है, जो हमें यह याद दिलाता है कि कैसे एक युवा भारतीय सैनिक ने अपने असाधारण साहस से इतिहास को बदल दिया.