तुर्की के लिए आजादी की लड़ाई और आत्मसम्मान का प्रतीक है गाजियांटेप कैसल

Story by  रावी द्विवेदी | Published by  onikamaheshwari | Date 13-02-2023
तुर्की के लिए आजादी की लड़ाई और आत्मसम्मान का प्रतीक है गाजियांटेप कैसल
तुर्की के लिए आजादी की लड़ाई और आत्मसम्मान का प्रतीक है गाजियांटेप कैसल

 

रावी द्विवेदी
 
भूकंप के पहले बड़े झटके ने सबसे ज्यादा तबाही तुर्की के गाजियांटेप प्रांत में ही मचाई है. गाजियांटेप तुर्की का वो क्षेत्र है जिसकी सीमाएं सीरिया के गृह युद्ध प्रभावित इलाकों के साथ लगती हैं. यही वजह है कि इसे बड़ी संख्या में सीरियाई नागरिकों की शरणगाह के तौर पर भी जाना जाता है. गाजियांटेप में ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्व की तमाम इमारतें हैं लेकिन गाजियांटेप कैसल इसमें एक खास जगह रखता है.

सदियों से गाजियांटेप के पहरेदार की भूमिका निभाता रहा यह महल करीब 2000 साल पुराना इतिहास समेट है. 20वीं सदी में आजादी की लड़ाई लड़ने के बाद से तो यह तुर्की के लिए उसके स्वाभिमान का प्रतीक बन गया है. गाजियांटेप कैसल जब बनाया गया था तब इस जगह को एंटाब या एंटाप के नाम से जाना जाता था.
 
 
इसे आक्रामणकारियों की तरफ से हंताब या हमताब भी कहा जाता था. फरवरी 1921 में तुर्की की संसद ने इसे गाजी के खिताब से नवाजा. यह सम्मान फ्रांसीसी कब्जे के खिलाफ तुर्की की आजादी की लड़ाई में इसकी अहम भूमिका को देखते हुए प्रदान किया गया. तब इसे गाजी एंटाप कहा जाने लगा. 1928 से इसका आधिकारिक नाम गाजियांटेप हो गया. प्रांत और शहर के साथ कैसल का नाम भी गाजियांटेप हो गया है. तुर्की की आजादी की लड़ाई के योद्धाओं की याद में यहां स्मारक बनाया गया. सदियों पुराना गाजियांटेप कैसल तुर्की आने वाले पर्यटकों को काफी आकृष्ट करता रहा है.
 
पहले वॉच टावर के तौर पर होता था इस्तेमाल
कैसल यानी मोटी-मोटी दीवारों वाली कोई ऐसा संरचना जो दुश्मनों के हमले से बचाने में सक्षम हो. भूकंप प्रभावित क्षेत्र विभिन्न सभ्यताओं और साम्राज्यों के बीच संघर्ष का केंद्र रहा है, शायद यही वजह है कि यहां लंबे-चौड़े परिसरों और ऐसी मजबूत दीवारों वाली तमाम इमारतें मिलती हैं. संभवत: इनका इस्तेमाल अपने लोगों और अपनी संपत्तियों को दुश्मन की नजर से बचाने और उनके हमले नाकाम करने के लिए किया जाता रहा होगा.
 
 
गाजियांटेप कैसल को स्थानीय भाषा में गजियांटेप कालेसी भी कहा जाता है, बड़े से बड़ा हमला झेल लेने वाले विशाल पत्थरों से बने इस महल का निर्माण हत्ती साम्राज्य के समय हुआ. उस समय इसे वॉचटॉवर के तौर पर इस्तेमाल किया जाता था. दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व रोमन साम्राज्य के समय इसे पूर्ण रूप से कैसल में तब्दील किया गया. हत्ती साम्राज्य के समय निर्मित और रोमन साम्राज्य के दौरान विकसित इस इमारत को भूकंप में काफी क्षति पहुंची है. तुर्की से आ रही तस्वीरें दिखाती हैं महल की रेलिंग ढह गई है और इसकी मीनारों को भी काफी क्षति पहुंची हैं. इस महल में कुल 12 मीनारें बनी थी. यह गोलाकार कैसल करीब 1200 मीटर इलाके में फैला है.
 
न जाने कितने साम्राज्यों के लिए प्रहरी बना 
 
तुर्की के स्वाभिमान का प्रतीक यह कैसल कई साम्राज्यों के लिए एक प्रहरी की तरह रहा है. रोमन साम्राज्य के हाथों से निकलने के बाद महल बीजान्टिन शासन के कब्जे में आया. बीजान्टिन साम्राज्य के प्रमुख शासकों में से एक जस्टिनियन प्रथम ने गाजियांटेप कैसल का विस्तार किया और आक्रमणकारियों से बचाव के लिए इसके चारो तरफ सूखी खाई खुदवाई.
 
661 ईसवी में मक्का के उमय्या वंश के हाथों में आने के साथ यहां मुस्लिमों का कब्जा हुआ. 962 में बीजान्टिन साम्राज्य फिर यहां कब्जा जमाने में सफल रहा. ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि 1067 में सेल्जुक साम्राज्य यहां काबिज हुआ और 1098 में बीजान्टिन ने इसे फिर अपने कब्जे में ले लिया. इस तरह से यह मुस्लिमों और ईसाइयों के बीच लंबे संघर्ष का गवाह बना रहा. यह कुर्द विजेता सलादीन द्वारा स्थापित अय्यूबिद राजवंश के कब्जे में भी रहा.
 
अय्यूबिद राजवंश के दौरान यहां काफी बदलाव किए गए. आखिरकार, 1516 में कैसल ऑटोमन साम्राज्य के कब्जे में आया. 1520 से 1566 तक सत्ता संभालने वाले सम्राट सुलेमान के शासनकाल में सन् 1557 में कैसल के इतिहास को संरक्षित करने पर विशेष ध्यान दिया गया. 2000 के दशक की शुरुआत में आखिरी बार इसके संरक्षण की ठोस कोशिशें हुई और इसका सौंदर्यीकरण किया गया. फिलहाल, यह महल गाजियांटेप डिफेंस एंड हीरोइज्म पैनोरमिक म्यूजिम के तौर पर आकर्षण का केंद्र बना हुआ था.
 
 
रात को रोशनी में नहाया कैसल कर देता था मंत्रमुग्ध
 
तुर्की के एक स्थानीय ट्रैवल ब्लॉगर की माने तो आमतौर पर यहां की सरकार अपनी ऐतिहासिक और पुरातात्विक धरोहरों के संरक्षण को लेकर ज्यादा गंभीर नहीं रही है, लेकिन गाजियांटेप कैसल को सजाने-संवारने पर काफी ध्यान दिया गया. यह कैसल शहर के मध्य में एक पहाड़ी पर स्थित है. संग्रहालय तुर्की की आजादी की लड़ाई के साथ-साथ प्रथम विश्व युद्ध और यहां ब्रिटेन व फ्रांस के कब्जे के दौरान की घटनाओं से भी परिचित कराता है.
 
बड़े-बड़े पत्थरों से बने सदियों पुराने कैसल के संग्रहालय में फ्रांस के खिलाफ आजादी के योद्धाओं की वीरता को गौरवपूर्ण तरीके से उकेरा गया था. यह तुर्की की आजादी में योगदान देने वाले तमाम अनाम नायकों से परिचित कराता है. पर्यटकों को यहां जाकर ही पता चलता था कि कैसे फ्रांस के खिलाफ लड़ाई के दौरान यहां की महिलाओं और बच्चों तक ने अपनी कुर्बानी दी. हर छोटी-बड़ी घटना को फोटो, छोटे स्मारकों और 3डी बोर्डों के साथ दिखाया गया.
 
संग्रहालय से निकलकर ऊपर खुली छत पर पहुंचकर तो लोग एकदम हतप्रभ रह जाते. यहां से दूर-दूर तक का नजारा दिखाई देता, चाहे पुरानी मस्जिद हो या हम्माम के खंडहर. बड़ी-बड़ी गगनचुंबी इमारतें भी इसके आगे छोटी नजर आती थीं. रात को रोशनी में नहाया कैसल पर्यटकों को मंत्रमुग्ध ही कर देता था. 
 
 
शाहीन बे की बहादुरी की याद दिलाता है म्यूजियम 
 
प्रथम विश्व युद्ध खत्म होने के बाद तुर्की के कुछ क्षेत्रों पर मित्र देशों की सेना का कब्जा हो गया. इसके बाद फ्रांसीसी सेना पुराने शहरों में से एक एंटेप की ओर बढ़ने लगी. ऑटोमन शासनकाल के आखिरी दौर में तुर्की दूर-दूर तक फैला साम्राज्य गवां चुका था और अब उसके सामने बचा-खुचा इलाका बचाने की चुनौती थी. उस समय मुस्तफा कमाल अतातुर्क (जो बाद में तुर्की गणराज्य के संस्थापक बने) ने तुर्की की आजादी को स्वाभिमान का प्रतीक बना दिया और सेना को संगठित करना शुरू किया.
 
इस दौरान उन्होंने एंटेप के लड़ाकों को भी जंग के मैदान में उतरने के संदेश भेजे. अतातुर्क की एक आवाज पर यहां के लोगों ने मोर्चा संभाल लिया और मोहम्मद सैद ने उनकी अगुआई है. 1877 में एंटेप में ही जन्मे सैद को स्थानीय भाषा में शाहीन बे के नाम से जाना जाता है. उनके पिता की बचपन में ही मौत हो गई थी और मामा ने पाला-पोसा था. आजादी की जंग में गाजियांटेप में टर्किश रिवोल्यूशनरी सेना के कमांडर की जिम्मेदारी संभालने वाले शाहीन ने 1899 में ऑटोमन शासनकाल के कई जंग में सक्रिय भूमिका निभाई थी. 
 
 
वह यमन पर ऑटोमन साम्राज्य के कब्जे को बरकरार रखने के लिए बहादुरी से लड़े. लेकिन इटली और उत्तरी अफ्रीका में हार के बाद निराश होकर इस्तांबुल लौट आए. फिर उन्हें बाल्कन के मोर्चे पर भेज दिया गया. हर तरफ ऑटोमन की हार के बीच ब्रिटिश सेना ने शाहीन बे को बंदी बना लिया और 1919 में रिहा होने के बाद वह दक्षिण-मध्य तुर्की स्थित अपने गृह राज्य लौट आए.
 
यही समय था जब कमाल पाशा अतातुर्क ने तुर्क क्रांति का आह्वान किया. एंटेप में शाहीन बे की अगुआई में छिड़ी जंग के दौरान ऐसी स्थिति भी आई जब शहर के लोगों के सामने भूखों मरने की नौबत आ गई क्योंकि फ्रांसीसी सेना ने खाद्य आपूर्ति बंद कर दी थी, लेकिन उन लोगों ने आत्मसमर्पण करने से इनकार कर दिया.
 
शाहीन बे ने अपनी अंतिम सांस तक इलामी ब्रिज के पास फ्रांसीसी सेना को रोकने की पूरी कोशिश की. म्यूजियम उनकी और उनके साथियों की इसी शहादत को याद दिलाता है.