महाबलीपुरम की नक्काशी पर छाए संकट के बादल

Story by  सलमान अब्दुल समद | Published by  [email protected] | Date 31-07-2021
संगतराश अपनी व्यथा साझा करते हुए
संगतराश अपनी व्यथा साझा करते हुए

 

सलमान अब्दुस समद / नई दिल्ली

तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई से लगभग 60किमी दक्षिण में तट पर स्थित महाबलीपुरम पत्थर की नक्काशी के लिए प्रसिद्ध है. सैकड़ों वर्ष पूर्व सम्राट सेरेन, सोरेन और पांडिहा आदि ने न केवल अन्य सांस्कृतिक परंपराओं को बढ़ावा दिया, बल्कि नक्काशी की कला को भी आगे बढ़ाया. हालांकि समुद्र तट पर दुकानों की बढ़ती संख्या और पर्यटकों की घटती संख्या पत्थरों को तराशने वालों की आर्थिक स्थिति को और खराब कर रही है. लॉक डाउन से पहले एक ट्रिप के दौरान, जब हमने वहां के कलाकारों से बात की, तो उनकी दयनीय आर्थिक स्थिति सामने आई.

पूर्व सम्राट सेरेन, सोरेन और पांडिहा आदि ने दूर-दूर से पत्थर के नक्काशी करने वालों को महाबलीपुरम में आमंत्रित किया और उन्हें पत्थर की नई वस्तुएं बनाने का मौका दिया. इस प्रकार न केवल पत्थर की नक्काशी की कला को बढ़ावा दिया गया, बल्कि सांस्कृतिक प्रचार का एक जबरदस्त काम भी किया गया और आज भी पत्थर के सामान पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र हैं. देश-विदेश के पर्यटक उत्साह के साथ पत्थर के बर्तन खरीदते हैं. महाबलीपुरम में कॉलेज भी है, जहां से कई लोग डिप्लोमा पूरा करने के बाद पत्थर की नक्काशी के क्षेत्र में अपना करिश्मा दिखाते हैं. मनभावन चीजें बनाने के लिए वे अपने हाथों में पत्थरों को मोम करते हैं.

अनमोल कलाकारी

तमिलनाडु के अन्य शहरों,  तिरुनलवेली, मदुरै, कुनबुकुम और सेरंगम आदि पत्थर की नक्काशी लिए प्रसिद्ध हैं. हालांकि, कुछ दिनों पहले चेन्नई की अपनी यात्रा के दौरान, हमने महाबलीपुरम के कलाकारों से बात की, तो कुछ पीड़ादायक बातें सामने आईं.

एक 36वर्षीय कलाकार धाना सेकराहरेन ने कहा, “नक्काशी वास्तव में बहुत मुश्किल काम है. फिर भी हम इसके माध्यम से पुरे विश्व में भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं. इस कार्य से शरीर के सभी अंग प्रभावित होते हैं. आंखें कमजोर हो जाती हैं. जैसे-जैसे समय गुजरता जाता हैं, तो शरीर पतला होता चला जाता है.”

यह भी एक महतवपूर्ण बिंदु हैं कि किसी भी कलाकार को वास्तव में उसके परिश्रम का वास्तविक मेहनताना नहीं दिया जा सकता है. सेकराहरेन कहते हैं कि हमारी नक्काशी को देखें और बतायें, इसका बदला कुछ हो सकता है. कलाकारी तो अनमोल होती है. वास्तव में हम भारतीय संस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं. मगर हमारी अनमोल कलाकारी पर कोई बड़ा इनाम तो क्या, उचित दाम भी नहीं मिलते हैं कि हम ठीक ढंग से अपनी जिन्दगी जी सकें.

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प्रस्तर कलाकृतियां

बिना सरकारी मदद लुप्त हो जाएगी नक्काशी

अपनी नक्काशी-यात्रा के बारे में वे कहते हैं कि लगभग तीस वर्ष पहले हमने ‘स्टोन नक्काशी’ में डिप्लोमा कोर्स किया था, लेकिन डिप्लोमा से कुछ पहले से ही मैंने यह काम शुरू कर दिया था. लगभग 30साल की कारोबारी यात्रा में अच्छे कारोबार की खातिर मैंने कई दुकानें बदली, लेकिन अच्छी खरीदारों की की समस्या अभी भी हल नहीं हुई है. मेरी दुकान आज भी किराए पर है. हम सरकारी मदद से दूर हैं. सरकारी मदद के बिना, अब ऐसा लगता है कि पत्थर की नक्काशी को शायद ही बढ़ावा दिया जा सके, क्योंकि बेरोजगारी बढ़ रही है. इसलिए, हम तमिलनाडु सरकार के साथ-साथ केंद्र सरकार से भी अपील करते हैं कि पत्थरों की नक्काशी को बढ़ावा देने केलिए कोई इस्कीम बनाई जाए. अन्यथा पत्थर की नक्काशी केवल इतिहास के पन्नों में दब कर रह जाएगी.

वर्तमान पीढ़ी में बढ़ी अरुचि

एक दूसरे कलाकार सी. मॉर्गन कहते हैं, “मेरी तीसरी पीढ़ी इस काम में लगी हुई है, लेकिन चौथी पीढ़ी को इसमें दिलचस्पी नहीं है. रुचि की कमी के कई कारण हो सकते हैं. पहला कारण यह है कि नक्काशी में पर्यटकों की रूचि कम होती जा रही  है, जिससे कम खरीदारी हो रही है. हमारी मेहनत का उचित मुआवजा नहीं मिल पाता है. वैसे तो हम पत्थर बहुत कम दामों में खरीदते हैं, लेकिन छोटे-छोटे सामान बनाने में भी कई-कई दिन लग जाते हैं.

घटे खरीददार

महाबलीपुरम में समुद्र तट पर दुकानों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है और पर्यटकों या पत्थर की नक्काशी में रुचि रखने वालों की संख्या कम होती जा रही है, लेकिन जब पर्यटक कुछ खरीदते हैं, तो हमें दो तरह की खुशी होती है. सबसे पहले, हमारा व्यवसाय फलता-फूलता है. दूसरा, भारतीय संस्कृति को बल मिलता है.

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प्रस्तर कलाकृतियां

एक यह बात भी महत्पूर्ण है कि पत्थर की नक्काशी की बिक्री चाहे जितनी भी हो, मगर हर धर्म और हर देश के पर्यटकों के लिए नक्काशी एक ही प्रकार का महत्व रखती है. धार्मिक बंधनों से आजाद होकर खरीदने वाले खरीदते हैं. नवंबर, दिसंबर, जनवरी और फरवरी में पर्यटक यहां ज्यादा ही आते हैं, लेकिन एक तीन चार वर्षों से नोट बंदी के कारण संगतराशों का काम काफी प्रभावित हुआ है.

बिक्री घटी

तीसरे पत्थर के कलाकार और सीप की वस्तु बनाने वाले एक दुकानदार रामचंद्रन कहते हैं, “महाबली पुरम में समुद्र तट पर 100से अधिक पत्थर और समुद्री सीप की दुकानें हैं. हम मछुआरों से सीप खरीदते हैं और उन्हें तेजाब से साफ करते हैं. फिर चाबियों के छल्ले, झूमर और विभिन्न सजावट के सामान बनाते हैं. इसके अलावा हम आगरा से भी कुछ सामान मंगवाते हैं, लेकिन बिक्री तय नहीं है, कभी ठीक-ठाक हो जाती है, तो कभी बिल्कुल नहीं. किसी-किसी समय पत्थर के सामान या सीप के सामानों की पूरे दिन बिक्री नहीं होती.”

मेहनत का गलत आंकलन

उन्होंने कहा कि हैरानी की बात यह है कि घरेलू पर्यटकों की तरह विदेशी पर्यटक भी बहुत मोल-भाव करते हैं और कभी-कभी विदेशी सोचते हैं कि भारतीय हमारे लिए जो भी कीमत निर्धारित करते हैं, वह उचित नहीं होती है. वे सोचते हैं कि भारतीय हर जगह कीमत ज्यादा ही तय करते हैं और हमें लूटने का मंसूबा रखते हैं, लेकिन ऐसा कुछ नहीं है, उन्हें हमारी मेहनत का सही अंदाजा नहीं है. काश कोई हमारी मेहनत को समझे.

पुरानी संस्कृति दांव पर

चश्मदीद गवाह के तौर पर हम कह सकते हैं कि करीब दो घंटे में हमने किसी भी विदेशी पर्यटक को किसी दुकान में कुछ भी खरीदते नहीं देखा. हालांकि, विदेशी पर्यटकों को दुकानों के इर्द-गिर्द घूमते हुए जरूर देखा. इसके इलावा ये भी देखा कि कुछ छोटे-छोटे बच्चे अपने हाथों में पत्थरों के सामान लिए विदेशी पर्यटकों के आस-पास मंडलाते रहे, लेकिन पर्यटकों ने उनकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया.

लॉक डाउन की मार

हमने पत्थर की वस्तुओं में रुचि और अरुचि के बारे में भी कुछ पर्यटकों से कुछ पूछने का प्रयास भी किया, जिनमें से अधिकांश ने कोई जवाब नहीं दिया. इन सभी परिस्थितियों में कई सवाल उठते हैं कि भारतीय संस्कृति को बढ़ावा देने वाले इन कलाकारों की आजीविका का भविष्य क्या होगा? जो कलाकार लॉक डाउन से पहले भी परेशान थे, वह लॉक डाउन के बाद कितने परेशान होंगे? उनकी आर्थिक स्तिथि दो-दो लॉक डाउन के बाद कितनी खराब होगी, हम खुद समझ सकते हैं.

बढ़ती बेरोजगारी के युग में क्या उनके लिए रोजगार के अन्य अवसर पैदा करना संभव होगा? जो स्थिति महाबली पुरम के पत्थर की नक्काशी करने वाले कलाकारों की है, कमोबेश वही हाल राजस्थान और मद्रास के अन्य संग-तराशों का भी है. ऐसे में सवाल यह है कि भारत की पुरानी संस्कृति अब कैसे बाकी रहेगी? हालिया हाल यह है कि जहां पुरानी संस्कृति दांव पर है, वहीं कलाकारों की आजीविका का मुद्दा भी ज्वलंत प्रश्न बन गया है.