अभिषेक कुमार सिंह / वाराणसी/ सासाराम
कैमूर जिले के पटना से 190 किमी दूर स्थित सातो अवंती गांव की रामलीला क्षेत्र की समग्र संस्कृति का एक दीर्घकालिक उदाहरण है. बिहार के इस छोटे से गांव में रामलीला के लिए मंच तैयार किया जाता है, जिसमें कलाकारों, आयोजकों और दर्शकों में मुस्लिमों की बड़ी तादाद में भागीदारी होती है.
इस रामलीला में यह दृश्य गांव के हर आदमी के लिए जाना-पहचाना है, जब निर्देशक शेख मुमताज अली हाथ में माइक लेकर मंच से पात्रों को उनके अगले संवादों का क्लू देते हैं और इसके लिए रामचरितमानस की ‘चौपाई’ का जाप करना शुरू कर देते हैं. रामलीला में सीता का किरदार उनके 19 वर्ष के बेट अकलीम निभाते हैं.
‘सियावर राम चंद्र की जय’ का उद्घोष हवा में गूंज उठता है और दर्शक मंच पर मौजूद पात्रों का जय-जयकार करने लगते है. किसी को यह महसूस भी नहीं होता कि जयकार करती इस भीड़ में सातो अवंती गांव के कई मुस्लिम भी होते हैं. यह लोग वर्षों से रामलीला में भाग लेने और देखने के लिए समर्पित रूप से मीलों की यात्रा करके आते हैं.
कैमूर जिले के पटना से 190 किमी दूर स्थित सातो अवंती गांव की रामलीला, क्षेत्र की समावेशी संस्कृति का एक जीता-जागता उदाहरण है.
गांव के बुजुर्गों के मुताबिक, गांव में 1982 में तत्कालीन सरपंच जमालुद्दीन अंसारी और मास्टर नुरुल अंसारी के प्रयास से रामलीला की शुरुआत हुई थी. कट्टर मुसलमान होने के बावजूद, वे रामचरितमानस और इसकी शिक्षाओं का सम्मान करते थे, और उनका मानना था कि इसका पाठ सुनने से एक व्यक्ति, उसके परिवार और अंततः समाज में सकारात्मक बदलाव आता है.
अंग्रेजी अखबार हिंदुस्तान टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट में इस रामलीला के संरक्षक सुरेश सिंह याद करते हुए कहते हैं, “उन्होंने ग्रामीणों की एक बैठक बुलाई और एक रामलीला शुरू करने की इच्छा व्यक्त की. इस विचार का दोनों समुदायों के लोगों ने स्वागत किया और सभी लोग मदद करने के लिए राजी हो गए.”
उन दिनों सिंचाई और बिजली की सुविधा न होने वाले सुदूर गाँव में संसाधन, मंच, वेशभूषा, सजावट और अन्य आवश्यक चीजों की व्यवस्था करना आसान नहीं था. फिर भी, अंसारी और अन्य लोगों ने कड़ी मेहनत की और वार्षिक उत्सव शुरू होने से पहले वाराणसी और आसपास के स्थानों से सभी आवश्यक चीजों की खरीदारी की.
1982 में पहले शो में, खुर्शीद आलम ने राम की भूमिका निभाई और जमालुद्दीन अंसारी ने कुंभकरण की भूमिका निभाई थी. जबकि मार्शल आर्ट विशेषज्ञ खलीफा सदरुद्दीन अंसारी और शहाबुद्दीन अंसारी ने युद्ध के दृश्यों का निर्देशन और उसकी देखरेख की. और आज करीबन 42 साल बाद भी वे लोग इस जिम्मेदारी को निभा रहे हैं.
आश्विन महीने में एक पखवाड़े तक रामलीला का आयोजन शाम 5 बजे से 7.30 बजे तक किया जाता है और दशहरे के दिन भगवान राम के राज्याभिषेक समारोह के साथ समाप्त होता है. उस रिपोर्ट में सुरेश सिंह कहते हैं, “दोनों समुदायों के लोग हर साल योगदान देते हैं, और हमेशा अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने का प्रयास करते हैं.”
रामलीला में भीड़ में कम से कम 35 प्रतिशत मुस्लिम होते हैं और हर साल उनकी भागीदारी बढ़ती जा रही है. हालांकि, चार दशकों के बाद अब निर्देशक की भूमिका मुमताज अली निभात हैं और उनके बेटे अकलीम शेख सीता का किरदार निभाया करते हैं. तौकीर अंसारी कुंभकरण का, आजाद अंसारी सुमित्रा का और इमरान अंसारी कैकेयी का किरदार निभाते हैं, जबकि अफजल अंसारी भगवान शिव के रूप में मंच पर उतरते हैं.
नुरुल होदा अंसारी उत्तानपाद (हास्य अभिनेता) की भूमिका में दर्शकों को हंसने पर मजबूर कर देते हैं. सिर्फ बुजुर्ग ही नहीं, मुस्लिम बच्चे भी सक्रिय रूप से शामिल होते हैं और भगवान राम और रावण की सेनाओं के सैनिकों की भूमिका निभाते हैं.
इस बीच, गुड्डु तिवारी भगवान राम की भूमिका में, यशवंत सिंह उनके छोटे भाई लक्ष्मण की भूमिका में, जबकि अमित सिंह हनुमान की भूमिका निभाते हैं. अपनी कर्कश और गरजती आवाज के साथ, ईश्वर चंद्र सिंह रावण की भूमिका का प्रतीक हैं.
लेकिन इस गांव का सांप्रदायिक सौहार्द दोनों समुदायों की तरफ से बराबर को योगदान से लहलहा रहा है.
हिंदुस्तान टाइम्स की इस रिपोर्ट में अकलीम कहते हैं, “गाँव के हिंदू मुहर्रम और यौमे पैदाइश के आयोजन में पूरी मदद करते हैं. हम ईद और सभी त्यौहार एक साथ मनाते हैं. मैं देश के अन्य हिस्सों में सांप्रदायिक नफरत की खबरें पढ़कर आश्चर्यचकित हो जाता हूं. जब हम एक सर्वशक्तिमान पिता के प्राणी हैं, तो एक आदमी दूसरे से नफरत कैसे कर सकता है?”