इमान सकीना
इस्लाम की सुंदर शिक्षाओं में एक बहुत महत्वपूर्ण अवधारणा है-फ़ितरत यानी वह शुद्ध और प्राकृतिक स्वभाव जिसके साथ हर इंसान पैदा होता है। इस फ़ितरत में सच्चाई, भलाई, इंसाफ़ और एक ख़ालिक़ की पहचान की स्वाभाविक प्रवृत्ति शामिल है। इस्लाम बताता है कि हर मनुष्य जन्म से ही एक साफ़ दिल और नेक प्रवृत्ति लेकर आता है। यही वजह है कि नबी मुहम्मद ﷺ ने फ़रमाया कि “हर बच्चा फ़ितरत पर पैदा होता है।”

इसका मतलब है कि बुराई, गुमराही और गलत रास्ता इंसान के अंदर शुरू से नहीं होता; बल्कि माहौल, परवरिश, समाज और अपनी पसंदें इंसान को बदल देती हैं। क़ुरआन में भी अल्लाह तआला इंसान की इसी फ़ितरत का ज़िक्र करते हैं: “अपने चेहरे को सीधे होकर अल्लाह के दीन की तरफ कर लो,यह वही फ़ितरत है जिस पर अल्लाह ने इंसानों को पैदा किया है।” (सूरह अर-रूम 30:30)। यह आयत बताती है कि हर दिल में अल्लाह ने भलाई और सच्चाई की चाहत रखी है और कोई भी इंसान जन्म से बुरा नहीं होता।
फ़ितरत हमारे अंदर का वह प्राकृतिक दिशा-सूचक है जो हमें अच्छाई की तरफ ले जाता है। जब इंसान झूठ, ज़ुल्म या बुराई करता है, तो अंदर से बेचैनी महसूस होती है,यह उसी फ़ितरत की आवाज़ है जो गलत को स्वीकार नहीं करती। और जब इंसान नेक काम करता है-जैसे मदद करना, ईमानदार होना, इंसाफ़ करना तो दिल में सुकून महसूस होता है क्योंकि यह सब हमारे असली स्वभाव के मुताबिक़ होता है।
हालाँकि, माहौल और परवरिश फ़ितरत पर गहरा असर डालते हैं। नबी ﷺ ने बताया कि माता-पिता और समाज बच्चे की सोच को बदल देते हैं। फिर भी, इस्लाम यह बात भी स्पष्ट करता है कि फ़ितरत कभी पूरी तरह खत्म नहीं होती। चाहे इंसान कितना भी भटक जाए, उसके दिल में सच्चाई की एक चिंगारी हमेशा रहती है, और सही मार्ग मिलते ही वह फिर से जाग सकती है।

इस्लाम के अनुसार, अल्लाह की पहचान और तौहीद का एहसास इंसान की रूह में पहले से मौजूद होता है। इसलिए दुनिया की हर सभ्यता में किसी न किसी रूप में एक ईश्वर को मानने की प्रवृत्ति मिलती है,यह फ़ितरत का प्रभाव है। नैतिक मूल्य जैसे न्याय, दया, शर्म, भरोसा, इंसाफ़ सिर्फ़ धार्मिक नियम नहीं हैं, बल्कि हमारी नैसर्गिक प्रवृत्ति का हिस्सा हैं। जब इंसान इनपर चलता है तो दिल को सुकून मिलता है, और जब इनका उल्लंघन करता है तो बेचैनी पैदा होती है।
इस्लाम इंसान को अपनी फ़ितरत की तरफ लौटने के कई रास्ते देता है। तौबा दिल को मुलायम करती है, नमाज़ और ज़िक्र रूह को उसके मकसद से जोड़ते हैं, ख़ैरात और नेकी दिल में दया को जगाती है, इल्म इंसान की सोच को साफ़ करता है और अल्लाह की नेमतों पर ग़ौर–फिक्र इंसान को उसके ख़ालिक़ की पहचान की तरफ वापस ले जाता है। रूहानी तरक्की का सफ़र दरअसल अपनी उसी जन्मजात पवित्रता की तरफ लौटना है जिस पर अल्लाह ने इंसान को पैदा किया था।

रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में फ़ितरत इंसान को सिखाती है कि ईमान बोझ नहीं बल्कि हमारी असली पहचान है। यह याद दिलाती है कि चाहे इंसान कितना भी दूर चला जाए, वापस लौटने का दरवाज़ा हमेशा खुला है। फ़ितरत इंसान को सादगी, सच्चाई और नेकनीयती की ओर बुलाती है और बताती है कि असली सुकून भलाई में ही है।